Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 170
________________ 168 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री सुट्ठ वि गुणे धरंतो, पावइ लहुयतणं अकित्तिं च । परदोसकहानिरओ, उक्करिसपरो य सगुणेसु ।। 455 ।। सुष्ठु अपि गुणान् धरन्, प्राप्नोति लघुत्वं अकीर्ति च । परदोषकथानिरतः, उत्कर्षपरश्च स्वगुणेषु ।। 455 || दूसरों के दोषों की निन्दा करने में निरत और अपने ही गुणों की बढ़ाई करने वाले ये दोनों ही हेय है। ऐसे व्यक्ति गुणवान् होते हुए भी लघुता तथा अपयश ही प्राप्त करते हैं। आयरइ ज अकज्जं अन्नो किं तुज्झ चिंताए ? | अप्पाणं चिय चिंतसु, अज्ज वि वसगं भवदुहाणं ।। 456 || आचरति यद्यकार्य, अन्यः किं कश्चित् तव तत्र चिंतया । आत्मानं एव चिन्तया अद्यापि वशगं भवदुःखानाम् ।। 456 || कोई अन्य व्यक्ति अकरणीय आचरण करता है तो उसके इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के विषय में तुम्हारी चिन्ता व्यर्थ है । तुम तो यही चिन्ता करो कि सांसारिक दुःखों के वशीभूत मैं किस प्रकार इन दुःखों से मुक्त हो पाऊंगा दूसरों के दोषों की चिन्ता निष्प्रयोजन ही है । परदोसे जंपतो, न लहइ अत्थं जसं न पावेइ । सुअणं पि कुणइ सत्तुं बंधइ कम्मं महाघोरं ।। 457 || · परदोषान् जल्पन् न लभते अर्थ यशः न प्राप्नोति । स्वजनं अपि करोति शत्रु, बध्नाति कर्म महाघोरं ।। 457 ।। दूसरों के दोषों को कहने से न तो द्रव्य की प्राप्ति होती है और न यश की प्राप्ति होती है । स्वजन भी शत्रु बन जाते हैं तथा अतिरौद्र कर्म का बन्धन होता हैं समयम्मि निग्गुणेसु वि, भणिया मज्झत्थभावया चेव । परदोसगहणं पुण, भणियं अन्नेहि वि विरुद्धं ।। 458 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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