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124 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
__ सत्तू विसं पिसाओ, वेयालो हुयवहो य पज्जलिओ। तं न कुणइ जं कुविया, कुणंति रागाइणो देहे ।। 321 || __शत्रुः विषं पिशाचः, बेतालः हुतवहश्चप्रज्वलितः । तद् न करोति यत् कुपिता, कुर्वन्ति रागादयः देहे ।। 321।। शत्रु, विष, पिशाच, वेताल और प्रज्वलित अग्नि – ये सभी शरीर को इतना दुःख नहीं देते हैं जितना दुःख मानव को राग-द्वेष जनित परिणाम (भाव) पहुँचाते रहते हैं।
जो रागाईण वसे, वसम्मि सो सयलदुक्खाणं। जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाई ।। 322||
यः रागादीनां वशे, वशगः सः सकलदुःखानाम् । यस्य वशे रागादि, तस्य वशे सकलसुखानि।। 322 ।। जो व्यक्ति इन रागद्वेषादि के वश में होते हैं वे सम्पूर्ण दुःखों के वशीभूत हो जाते हैं। परन्तु जिन्होंने रागादि को वश में कर लिया है तो उन्होंने सम्पूर्ण सुखों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है।
पुव्वुत्तगुणा सव्वे, दंसणचारित्तसुद्धिमाईया। होति गुरुसेवणुच्चिय, गुरुकुलवासं अओवुच्छं।। 323 ।। - पूर्वोक्तगुणा सर्वे, दर्शन चारित्रशुद्धिआदयः । भवन्ति गुरूसेवनात् चैव, गुरूकुलवासं अतः उक्तं।। 323|| इन उपर्युक्त सभी गुणों की प्राप्ति एवं सम्यक् दर्शन और चारित्र की शुद्धि आदि गुरु की सेवा सुश्रुषा से ही संभव है। अतः अग्रिम गाथाओं में गुरुकुलवास के सम्बन्ध में कहूँगा।
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