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42 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
बाह्येन अनित्येन च धनेन यदि भवति पात्र निक्षिप्तेन। नित्यं अन्तरङ्गरूपः धर्मः तर्हि किं न परिपूर्णः।। 54 || अनित्य एवं बाह्य साधन (धनादि) द्वारा सुपात्र को दिये हुये दान से जब मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है तो अर्हद् प्रणीत धर्म के अंतरंग पालन से क्या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी ? अर्थात् अवश्य होगी।
दारिदं दोहग्गं, दासत्तं दीणया सरोगत्तं। परपरिभवसहणं चिय, अदिन्नदाणेणऽवत्थाओ।। 55 ।।
दारिद्रयं दौर्भाग्यं दासत्वं दीनता सरोगत्वं । परिभवसहनं चैव, अक्षतदानेन (इति) अवस्थाः ।। 55 ।। शक्ति होने पर भी सुपात्र को दान नहीं देने से व्यक्ति परलोक में अर्थात् अगले जन्मों में दरिद्रता, दौर्भाग्य, दासत्व, दीनता, रूग्णता आदि दुःखों को प्राप्त करता है।
ववसायफलं विहवो, विहवस्स फलं सुपत्तविणिओगो।
तयभावे ववसाओ, विहवोचिय दुग्गइनिमित्तं ।। 56 || व्यवसाय फलं विभवः, विभवस्य फलं सुपात्राविनियोगः।
तदभावे व्यवसायः विभवश्चैव दुर्गतिनिमित्तम् ।। 56 ।। परिश्रम का फल वैभव है, वैभव का फल सुपात्रदान है। यदि दान नहीं देते हैं तो परिश्रम एवं वैभव दोनों ही दुर्गति के निमित्त बन जाते हैं।
पायं अदिन्नपुव्वं, दाणं सुरतिरियनारयभवेसु। मणुयत्ते वि न देज्जा, जइ तं तो तं पि नणु विहलं ।। 57 ||
प्रायः अदत्तपूर्व, दानं सुरतिर्यङ्नारकभवेषु । मनुजत्वेऽपि न दद्यात्, यदि तदपि ननु विफलं ।। 57 || नारक, तिर्यच, देव आदि के भवों में व्यक्ति प्रायः दान नहीं दे पाता है और यदि मनुष्य भव में भी दान नहीं दिया तो फिर वह मनुष्य जन्म भी व्यर्थ हो जाता है।
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