Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 156
________________ 154 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री नहीं होता है, फिर भी उनके लिये इस संसार में कोई कार्य असाध्य हो सकता है परन्तु विनयशील पुरूषों के लिये कोई भी कार्य असाध्य नहीं है । विनयशीलता का गुण तो स्वर्ग और अपवर्ग को भी प्राप्त करवा सकता है । इह लोएच्चिय विणओ, कुणइ विणीयाण इच्छियं लच्छिं । जह सीहरहाईणं, सुगइनिमित्तं च परलोए ।। 413 ।। इह लोके एव विनयः करोति विनीतानां इप्सितां लक्ष्मीं । यथा सिंहरथादीनां, सुगतिनिमित्तं च परलोके ।। 413 ।। इस लोक में विनयशील पुरूष विनय के कारण इच्छित लक्ष्मी (ऐश्वर्य) को प्राप्त कर सकता है। जैसे- यह विनय गुण सिंहरथ आदि के लिए सुगति का हेतु सिद्ध हुआ । किं बहुणा ? विणओच्चिय, अमूलमंतं जए वसीकरणं । इहलोयपारलोइय - सुहाण वंछियफलाण ।। 414 || किं बहुना ? विनयः एव अमूलमन्त्रं जगति वशीकरणं । इहलोकपारलौकिक सुखानां वांछितफलानां ।। 414 ।। विनय के सम्बन्ध में क्या कहे, विनय तो अमूल्य मंत्र है जो जगत् के लिये परम वशीकरण रूप है । विनय से ही इहलौकिक और पारलौकिक सुख एवम् इच्छित फल की प्राप्ति संभव है। 1 ● 9. वैयावृत्यद्वारम् विणयविसेसो य तहा, आयरियगिलाणसेहमाईणं । दसविहवेयावच्च, करिज्ज समए जओ भणियं ।। 415 || विनयविशेषः च तथा, आचार्य ग्लानशैक्षकादीनाम् । दशविध वैयावृत्यं कुर्याः समये यतः भणितं ।। 415 ।। विनय के साथ-साथ शिष्य को आचार्य, ग्लान, शैक्ष आदि की दस प्रकार की वैयावृत्य भी करनी चाहिये ऐसा सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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