Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 149
________________ उपदेश पुष्पमाला/ 147 वीर जिणन्द द्वारा निर्दिष्ट बन्धु युगल के दृष्टान्त से जाने। आहारगंधमल्ला-इएहिं सुअलंकिओ सुपुट्ठो वि। देहो न सुई न थिरो, विहडइ सहसा कुमित्तोव्वं ।। 39011 आहारगन्धमालादिभिः, सुअलकृतः सुपुष्टोऽपि। देहः न शुचिः न स्थिरः विघटते सहसा कुमित्रमिव ।। 390।। सुस्वादु भोजन, सुगन्धित, पुष्प, आहार आदि से अलंकृत परिपुष्ट शरीर न तो पवित्र होता है और न उसकी यह सुन्दरता या पवित्रता स्थायी ही रहती है, अपितु कुमित्र के समान शीघ्र क्षीण होने लगती है। तम्हा दारिद्दजरा-परपरिभवरोगसोगतवियाणं। मणुयाण वि नत्थि सुहं, दविणपिवासाइनडियाणं ।। 391 ।। तस्मात् दरिद्र्य जरा-परपरिभवरोगशोकतप्तानां। मनुष्याणामपि नास्ति सुखं, द्रविणपिपासादिनटितानां ।। 391।। इसलिये दरिद्रय (गरीबी), वृद्धत्व और रोग-शोक से संतप्त मानवों को कहीं भी सुख नहीं है। वे व्यर्थ ही तृष्णा के अधीन होकर धन की प्राप्ति हेतु अनेक प्रकार के अभिनय करते रहते हैं। सच्चं सुराण विहवो, अणुत्तरो रयणरइयभवणेसु। दिव्वाहरणविलेवण-वरकमिणिनाडयरयाणं।। 392 ।। सत्यं सुराणाम् विभवः अनुत्तरः रत्नरचितभवनेषु । दिव्याभरणाविलेपनवरकामिनीनाटकरतानाम् ।। 392।। यह सत्य है कि देवताओं को रत्न जडित भवनों में रहते हुए दिव्य वस्त्रालंकार, विलेपन, अप्पसराएं एवं आमोद-प्रमोद के विपुल साधन रूप नाटकादि उपलब्ध है और उनमें रहते हुये वे सुख का अनुभव करते हैं। किंतु मयमाणमच्छर-विसायईसानलेण संतत्ता। तेऽवि वइऊण तत्तो, भमंति केई भवमणंतं ।। 393 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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