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उपदेश पुष्पमाला / 107
रूपं गृह्णाति चक्षुः, योजनलक्षात् सतिरेकात् । गन्धं रसं च स्पर्श, योजननवकात् शेषानि ।। 267 ।।
चक्षुः इन्द्रिय अधिकतम लक्ष योजन तक का रूप ग्रहण कर सकती है। शेष घ्राण, रसन एवं स्पर्शनेन्द्रिय क्रमशः उत्कृष्टतया नौ योजन तक से आये हुये गन्ध को, रस को, शीतादि स्पर्श को ग्रहण करती हैं ।
अंगुलअसंखभागा, मुणंति विसयं जहन्नओ मोत्तं । चक्युं तं पुण जाणइ, अंगुलसंखेज्जभागाओ ।। 268 ।। अंगुल असंख्य भागा, गृण्हन्ति विषयं जघन्यतः मुक्त्वा । चक्षुः तद् पुनः जानाति अंगुलसंख्येय भागयोः ।। 268 ।। नेत्र को छोड़कर शेष सर्व इन्द्रियाँ जघन्य से अंगुल के असंख्यात भाग में स्थित अपने-अपने स्व विषय को ग्रहण करती है, किन्तु चक्षु तो अंगुल के संख्यात भाग में स्थित विषय को ही ग्रहण करता है ( वह अति सन्निकट का ग्रहण नहीं कर सकता है) ।
इय नायतस्सरूवो, इंदियतुरए सएसु विसएसु । अणवरयं धावमाणे, निगिण्हइ नाणरज्जूहिं । । 269 ।।
इति ज्ञात तत्स्वरूपः, इन्द्रियतुरगान् स्वेषु विषयेषु । अनवरतं धावमानान् निगृण्हाति ज्ञान - रज्जुभिः । । 269 ।। इस प्रकार या उक्तरीति से इन्द्रियों का स्वरूप समझकर पुरुष, अनवरत अपने-अपने विषयों की ओर दौडने वाले इन्द्रिय रूपी घोड़ों को ज्ञान रूपी रस्सी से सुखपूर्वक निग्रह करें।
तह सूरो तह माणी, तह विक्खाओ जयम्मि तह कुसलो । अजियंदियत्तणेणं, लंकाहिवह गओ णिहणं । । 270 ।। तथा शूरो तथा मानी, तथा विख्यातः जगति तथा कुशलः । अजितेन्द्रियत्वेन लंकाधिपति गतः निधनं ।। 270 ।।
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