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138 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
एवं प्रमाद से सेवन किया हो फिर चाहे वे सूक्ष्म हो या स्थूल हो विधि पूर्वक आलोचना करने के योग्य है।
चाउम्मासियवरिसे, दायव्वाऽऽलोयणा चउछकन्ना।
संवेयभाविएणं, सव्वं विहिणा कहेयव्वं ।। 364।। चातुर्मासिक-वार्षिके, दातव्या आलोचना चतुर्षट्कर्णा ।
संवेग भावितेन, सर्वं विधिना कथयितव्यम् ।। 364।। आराधक शिष्य को तीनों चातुर्मासों की पूर्णिमाओं एवं पर्युषण पर्व (संवत्सरी) पर अवश्य आलोचना करनी चाहिये। वह आलोचना चतुर्कर्ण और षट्कर्ण ऐसी दो प्रकार से होती है। जब शिष्य साक्षात् गुरू के समीप उपस्थित होकर आलोचना करता है वह चतुर्कर्ण आलोचना होती है, क्योंकि इसमें दो कान शिष्य और दो कान गुरू के। यदि अन्य व्यक्तियों के माध्यम से अपने अपराधों की सूचना गुरू को प्रेषित की जाती है और इसके द्वारा निर्देशन आलोचना स्वीकार की जाती है तो वह षट्कर्ण आलोचना होती है। वैराग्य युक्त साधक को अपने सूक्ष्म या स्थूल अपराधों की शास्त्रोक्त विधि से अवश्य आलोचना करनी चाहिये।
जह बालो जंपेतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ।। 365 ।। यथा बालः जल्पन्, कार्यमकार्य च ऋजुकं भणति।
तत् तथा आलोचयेत् मायामदविप्रमुक्तः तु ।। 365 ।। जिस प्रकार बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलता से कहते हैं, उसी प्रकार आराधक को भी माया एवं मद से रहित होकर अपने सम्पूर्ण दोषों की आलोचना करनी चाहिये।
छत्तीसगुणसमन्नागएण तेण वि अवस्स कायव्वा। परसक्खिया विसोही, सुठुविववहारकुलेणं ।। 366 ।।
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