Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 175
________________ उपदेश पुष्पमाला / 173 वरविसयसुहं सोहग्ग- संपयं पवररूवजसकित्तिं । जइ महसि जीव ! निच्चं ता धम्मे आयरं कुणसु ।। 471 ।। वरं विषयसुखं- सौभाग्यसुख-संपदं प्रवररूपयशकीर्ति । यदि श्लाघसे जीव ! नित्यं तर्हि धर्मे आदरं कुरुष्व ।। 471 ।। यदि श्रेष्ठ विषय सुख, सौभाग्य, संपत्ति, श्रेष्ठ रूप, यश, कीर्ति चाहते हो तो हे जीव ! तू नित्य ही धर्म के प्रति आदर भाव रख । धम्मेण विणा परिचिं- तियाइं जइ हुंति कहवि एमेव । ता तिहुयणम्मि सयले, न हुज्ज इह दुक्खिओकोई ।। 47211 धर्मेण विना परिचिंतितानि भवन्ति कथमपि एवमेव । तर्हि त्रिभुवने सकले, न भवेत् इह दुःखितः कोऽपि ।। 472 || यदि धर्माचरण बिना ही इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति सुलभ होती तो इस सकल त्रिभुवन में कोई भी प्राणी लेश मात्र भी दुःखी नहीं होता, किन्तु इस संसार में सभी प्राणी अनेक दुःखों को भोगते हुए दिखाई देते हैं । अतः सर्वदा धर्म कार्य ही करना चाहिये । तुल्ले वि माणुसत्ते, के वि सुही दुक्खिया य जं अन्ने । तं निउणं परिचिंतसु, धम्माधम्मफलं चेव ।। 473 || तुल्येऽपि मानुषत्वे, केऽपि सुखी दुःखिता च यत् अन्ये । तत् निपुणं परिचिन्तय धर्माधर्मफलं चैव ।। 473 || सभी के मानव देह समान रूप से प्राप्त होने पर भी संसार में कोई मनुष्य सुखी और कोई मनुष्य दुःखी देखे जाते हैं । अतः सम्यक् प्रकार से धर्म और अधर्म के फल का अनुचिन्तन करना चाहिये । ता जइ मणोरहाण वि, अगोयरं उत्तमं फलं महसि । ता धमित्तोव्व दढं, धम्मे अंते आराहणं जम्हा ।। 474 | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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