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उपदेश पुष्पमाला / 181
संते वि सिद्धिसोक्खे, पुव्वुत्ते दंसियम्मि वि उवाए । लद्धे वि माणुसत्ते, पत्ते वि जिगिंदवरधम्मे ।। 490 11 जं अज्ज वि जीवाणं, विसएसु दुहासवेसु पडिबंधो । नज्जइ गुरुआ वि. अलंघणिज्जो महामोहो ।। 491 ।।
सत्यपि सिद्धिसौख्ये, पूर्वोक्ते दर्शितेऽपि उपाये । लब्धेऽपि मानुषत्वे, प्राप्तेऽपि जिनेन्द्रवर धर्मे ।। 490 ।।
यद् अद्यापि जीवानां विषयेषु दुःखाश्रवेषु प्रतिबन्धः । तत् ज्ञायते गुरूणामपि, अलङ्घनीयः महामोहः ।। 491 ।। सिद्धि - सुख - प्रदायक होने पर भी तथा प्रदान आदि उसकी प्राप्ति हेतु पूर्व कथित उपायों के विद्यमान रहने पर भी अर्थात् मनुष्य जन्म, जिनेन्द्र के श्रेष्ट धर्म को प्राप्त कर लेने पर भी, वर्तमान में जीवों में दुःख के कारण भूत विषय-भोगों के प्रति मोहासक्ति दिखलाई देती है। ऐसा लगता है वर्तमान में सज्जन व्यक्तियों के लिये भी महामोह से छुटकारा पाना अत्यन्त दुरूह बन गया है।
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नाऊण सुयबलेणं, करयलमुत्ताहलं व भुवणयलं । केवि निवडंति तहवि हु, पिच्छसु कम्माणबलियत्तं ।। 492 ।। ज्ञात्वा श्रुतवलेन, करतलमुक्ताफलं इव भुवनतलं । केचित् निपतन्ति तथापि खलु, प्रेक्षस्व कर्मणां वलीयस्त्वं ।। 492 ।। श्रुतज्ञान के सामर्थ्य से इस भूमण्डल को हथेली में रखे हुए मोती के समान जानने वाले कुछ लौकिक सिद्धियों को प्राप्त मुनि भी चारित्रादि से भ्रष्ट होकर भव भ्रमण करते हैं। देखिये मोह-कर्म कितना सबल होता हैं।
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