Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 161
________________ उपदेश पुष्पमाला / 159 जलणाइभए सेसं, मोत्तं एक्कं पि जह महारयणं । घेप्पइ संगामे वा, अमोहसत्थं जह तहेह ।। 428 ।। मोत्तंपि बारसंगं स एव मरणम्मि कीरए जम्हा । अरहंतनमोक्कारो, तम्हा सो बारसंगत्थो ।। 429 ।। ज्वलनादिभये शेषं मोक्तुं, एकमपि यथा महारत्नं । गृह्यते संग्रामे वा अमोधशस्त्रं यथा तथा इह ।। 428 ।। मुक्त्वापि द्वादशाङ्गं स एव मरणे क्रियते यस्मात् । अर्हन्तनमस्कारः, तस्मात् सः द्वादशाङ्गार्थः ।। 429 ।। जैसे अग्नि आदि के भय के उपस्थित होने पर व्यक्ति घर के वस्त्रादि शेष सामग्री को छोड़कर एकमात्र घर में रखे हुये बहुमूल्य रत्न को लेकर निकल जाता है। युद्ध के समय लकड़ी आदि रूप शस्त्रों को छोड़कर शक्तिशाली शस्त्र लेकर वह जाता है, उसी प्रकार मरण उपस्थित होने पर स्मरण की अशक्यता वश वह व्यक्ति पंचपरमेष्टि के नमस्कारमंत्र का ही स्मरण करता है। उसे नमस्कार मंत्र के स्मरण से ही बारह अंगों का स्वाध्याय होता है, क्योंकि नमस्कार मंत्र को चौदह पूर्वों और द्वादश अंगों का सार कहा गया है । सव्वं पि बारसंगं, परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं । तक्कारणमेत्ताओ, किह न तयत्थो नमुक्कारो ? ।। 430 ।। सर्वमपि द्वादशाङ्गं, परिणामविशुद्धिहेतुमात्रकं । तत्कारणमात्रकः, कथं न तदर्थं नमोकारः ? ।। 430 ।। इन सभी बारह अंगों के स्वाध्याय का मुख्य हेतु जो परिमाण विशुद्धि है, क्योंकि पंच परमेष्ठी मंत्र द्वारा भी परिणाम विशुद्धि होने के कारण ही स्वाध्याय में द्वादश अंगों का स्वाध्याय हो जाता है, यह उक्ति चरितार्थ हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188