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उपदेश पुष्पमाला / 99
योग साधना में किसी क्रिया का एकान्तिक दृष्टि से विधान या निषेध नहीं किया है किन्तु व्यक्ति की परिस्थिति के आधार पर ही विधि - निषेध होता है। जैसे - वैद्य रोग के लक्षण देखकर ही उपचार करता है अर्थात् पथ्यअपथ्य का निर्देशन करता है।
अणुमित्तोवि न कस्सइ, बंधो परवत्थुपच्चयो भणिओ । तह वि य जयंति जइणो, परिणामविसोहिमिच्छंता ।। 241 । । अणुमात्रोऽपि न कस्यचित्, बन्धः परवस्तु प्रत्ययः भणितः । तथापि च यतन्ते यतिन: परिणाम- विशोधिमिच्छन्ताः ।। 241 ।। पर वस्तु को अंशमात्र भी बन्ध का और मोक्ष का कारण नहीं कहा गया है। बन्ध और मोक्ष का मूल हेतु परिणाम ( मनोभाव ) है फिर भी परिणाम की विशुद्धता की इच्छा वाले मुनि को प्राणातिपात के वर्जन हेतु सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
जो पुण हिंसाययणे - सु वट्टई तस्स नणु परिणामो । दुट्ठो न य तं लिंगं, होइ वियुद्धस्स जोगस्स ।। 242 ।। यः पुनः हिंसायतनेषु वर्तते तस्य ननु परिणामः ।
दुष्टं न च तत् लिङ्गं भवति विशुद्धस्य योगस्य ।। 242 ।। रागादि से दूषित मन वाला मुनि अज्ञान वश हिंसा आदि स्थानों में रत रहता है तो उसका परिणाम भी दुष्ट ही होगा और वह परिणाम, विशुद्ध योग का लक्षण नहीं होगा ।
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पडिसेहो य अणुन्न, एगंतेण न वन्निया समए ।
एसा जिणाण आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ।। 243 ।। प्रतिषेधः च अनुज्ञा, एकान्तेन न वर्णिता समये ( सिद्दान्ते ) । एषा जिनानां आज्ञा, कार्ये सत्येन भवितव्यं ।। 243 ।। सिद्धान्त, ग्रन्थों (आगमों) में ऐकान्तिक दृष्टिसे प्रतिषेध एवं अनुज्ञा वर्णित
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