Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 180
________________ 178 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री पूर्ण होने पर शव की प्रतिस्थापना के समय उसके समीप मुनि चिन्ह रखने चाहिये। अर्थात् उस मुनि के शव का लोच करके उसके समीप मुख वस्त्रिका, रजोहरण, चोल पट्ट आदि उपकरण रखना चाहिये। यदि समाधि मरण ग्रहण करने वाला साधु समाधिमरण से विचलित हो तो उस स्थिति में समाधि-मरण के लिये तत्पर किसी अन्य साधु को स्थापित करना चाहिये यदि वह उपलब्ध न हो तो देशकाल, परिस्थिति के अनुरूप योग्य विधि करनी चाहिये। ताकि जिन शासन की निन्दा न हो। यह भक्त प्रत्याख्यान संलेखना का स्वरूप बताया गया है। शेष इंगिनीय मरण और पादोपगमन मरण ये दो प्रकार के समाधि मरण प्रथम संघयण के साधुओं को छोड़कर आर्यिकाओं, देशविरतों आदि के लिये वर्जित है। उन्हें भक्त प्रत्याख्यान रूप समाधि मरण ही करवाना चाहिये। समाधि मरण भूमि अथवा शिलातल पर उत्तरपट या संस्तारक बिछाकर ही करना चाहिये, जिससे साधक को असमाधि न हो। अपरक्कमो बलहीणो, निव्वाघाएण कुणइ गच्छम्मि। वाघाओ रोगविसा-इएहिं तह विज्जुमाईहिं।। 483 ।। अपराक्रमः बलहीनः, निर्व्याघातेन करोति गच्छे। व्याघातः रोगविषादिभिः तथा विद्युतादिभिः ।। 483 ।। दूसरे गण (गच्छ) में जाने में असमर्थ साधु रोग आदि उपद्रवों के अभाव में अपने गच्छ में भी निर्व्याघात रूप से समाधिमरण करता है किन्तु रोग, विष (सर्पदंश आदि) तथा विद्युत् अर्थात् बिजली गिरने आदि की स्थिति में व्याघात समाधिमरण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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