Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 182
________________ 180 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री सुरगणसुहं समग्गं, सव्वद्धापिंडियं जइ हविज्जा। . नवि पावइ मुत्तिसुहं-ऽणंताहिं वि वग्गवग्गूहिं।। 487 ।। ___ सुरगणसुखं समग्रं, सर्वाध्वापिण्डितं यदि भवेत्। नापि प्राप्नोति मुक्तिसुखं, अनन्ताभिः अपि वर्गवर्गेः।। 487 || सभी देवों का जो सुख होता है वह भी समग्र सुखों को सर्व काल समूह से गुणा करने पर भी मुक्ति के सुख के समान नहीं हो सकता। देवों के सुखों के अनन्त वर्ग करने पर भी वे सब मिलकर भी मुक्ति के सुख की बराबरी नहीं कर सकते हैं। दुक्खं जराविओगो, दारिदं रोगसोगरागाइ। तं च न सिद्धाण तओ, तेच्चिय सुहिणो न रागंधा।। 488 ।। दुःखं जरावियोगौ, दारिद्रयं रोगशोकरागादयः । तत् च न सिद्धानां ततः, ते एव सुखिनः न रागान्धाः ।। 488 ।। जरावस्था, प्रिय का वियोग, रोग की उत्पत्ति, शोक, राग-द्वेष आदि जनित दुःख सिद्धों को नहीं होते हैं। अतः वे सुखी हैं। वे रागान्ध नहीं हैं। ऐसा सुख उन्हें भव विराग से ही प्राप्त होता है। निच्छिन्नसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं अणुहुँति सासयं सिद्धा।। 489 ।। निच्छिन्नसर्वदुःखाः, जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः । अव्यावाधं सुखं, अनुभवन्ति शाश्वतं सिद्धाः ।। 489 ।। जन्म-वृद्धावस्था, मरण और बन्धन से विमुक्त सभी दुःखों का उच्छेद करने वाले सिद्धात्मा ही अव्याबाध शाश्वत् सुख का अनुभव करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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