Book Title: Updesh Pushpamala
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 137
________________ उपदेश पुष्पमाला/ 135 न स्मरति यः दोषान, सद्भावनया न च मायया। प्रत्यक्षी साधयति ते तु, मायाविनः न तु साधयन्ति।। 355 ।। केवली सर्व दोषों को जानते हैं, परन्तु यदि आलोचना करने वाला शिष्य माया के द्वारा अपने दोषों को छिपा लेता है तो ऐसे शिष्य को केवली प्रायश्चित्त प्रदान नहीं करते हैं परन्तु दूसरे किसी के समक्ष आलोचना कर लो ऐसा कहते हैं, तथा जो शिष्य अपने दोषों को माया से नहीं छिपाता है अपितु स्वभावतः दोषों का स्मरण नहीं कर पाता है, तो उन दोषों का स्मरण करवा कर केवली प्रायश्चित्त दे देते हैं। आयारपकप्पाई, सेसं सव्वं सुयं विणिद्दिटुं। देसंतरट्ठियाणं, गूढपयालोयणा आणा।। 356 ।। ____ आचारप्रकल्प, शेषं सर्व श्रुतविनिर्दिष्टं । देशान्तरस्थितानां, गूढपदालोचना आज्ञा ।। 356 ।। आचार प्रकल्प, कल्प व्यवहार, निशीथ स्कन्ध आदि प्रायश्चित्त सम्बन्धी सभी ग्रन्थ श्रुत व्यवहार के अन्तर्गत आते हैं। इस आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह श्रुत व्यवहार है। दूर देश में रहने वाले शिष्य मूढ़ भाषा में अपने अपराधों को लिखकर गुरू के पास में भेज देते हैं और गुरू भी प्रायश्चित्त लिखकर शिष्य के पास भेज देते हैं इसे आज्ञा व्यवहार कहते . हैं। गीयत्थेणं दिन्नं, सुद्धिं अवधारिऊण तह चेव। दितस्स धारणा सा, उद्धियपयधरणरूवा वा।। 357 ।। - गीतार्थेन दतं, शुद्धिं अवधारयित्वा तथा चैव। ददतस्य धारणा सा, उद्धितपदधरणरूपा वा।। 357 ।। गीतार्थ एवं संविग्न मुनि के द्वारा शिष्य के किसी अपराध के लिये उसकी योग्यता और क्षमता के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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