Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya,
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
उपदेश पुष्पमाला/ 175
काले सुपात्रदानं, चरणे सुगुरूणां बोधिलामं च। अन्ते समाधिमरणं, अभव्य जीवाः प्राप्नुवन्ति ।। 477 ।। भव्य जीव उचित अवसर पर सुपात्रों को दान देकर तथा सद्गुरू के चरणों में सम्यक् बोधि को प्राप्त कर अन्त समय में समाधि मरण के द्वारा भव परम्परा को समाप्त कर लेता है, परन्तु अभव्य जीव इसे कभी भी प्राप्त नहीं कर पाता है, क्योंकि वह मिथ्यात्व के कारण अन्तिम समय में विराधक बन जाता है।
सपरक्कमेयरं पुण, मरणं दुविहं जिणेहिं निद्दिठें। एक्के क्कं पि य दुविहं, निव्वाघावं सवाघायं ।। 478 ।।
सपराक्रमेतरं पुनः, मरणं द्विविधं जिनैः निर्दिष्टम् । एकैकं अपि च द्विविधं, निर्व्याघातं सव्याघातं ।। 478 ।। जिनेश्वर परमात्माओं ने समाधि मरण दो प्रकार का बताया है, सपराक्रम एवं अपराक्रम मरण। इनमें से प्रत्येक निर्व्याघात एवं सव्याघात रूप से दो प्रकार का होता है।
सपरक्कमं तु तहियं, निव्वाघायं तहेव वाघायं । जीयकम्पम्मि भणियं, इमेहिं दारेहिं नायव्वं ।। 479 ।।
सगणनिरसणपग्गणे, सिति संलेहे अगीयसंविग्गे। एगोऽभोयणमन्ने, अणपुच्छे परिच्छया लोए।। 48011
ठाणवसहीपसत्थे, निज्जवगा दवदायणे चरिमे। हाणिपरिंततनिज्जर-संथारूव्वत्तणाईणि।। 481।।
सारेऊण य कवयं, निव्वाघाएण चिंधकरणं च। वाघाए जायणया, भत्तपरिणाएँ कायव्वा ।। 482||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188