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144 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
नहीं कह सकते। नारकीय जीवों के दुःख तो केवली गम्य ही है।
सीउण्हखुप्पिवासा-दहणंकणवाहदोहदुक्खेहिं। दूमिज्जति तिरिक्खा, जह तं लोए वि पच्चक्खं ।। 381 ।। ___ शीतोष्ण-क्षुत्पिपासा-दहनकणवाहदोहदुःखैः।
दूयन्ते तिर्यचो, यथा तत् लोकेऽपि प्रत्यक्षम् ।। 381 ।। तिर्यंच प्राणी शीत (ठंड) उष्ण (गर्मी) क्षुधा (भूख) प्यास अग्निदाह, भारवाहन, दुग्ध दोहन आदि से प्राप्त होने वाले दुःखों से सदैव दुःखी होते हैं, जो प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है यह लोक प्रसिद्ध भी है।
लच्छी पिम्मं विसया, देहो मणुयत्तणे वि लोयस्स। एयाई वल्लहाई, ताणं पुण एस परिणामो।। 382|| ___ लक्ष्मीः प्रेम विषयाः, देहः मनुजत्वेऽपि लोके । एतानि वल्लभानि, तेषां पुनरेव एषः परिणामः ।। 382|| धन, स्वजनों का प्रेम, शब्द आदि ऐन्द्रिय विषय और मानव शरीर ये सभी सुख दायक प्रतीत होते हैं, लेकिन इनका परिणाम सुखद नहीं होता हैं।
न भवइ पत्थंताण वि, जायइ कइया वि कहवि एमेव। विहडइ पिच्छंताण वि, खणेण लच्छी कुमहिलब्द।। 383 ।। __ न भवति प्रार्थयमाणानामपि, जायते कदाचिदपि कथमपि एवमेव। विघटते पश्यताम् अपि, क्षणेन लक्ष्मी कुमहिला इव।। 383 ।। क्योंकि दुष्चरित्र महिला के समान यह लक्ष्मी मनुष्यों द्वारा प्रार्थना करने पर भी सदैव उनकी होकर नहीं रह रहती है। कदाचित् प्रार्थना करने पर आ भी जाये तो देखते ही देखते दुष्चरित्र नारी के समान उसके पास से अल्प समय में ही चली जाती है। यही कारण है कि इस लक्ष्मी को चंचला कहा गया है।
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