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उपदेश पुष्पमाला / 145
जह सलिला वज्रंति, कूलं पाडेइ कलुसए अप्पं । इह विहवे व ंते, पायं पुरिसो वि दट्ठवो ।। 384 ।। यथा सलिला वर्धन्ती, कूं-लंपातयन्ती कलुषयति आत्मानं । इह विभवे वर्धमाने प्रायः पुरुषः अपि दृष्टव्यः ।। 384 ।। जिस प्रकार नदी वर्षा ऋतु में प्रचुर जल प्रवाह से बहती हुयी अपने ही किनारों को तोड़ती है तथा बाढ़ में आये हुये अपवित्र पदार्थों को ग्रहण कर स्वतः कलुषित हो जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी ऐश्वर्य के बढने पर नदी के समान ही स्वजनादि का ही अहित करता है तथा स्वयं को भी कलुषित कर लेता है ।
होऊण वि कह वि निरं-तराई दूरतंराई जायंति । उम्मोइयरसणंऽतो- वमाइं पेम्माइं लोयस्स ।। 385 ।। भूत्वा अपि कथंमपि निरन्तराणि दुरंतराणि जायन्ते । उन्मोचितासनान्तोपमानि प्रेमाणि लोकस्य ।। 385 ।।
जिस प्रकार कमर में बांधे हुए कटि सूत्र के दोनों छोर (किनारे) परस्पर मिल जाते हैं और कटि से अलग होने पर दोनों छोर अलग हो जाते हैं उसी प्रकार संसार में स्वजनों का अत्यन्त स्नेह भी स्वार्थवश बना रहता है, किन्तु स्वार्थ के अभाव में किन्हीं कारणों से कम होता हुआ अन्त में समाप्त हो जाता है।
माइपिइबंधुभज्जा - सुरसु पेम्मं जणम्मि सविसेसं । चुलणीकहाए तं पुण, कणगरहविचिट्ठिएणं च ।। 386 ।। तह भरहनिबइभज्जा - असोगचंदाइचरियसवणेणं । अइविरसं चिय नज्जइ, विचिट्ठियं मूढहिययाणं ।। 387 ||
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