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उपदेश पुष्पमाला / 129
अनभियोगेन तस्मात्, अभियोगेन च विनीतः इतरे च । जात्येतर - तुरङ्गाः इव वारयितव्याः अकार्येषु ।। 337 ।। इसलिये गुरू द्वारा विनीत शिष्य को कोमल वचनों के द्वारा एवं अविनीत शिष्य को कठोर वचनों से निषिद्ध कार्यों को करने से रोकना चाहिये। उसी प्रकार जैसे सीधे घोडे को धीरे-धीरे लगाम खींच कर सुमार्ग में लाया जाता एवं उदण्ड घोड़े को कोड़े से मार कर सन्मार्ग पर लाया जाता है । गच्छं तु उवेहिंतो, कुव्वइ दीहं भवं विहीए उ । पालंतो पुण सिज्झइ, तइयभवे भगवई सिद्धं ।। 338 ।। गच्छं तु उपेक्षमाणः, करोति दीर्घ भवं विधिना तु । पालयन् पुनः सिद्धयति, तृतीय भवे भगवति - सिद्धं ।। 338 ।। सारणा-वारणा आदि न करने वाला और गच्छ की उपेक्षा करने वाला गुरू दीर्घ काल तक भव-भ्रमण करता है जो सारणा वारणा आदि का पालन करता है। वह तीसरे भव में सिद्धि को प्राप्त करता है, ऐसा भगवती सूत्र में कहा गया है।
गुरुचित्तविऊ दक्खा, उवसंता अमुइणो कुलवहुव्व । विणयरया य कुलीणा, होंति सुसीसा गुरुजणस्स ।। 339 ।। गुरुचित्तविदः दक्षाः, उपशांताः अमोचकाः अक्रुष्टाः कुल वधू इव । विनयरताश्च कुलीनाः भवन्ति सुशिष्याः गुरुजनस्य ।। 339 ।। गुरू के चित्त को जानने में दक्ष एवं उपशान्त शिष्य कुल वधु के समान अपने गुरू का कभी परित्याग नहीं करता है। जो गुरूजनों के प्रति विनयरत है एवं कुलीन है ऐसे ही शिष्य सुशिष्य होते हैं।
आगरिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा ।
तहवि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारण पुच्छे ।1 340 ।।
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