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170 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
परदोषकथा न भवति, बिना प्रद्वेषेणेन सःच भवहेतुः। क्षपकः कुन्तला देवी सूरिश्च अत्र उदाहरणानि।। 461 ।। प्रकर्ष द्वेष के बिना दूसरों का दोष-दर्शन नहीं होता है और यह प्रकर्ष द्वेष ही प्राणियों के भवभ्रमण का हेतु कहा गया है। इस सम्बन्ध में क्षपक, कुन्तलादेवी (जितशत्रु नामक राजा की मुख्य रानी) और शिथिलाचारी आचार्य के उदाहरण, सिद्धान्त ग्रन्थों में कहे गये हैं।
पुव्वुत्तगुणसमग्गं, धरिंउ जइ तरसि नेय चारित्तं। सावयधम्मम्मि दढो, हवेज्ज जिणपूयणुज्जुत्तो।। 462 ।। पूर्वोक्तगुणसमग्रं, धतु यदि शक्नोषि नैव चारित्रं ।
श्रावकधर्मे दृढः, भवितव्यं जिनपूजनोद्युक्तः ।। 462 ।। पूर्व. वर्णित कषाय जय, इन्द्रिय जय, आदि गुणों से युक्त होकर भी चारित्र के परिपालन में असमर्थ हो तो जिन पूजन में उद्यत होकर तथा पर निन्दा से विरत होकर आगम वर्णित श्रावक धर्म में दृढ़ हो जाये।
वरपुप्फगंधअक्खय-पईवफलधूवनीरपत्तेहिं। नेविज्जविहाणेहि य, जिणपूया अट्टहा होई।। 463 ।।
वर पुष्पगंधाक्षतप्रक्षीयमालधूपनीरपात्रैः। नैवेद्यविधानैः, च जिनपूजा अष्टधा भवति।। 463 ।। श्रेष्ठ फूल-पत्र, चन्दन, अक्षत (चावल) दीपक, फल, धूप, जल तथा नैवेद्य के विधान से जिन पूजा आठ प्रकार की होती है।
उवसमइ दुरियवग्गं, हरइ दुहं जणइ सयलसोक्खाई। चिंताईयं पि फलं, साहइ पूया जिणिंदाणं।। 464।।
उपशमयति दुरितवर्ग, हरति दुःखं जनयति सकलसौख्यांनि। चिन्तातीतं अपि फलं, साधयति पूजा जिनेन्द्राणाम् ।। 464।। यह जिन पूजा पाप समूह का विनाश करती है, दुःख का हरण करती है
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