________________
98 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
ये यावन्मात्रा च हेतु ( हेतवः), भवस्य ते चैव तावता मोक्षे । गणनादिका लोकाः द्वयोः अपि भवेत् (पूर्णौ ) तुल्यौ ।। 238 ।। राग-द्वेष की उपस्थिति में जो क्रियायें संसार का हेतु बनती हैं वे क्रियायें राग आदि से रहित व्यक्तियों के लिये मुक्ति का हेतु बन जाती हैं। आत्म प्रदेश और लोकाकाश के प्रदेश दोनों ही पूर्ण और समतुल्य होते हैं, किन्तु आत्म प्रदेशों का आकाश प्रदेशों के साथ भोग दशा में जो योग होता है वह संसार का कारण होता है और आत्म प्रदेशों का केवलि समुद्घात की अपेक्षा से जो संयोग मिलता है वह निर्जरा का हेतु बनता है। दूसरे शब्दों में भोग की अपेक्षा से भी जीव लोकाकाश के आत्म प्रदेशों को पूर्ण करता है और निर्जरा के लिये जीव आकाश प्रदेश को पूर्ण करता है। दोनों क्रियायें एक रूप होकर भी दोनों के परिणाम भिन्न-भिन्न है । उसी प्रकार से सराग व्यक्ति की एवं वीतराग व्यक्ति की क्रियायें समान होने पर भी एक संसार का हेतु बनती है और एक मोक्ष का हेतु बनती है। इरियावहियाईया, जे चेव हवंति कम्मबंधाय ।
अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ।। 239 ।। ईर्यापथिकादिका, ये चैव भवन्ति कर्मबन्धाय ।
अयतानां ते चैव तु, यतानां निर्वाणगमनाय ।। 239 ।। राग द्वेष युक्त अज्ञानी और हिंसादि से अविरत व्यक्ति की ईयापथिक क्रियाऐं कर्म बन्धन का कारण होती है, संसार परिभ्रमण का हेतु होती है । परन्तु संयमी के लिये वे ही क्रियाएँ निर्वाण - गमन का निमित्त बन जाती है जैसे एक-दो आदि की गणना के अतिक्रान्त होने पर वही पूर्ण हो जाती है। एगंतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही वावि ।
दलियं पप्प निसेहो, होज्ज विही वावि जह रोगे ।। 240 || एकान्तेन निषेधः, योगेषु न देशतः विधिर्वापि । दलिकं प्राप्य निषेधः भवेत् विधिर्वापि यथारोगे ।। 240 ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org