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उपदेश पुष्पमाला / 121
यदि उपशान्तकषायः, लभते अनन्तं पुनः अपि प्रतिपातम् । न खलु भवद्भिः विश्वसितव्यं, स्तोकेऽपि कषाय शेषे ।। 311 ।। यदि उपशमित कषाय वाला साधक भी अनन्त भवों में भ्रमण करते हुए अध: पतन को प्राप्त हो जाता है, तो फिर अनुपशान्त कषाय वाले व्यक्ति के लिये क्या कहें, अर्थात् उसके पतन की तो बहुत सम्भावनाएँ हैं ।
पढमाणुदये जीवो, न लहइ भवसिद्धिओ वि सम्मत्तं ।
बीयाण देसविरइं, तइयाणुदयम्मि चारितं ।। 312 ।। प्रथमानामुदये जीवः, न लभते भवसिद्धिकः अपि सम्यक्त्वं । द्वितीयानां देशविरतिं तृतीयानामुदये चारित्रं ।। 312 ।। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय होने पर उसी भव में सिद्ध होने वाला साधु या व्यक्ति भी उस स्थिति में सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर पाता है ।
सव्वे वि य अइयारा, संजलणाणं तु उदयओ हुंति । मूलच्छेज्जं पुण होइ, बारसण्हं कसायाणं ।। 313 ।। सर्वेऽपि च आचाराः, संज्वलानानां तु उदये भवन्ति । मूलोच्छेद्यं पुनः भवति, द्वादशानां कषायानाम् ।। 313 ।। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय होने पर देश - विरति अर्थात् गृहस्थधर्म का परिपालन भी सम्भव नहीं होता है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदित होने पर सम्पूर्ण चारित्र या मुनि-धर्म प्राप्ति सम्भव नहीं होती है। संज्वलन कषाय के उदय काल में व्यक्ति यथाख्यात - चारित्र को प्राप्त नहीं कर पाता है। मूल एवं उत्तर गुणों के परिपालन में जो अतिचार या दोष होते हैं वे संज्वलन आदि कषायों के कारण ही होते हैं। संज्वलन कषायों के अतिरिक्त शेष द्वादश कषायों अर्थात् अनन्तानुबन्धी प्रत्याख्यानीय और अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्कों के उदय होने पर उनका छेदन आठवें मूल प्रायश्चित्त द्वारा होता है ।
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