Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
भगवान् महावीर विहार यात्रा पर थे। चलते-चलते, वे जब उस वन के निकट पहुँचे, जिसमें चण्डकौशिक विषधर रहता था, तब वहाँ पर गायें चरा रहे ग्वालों ने महावीर से कहा-'इधर, एक भयङ्कर सर्प रहता है । अतः आप इधर से न जाकर, उधर वाले रास्ते से चले जावें।'
ग्वालों के कथन का, महावीर पर जरा भी असर न हुआ । वे, निर्विकार भाव से, अपने पथ पर आगे बढ़ चले ।
ग्वालों ने, उन्हें उसी रास्ते पर जाते देखा, जिस पर जाने से उन्होंने उन्हें मना किया था, तो वे भयभीत और आशंकित मन से सोचने लगे –'यह संत, अब बच नहीं सकेगा, शायद !'
मैंने, आगमों में उल्लिखित इस घटना-क्रम पर जब-जब भी चिन्तन किया, मुझे लगा-'भय, सर्प की विकरालता में नहीं है, उसके जहरीलेपन में भी नहीं है। अपितु, व्यक्ति के अपने मन में भय रहता है। कोई भी व्यक्ति, जब स्वयं क्रोध से भरा होता है, तब उसे, सर्वत्र क्रोध ही क्रोध नजर आता है। उसके मन में, जब अशान्ति समाई होती है, तब, सारा संसार उसे प्रशान्त दिखलाई पड़ता है। ईर्ष्या, द्वेष, कुण्ठा और संत्रासों से परिपूरित मन, सारे संसार में, अपनी ही कलुषित कालिमा को छाया हुप्रा देखता है। और, अपने मन में जब शान्ति हो, सन्तोष हो, निर्मलता हो, समता हो, सरलता हो, अमरता हो; तब, विश्व का सारा वातावरण भी उसे शान्त सन्तुष्ट, निर्मल आदि रूपों में दृष्टिगोचर होगा।
वन-वन विहारी महावीर का मन, शान्ति, सन्तुष्टि, सहजता, समता, सरलता आदि मानवीय गुणों से ले कर दयालुता, परदुःख कातरता आदि अतिमानवीय गुणों को भी अपने में प्रतिष्ठापित कर चुका था। मृत्यु का भय, हमेशाहमेशा के लिये उसमें से विगलित हो चुका था और उसके स्थान पर उसमें अनन्त अमरता समाहित हो चुकी थी। ऐसे में, ग्वालों के भय-आशंका पूरित निवेदन से, भला वे क्यों सहमते ? अपना पथ-परिवर्तन क्यों करते?
ग्वालों द्वारा निषिद्ध पथ पर, अपने दृढ़ कदम बढ़ाने के पीछे, महावीर का यह आशय भी नहीं था कि वे उन ग्वालों के ग्राम्य-मन पर प्रभाव डालना चाहते हों
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