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30 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
नाऊण दुहमणतं, जिणोवएसाउ जीववहयाणं। होज्ज अहिंसानिरओ, जइ निव्वेओ भवदुहेसु ।। 14।।
ज्ञात्वा दुःखमनन्तं, जिनोपदेशात् जीववधकानाम् । भवेः अहिंसा निरतः, यदि निर्वेदः भवदुःखेषु ।। 14।। जीवों के वध के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले अनन्त दुःखों को जानकर तू अहिंसा में निरत हो जा। यदि संसार के दुःखों से मुक्ति (निर्वेद) पाना चाहता हो तो जिनेश्वर परमात्मा का यही उपदेश है। हिंसा का त्याग कर दो क्योंकि मोक्ष पाने की यही एक मात्र विधि है।
इच्छंतो य अहिंसं, नाणं सिक्खिज्ज सुगुरुमूलम्मि।
सच्चिय कीरइ सम्म, जंतविसयाइविन्नाणं ।। 15 ।। इति पुष्पमाला विवरणे (आद्ये) प्रथममभयदान द्वारं समाप्त।
इच्छेत् च अहिंसां, ज्ञानं शिक्षेत् सुगुरुमूले। सा चैव क्रियते सम्यक् यत् तत् विषयादि विज्ञानम्।। 15।। यदि अहिंसा ज्ञान द्वार की इच्छा करते हो तो सर्व प्रथम सद्गुरू के सान्निध्य में श्रुत ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करों, क्योंकि ज्ञान से ही अहिंसा का विशेष विज्ञाता होकर सम्यक् प्रकार से अहिंसा का पालन कर सकोगें। किं नोण? को दाया?, को गहणविही ? गुणा य के तस्स? |
दारक्कमेण इमिणा, नाणस्स परूवणं वुच्छं।। 16 ।। किं ज्ञानं? को दाता ? कः ग्रहण विधिः? गुणाः च के तस्य।
द्वारक्रमेण अनेन, ज्ञानस्य प्ररूपणम् वक्ष्ये ।। 16 ।। ज्ञान का स्वरूप क्या है ? ज्ञान का दाता कौन है ? ज्ञान की ग्रहण विधि क्या है ? इस प्रकार क्रम से ज्ञान के स्वरूप की प्रज्ञापना करूंगा।
आभिणिबोहियनाणं, सुअनाणं चेव ओहिनाणं च। तह मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च पंचमयं ।। 17 ।।
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