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130 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
आकारिंगित - कुशलं, यदि श्वेतं वायसं वत् पूज्याः । तथापि च सिं न विकूटयेत्, विरहे च कारणं पृच्छेत् ।। 340 ।। गुरु के इंगित एवं संकेत को जानने में कुशल शिष्य को यदि गुरू यह कहे कि सफेद कौंए को देखो तो ऐसा कहने पर भी तत्काल गुरू के वचनों का प्रतिकार न करे, समय को जानकर एकान्त में इस विषय में गुरू से समाधान प्राप्त करें ।
निवपुच्छिएण गुरुणा, भणिओ गंगा कओमूही वह इ ? | संपाइयवं सीसो, जह तह सव्वत्थ कायव्वं ।। 341 । । नृपपृष्टेण गुरूणा, भणितः गङ्गा किं मुखी वहति ? | सम्पादयन्निव शिष्यः यथा तथा सर्वत्र कर्तव्यम् ।। 341 1 राजा के द्वारा राज कर्मचारियों से एवं गुरू के द्वारा शिष्य से यह पूछा गया कि गंगा नदी किस दिशा में बहती है ? तो सम्यक् विनय पूर्वक शिष्य ने कहा पूर्व दिशा में बहती है। इसी प्रकार सभी प्रयोजनों में शिष्य को सम्यक् विनयपूर्वक कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये ।
नियगुणगारवमत्तो, थद्धो विणयं न कुव्वइ गुरूणं । तुच्छो अवण्णवाई. गुरुपडिणीओ न सो सीसो ।। 342 ।। निजगुणगौरवमत्तः, स्तब्धः विनयं न करोति गुरूणाम् । तुच्छ: अवर्णवादी, गुरूप्रत्यनीकः न सः शिष्यः ।। 342 ।। अपने गुण के गर्व से मद-मत्त बना हुआ अविनीत शिष्य गुरू के प्रति विनय नहीं करता है तो ऐसा शिष्य तुच्छ है, अवर्णवादि है, गुरू द्रोही है । ऐसे शिष्य सुशिष्य नहीं कहलाते हैं ।
नेच्छई य सारणाई, सारिज्जतो अ कुप्पइ स पावो । उवएस पि न अरिहइ, दुरे सीसत्तणं तस्स ।। 343 ।।
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