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उपदेश पुष्पमाला / 119
इय लोभस्सुवओगो, सत्तेवि हु दीहकालिओ भणिओ । पच्छा य जं खविज्जइ एसोच्चिय तेण गरुययरो ।। 305 ।। इति लोभस्योपयोगः सूत्रेऽपि हु यस्मात् दीर्घकालिकः भणितः । पश्चात् च यत् क्षप्यते, एष एव तेन गरूकतरः ।। 305 ।। सूत्रों में लोभ कषाय को ही दीर्घ कालिक कहा गया है, क्योंकि क्षपकश्रेणि से आरोहण करते हुए अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव में लोभ के अतिरिक्त शेष सभी कषाय क्षय हो जाते हैं, परन्तु इस सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान के अन्त में भी प्रबल पुरुषार्थ से ही लोभ कषाय का क्षय होता है। अतः कषायों में लोभ कषाय को ही अत्यन्त गुरुत्तर कहा गया है । कोहाइणो य सव्वे, लोभाओच्चिय जओ पयट्टति । एसोच्चिय तो पढमं निग्गहियव्वो पयत्तेणं ।। 306 ।। क्रोधादयश्च सर्वे, लोभात् चैव यतः पवर्तन्ते ।
एष चैव तत प्रथमं निग्रहीतव्यः प्रयत्नेन ।। 306 ।। क्रोध आदि सभी लोभ के कारण ही होते हैं। इसीलिये लोभ को गुरुत्तर कषाय कहा गया है। लोभकषाय का ही निग्रह करना चाहिये ।
न या वहिवेणुवसमिओ, लोभो सुरमणुयचक्कवट्टीहिं । संतोसोच्चिय तम्हा, लोभविसुच्छायणे मंतो ।। 307 11 न च विभवेनोपशमित, लोभः सुरमनुजचक्रवर्तिभिः । संतोष चैव तस्मात्, लोभविषोत्सादने मन्त्रः ।। 307 || देवता, चक्रवर्ती, राजा, मनुष्य आदि सभी अपनी-अपनी सम्पदा से भी संतुष्ट होते हुए नहीं प्रतीत होते हैं अर्थात् लोभ का उपशमन नहीं कर पाते हैं अतः एव लोभ रूपी विष को उच्छेद करने के लिये एक मात्र संतोष रूपी मंत्र की आराधना करनी चाहिए ।
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