________________
उपदेश पुष्पमाला/ 123
स्वरूप द्वेष उत्पन्न होता है। अतः यदि मोक्ष रूपी परम आनन्द को प्राप्त करना हो तो राग और द्वेष को जीत लो।
ससुरासूरं पि भुवणं, निज्जिणिऊणं वसीकयं जेहिं। ते रागदोसमल्ले, जयंति जे ते जये सुहडा ।। 318 ।।
ससुरासुरं अपि भुवनं, निर्जित्य वशीकृतं यैः। ते रागद्वोषमल्लौ, जयन्ति ये ते जगति सुभटाः ।। 318 || भवनपति आदि चारों प्रकार के देव एवं असुर, नारक, तिर्यक् और मनुष्य इनसे युक्त यह सम्पूर्ण राग और द्वेष के वशीभूत है। जिन-वचन में रत जो महासत्वशाली प्राणी राग-द्वेष रूपी मल्लों को जीत लेते हैं, उन्हें ही सुभट (अच्छायोद्धा) कहा जाता है।
रागो य तत्थ तिविहो, दिद्विसिणेहाणुरायविसएहिं। कुप्पवयणेसु पढमो, बीओ सुयबंधुमाईसु ।। 319 ।। विसयपडिबंधरूवो, तइओ दोसेण सह उदाहरणा। लच्छीहरसुंदर-अरिहदत्तनदाइणो कमसो।। 320 ।।
रागः च तत्र त्रिविधः, दृष्टिस्नेहानुरागविषयैः । कुवचनेषु प्रथमः द्वितीयः सुतबन्धुआदिषु ।। 319 ।। विषयप्रतिबन्धरूपः तृतीय दोषेण सह उदाहरणाः ।
लक्ष्मी घर सुन्दर अर्हदत्तनन्दादयः क्रमशः।। 320 ।। राग तीन प्रकार का कहा गया है - 1. दृष्टि राग 2. स्नेहानुराग और 3. विषयानुराग। इसमें प्रथम कुप्रवचनों (मिथ्या मान्यताओं) से द्वितीय पुत्र बन्धु बान्धवादि से तथा तृतीय ऐन्द्रिय विषयों में अनुरक्ति से सम्बन्धित है। तीनों प्रकार का राग तथा द्वेष इन चारों के उदाहरण क्रमशः लक्ष्मीधर, सुन्दर, अर्हद् दत्त और नन्द कहे गये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org