Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 176
________________ 174 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री तत् यदि मनोरथानांअपि, अगोचरं उत्तमं फलं वांछसि । तत् धर्ममित्र इव, धर्मे एव आदरं कुरुष्व ।। 474 ।। यदि अगोचर (अदृश्य मोक्षरूपी) फल की इच्छा करते हो तो धनमित्र के समान जिन धर्म के प्रति आदर भाव रखकर, उसका सम्यरूप से आचरण करें । 14. परिज्ञाद्वारम् इय सव्वगुणविसुद्धं दीहं परिपालिऊण परियायं । तत्तो कुणति धीरा, अंते आराहणं जम्हा || 475 || इति सर्वगुणविशुद्धं दीर्घं परिपालय पर्यायं । ततः कुर्वन्ति धीराः, अन्ते आराधनां यस्मात् ।। 475 ।। इस प्रकार गुणों से परिशुद्ध चारित्र धर्म का चिरकाल तक परिपालन करके महासत्तवशाली पुरूष अंतिम समय में संलेखना पूर्वक देह का त्याग करें। सुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं च बहुपढियं । अंते विराहइत्ता, अनंतसंसारिणो भणिया ।। 476 || सुचिरं अपि तपः तप्तं चीर्ण श्रुतं च बहुपठितं । अन्ते विराधयित्वा अनन्तसंसारिणः भणिताः ।। 476 || जिन्होंने चिरकाल तक तप साधना की हो, चारित्र धर्म का पालन किया हो तथा अनेक आगमों का अध्ययन या पठन-पाठन किया हो, फिर भी अन्त समय में उन सभी का विराधक हो गया तो वह अनन्त संसारी ही कहा जायेगा, क्योंकि उसकी भव परम्परा समाप्त नहीं होगी ? काले सुपत्तदाणं, चरणे सुगुरूण बोहिलाभं च । अंते समाहिमरणं, अभव्वजीवा न पावंति ।। 477 ।। Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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