Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 139
________________ उपदेश पुष्पमाला/ 137 तस्मात् उत्कर्षेण, क्षेत्रे तु सप्तयोजनशतानि। काले द्वादशवर्षाणि, गीतार्थगवेषणं कुर्यात् ।। 360 ।। इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा से अधिकतम सात सौ योजन तक, काल की अपेक्षा से अधिकतम बारह वर्षों तक आलोचना करने हेतु गीतार्थ गुरू की खोज करनी चाहिये। आलोयणपरिणओ, सम्म संपठिओ गुरुसगासे। जइ अंतरा वि कालं, करेइ आराहओ तह वि।। 361।। आलोचनापरिणतः, सम्यक् संप्रस्थितः गुरूसकाशे। यदि अन्तरा अपि कालं, करोति अनाराधकः तथा-पि।। 361।। आलोचना करने के लिये सम्यक् प्रकार से तत्पर शिष्य के समीप जाते हुए कदाचित् मार्ग में ही काल कवलित हो जाये तो भी वह आराधक ही माना जाता है। जाइकुलविणयउवसम-इंदियजयनाणदंसणसमग्गा। अणणुतावी अमाई, चरणजुयालोयगा भणिया।। 362 || . ___ जातिकुलविनयोपशमइन्द्रियजयज्ञानदर्शनसमग्राः। अननुत्तापी अमायी, चरणयुतालोचना भणिता।। 362 ।। जाति, कुल एवं विनय सम्पन्न, उपशम भाव को प्राप्त, इन्द्रिय-संयम करने वाले, सम्यक् ज्ञान एवं दर्शन चारित्र से युक्त, अविकल चित्त वाले और अमायावी आचार्य ही आलोचना देने के योग्य कहे गये हैं। . मूलुत्तरगुणविसयं, निसेवियं जमिह रागदोसेहिं। दप्पेण पमाएण व, विहिणाऽऽलोएज्ज तं सव्वं ।। 363 ।। मूलोत्तरगुणविषयं, निषेविसं यदिह रागद्वेषाभ्यां । दर्पण प्रमादेन वा, विधिनाऽऽलोचयेत् तत् सर्व ।। 363 ।। मूलगुण एवं उत्तर गुण के वे सभी विषय जिनका राग-द्वेष, दर्प (अभिमान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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