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32 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
धर्म का प्ररूपक साधु ही सम्यक् ज्ञान के दाता होते हैं ।
ओसन्नोऽवि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उववूहंता परूवंतो ।। 21 ।। अवसन्नेऽपि विहारे, कर्म शोधयति सुलभबोधि च ।
चरण - करणं विशुद्दं, उपवृहंयन् प्ररूपयन्च ।। 21।। जो महाव्रतों एवं पिण्ड विशुद्धि आदि गुणों से युक्त, अर्हत्-प्रवचन की प्रशंसा एवं विशुद्ध आचार में सम्यक् प्ररूपणा करता है वह साधु संयम मार्ग में शिथिल होने पर भी अशुभ कर्मों की निर्जरा करके भवान्तर में सुलभ बोध होता है ।
अक्खलियमिलियाइगुणे, कालग्गहणाइओ विही सुत्ते । मज्जणनिसेज्जअक्खा, इच्चाइकमो तयत्थम्मि ।। 22 ।। अस्खलितमिलितादिगुणे, कालग्रहणादिको विधि: सूत्रे । मार्जननिशेषाक्षा, इत्यादि कर्म तत्रास्मिन् ।। 22 ।। सूत्र एवं अर्थ के अध्येता मुनि को सूत्र में बताई गई विधि पूर्वक कालग्रहण, भूमि प्रमार्जन, गुरू के आसन की रचना, स्थापनाचार्य की स्थापना इत्यादि कर्तव्यों का पालन करते हुये हीनाक्षर आदि स्खलना रूपी दोषों एवं अधिकार या पाठ को मिलाकर पढने रूपी दोषों का परित्याग कर सूत्रों का अध्ययन करना चाहिये ।
निद्दा- विगहा - परिव-ज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ।। 23 ।। निद्राविकथापरिवर्जितैः गुप्तैः प्रांजलिपुटैः । भक्तिबहुमान पूर्व, उपयुक्तैः श्रोतव्यं ।। 23 ।। निद्रा, विकथा का परित्याग कर तथा मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का निग्रह कर, कर-कमल संयोजित करके सभक्ति बहुमान पूर्वक सजग एवं एकाग्र होकर श्रुत ज्ञान को श्रवण करना चाहिये ।
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