Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 162
________________ 160 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री न हु तम्मि देसकाले, सक्को बारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेउं, धंतंपि समत्थचित्तेण ।। 431 | | नैव तस्मिन् काले, शक्यः द्वादशविधो श्रुतस्कन्धः । सर्व अनुचिन्तयितुं, धन्तमपि समर्थचित्तेन ।। 431 । । सामान्यतः मरणकाल में बारह प्रकार के श्रुतस्कन्ध का अनुचिन्तन शक्य नहीं है, क्योंकि समर्थचित्त वालों के द्वारा ही वह द्वादशविध श्रुतस्कन्ध अनुचिन्तन शक्य है। अतः उस स्थिति में पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र ही स्मरणीय है I नामाइमंगलाणं, पढमं चिय मंगलं नमोक्कारो । अवणेइ वाहितक्कर - जलणाइभयाइं सव्वाइं ।। 432 ।। हरइ दुहं कुणइ सुहं जणइ जसं सोसए भवसमुहं । इहलोअपारलोइअ - सुहाण मूलं नमुक्कारो ।। 433 ।। नामादिमंगलानां प्रथमं चैव मंगलं नमस्कारः । अपनयति व्याधितस्करज्वलनभयानि सर्वाणि ।। 432 ।। हरति दुःखं करोति सुखं, जनयति यशः शोषयति भवसमुद्रं । इहलोकपारलौकिक सुखानां मूलम् नमोकारः ।। 433 ।। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव मंगलों में प्रधान मंगल नमस्कार मंत्र ही हैं, क्योंकि नमस्कार मंत्र से रोग, चोर, अग्निदाह आदि सभी भय दूर हो जाते हैं, यश की प्राप्ति होती है तथा इससे भव- समुद्र भी सुख जाता है। यह नवकार मंत्र तो ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों का मूल है। इहलोयम्मि तिदंडी, सादिव्वं माउलिंगवणमेव । परलोए चंडपिंगल - हुंडियजक्खो य दिट्ठता ।। 434 ।। इहलोके त्रिदण्डी, सान्निध्यं मातुलिङ्गवनमेव । परलोके चण्डउपिंगल हुण्डिकयक्षः च दृष्टान्तः ।। 434 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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