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172 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
मनुष्य जन्म, सम्यक्-श्रद्धा आदि की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ कही गयी है।
अइदुल्लहं पि लद्धं, कहमवि मणुयत्तणं पमायपरो। जो न कुणइ जिणधम्म, सो झूरइ मरणकालम्मि।। 468 || __ अतिदुर्लभं अपि लब्धं, कथमपि मनुजत्वेन प्रमादपरः ।
यः न करोति जिनधर्म, सः शोचति मरणकाले ।। 468 ।। जो मनुष्य प्रमाद वश अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यत्व को प्राप्त करने का पुरूषार्थ नहीं करता है और जिनधर्म में प्रवृत्ति नहीं करता है, ऐसा मनुष्य मृत्यु के समय विलाप (रूदन) करता है।
जह वारिमज्झछूढो व्व, गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ। वग्गुरपडिओ व्व मओ, संवट्टइओ जह व पक्खी।। 469 || यथा वारिमध्येक्षिप्तः इव गजवरः मत्स्यः च गलग्रहीतः ।
वल्गुपतितः इव मृगः, संवर्तितः यथा च पक्षी।। 469 ।। जिस प्रकार जल के मध्य प्रक्षिप्त हाथी, कांटे मे फँसी मछली, जाल में फंसा हुआ हिरण पछताता है और फंदे में आया हुआ पंछी छटपटता है उसी प्रकार प्रमादी मनुष्य भी अन्त में पश्चात्ताप ही करता है।
जललवचलम्मि विहवे, विज्जुलयाचंचलम्मि मणुयत्ते। धम्मम्मि जोऽवसीयइ, सो काउरिसोन सप्पुरिसो।। 470।। .. जललवचले-विभवे, विद्युत्लताइवचंचले मनुजत्वे।
धर्मेऽवसीदति यः, सः कापुरूषः न सत्पुरूषः।। 470।। कुश (घास) के अग्र भाग पर स्थित ओस (जल) की बूंद के समान चंचल और विनाशी ऐश्वर्य (धनादि) में और बिजलीवत् क्षणिक मानव जीवन में जो मनुष्य धर्म करने में प्रमाद करता है वह वास्तव में कुत्सित मानव ही है उसे सत्पुरुष नहीं कहा जा सकता है।
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