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116 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
तो ऐसे मंद पुण्य व्यक्ति का यह ज्ञान आदि का अहंकार करने का प्रयास पानी से अग्नि को प्रज्वलित करने जैसा ही होगा।
धम्मस्स दया मूलं, खंती वयाण सयलांण । विणओ गुणाण मूलं दप्पो मूलं विणासस्स ।। 296 ।। धर्मस्य दया मूलं मूलं क्षान्तिः व्रतानां सकलानाम् । विनयः गुणानां मूलं, दर्पः मूलं विनाशस्य ।। 296 ।। जिस प्रकार दया धर्म का मूल है, क्षमा सम्पूर्ण व्रतों का मूल है, विनय सद्गुणों का मूल है उसी प्रकार अहंकार (दर्प) भी विनाश का मूल है। बहुदोससंकुले गुण - लवम्मि को होज्ज गव्विओ इहई ? | सोऊण विगयदोस, गुणनिवहं पुव्वपुरिसाणं ।। 297 ।।
वहुदोषसंकुले गुणलोक कः भवेत् गर्वितः अस्मिन् । श्रुत्वा विगतदोषं, गुण-निवहं पूर्व पुरुषाणाम् ।। 297 ।। तीर्थंकर, गणघर आदि महापुरूषों के गुणों से परिपूर्ण निर्दोष चारित्र का स्मरण करके कौन ऐसा विवेकी व्यक्ति होगा जो अंश मात्र गुणों का धारक होकर भी गर्व (अहंकार) करेगा ।
साहेइ दोसाभावो, गुणोव्व जइ होइ मच्छरुत्तिण्णो । विहवीसु तह गुणीसु य, दूमेइ ठिओ अहंकारो ।। 298 ।। शोभते दोषाभावः, गुणवत् यदि भवति मत्सरोत्तीर्णः । विभविषु तथा गुणीषु च दुनोति स्थितः अहंकारः ।। 298 ।। अहंकार से रहित निर्दोष चारित्र वाला व्यक्ति गुणवानों के समान ही शोभित हो जाता है। यदि ऐश्वर्य शालियों तथा गुणीजनों में भी अहंकार आ जाता है तो वह उन शिष्टजनों को भी अत्यधिक मानसिक पीड़ा पहुंचाता है । अतः किसी भी रूप में अहंकार नहीं करना चाहिये ।
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