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158 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
तं नत्थि जं न पासइ, सज्झायविऊ पयत्थपरमत्थं । गच्छइ य सुगइमूलं खणे खणे परमसंवेगं ।। 425 ।। तन्नास्ति यन्न पश्यति, स्वाध्यायवित् पदार्थपरमार्थ । गच्छति च सुगतिमूलं क्षणे-क्षणे परमसंवेगम् ।। 425 ।। ऐसा कोई पदार्थ (वस्तु) और परम अर्थ (तत्त्वज्ञान) नहीं है जिसे स्वाध्यायरत साधु न देख सके अर्थात् न जान सके। वह प्रति समय सुगति के मूल कारण परम संवेगत्त्व की ओर अग्रसर होता रहता है।
कम्मं संखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयम्मि वि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेण ।। 426 ।। कर्म असंखेयभवं, क्षपयति अनुसमयमेव आयुक्तः । अन्तरेऽपि योगे स्वाध्याये विशेषेण ।। 426 ||
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प्रत्यपेक्षणा, प्रमार्जना, भिक्षाचर्या, वैयावृत्य आदि के साथ-साथ संयम साधना में आदर के साथ प्रवृत्त होने वाला साधु प्रति समय अगणित भव स्थिति रूप कर्मों को क्षय कर देता है, परन्तु स्वाध्यायरत साधु तो विशेष रूप से कर्मो का क्षय करता है।
उक्कोसा सज्झाओ, चउदसपुवीण बारसंगाई । तत्तो परिहाणी, जाव तयत्थो नमोक्कारो ।। 427 ।।
उत्कृष्टः स्वाध्यायः, चतुर्दशपूर्विणां द्वादशाङ्गानि । तावत् परिहान्या, यावत् तदर्थः नमोकारः स्वाध्यायः ।। 427 ।। उत्कृष्ट स्वाध्याय चतुर्दशपूर्वियों के द्वारा द्वादश अंगों का, दशपूर्वियों के द्वारा एकादश अंगों का, उसी प्रकार से नवपूर्वियों का भी एकादश अंगों का स्वाध्याय होता है । जघन्यतया स्वाध्याय पंचपरमेष्ठी नमस्कार रूप नमस्कार मंत्र का होता है ।
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