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94 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
तीर्थकरोद्देशेनापि, शिथिलियेत् न संयमं सुगतिमूलं । तीर्थकरेणापि यस्मात्, समये इदं विनिर्दिष्टं ।। 226 ।। तीर्थंकरों की पूजा आदि की प्रवृत्ति सुगति हेतु, है, फिर भी साधु संयम में शिथिलन बने, इस हेतु उसे तीर्थंकरों की पुष्पादि से पूजा की अनुमति नही दी गई, गृहस्थों के लिये तीर्थकरों द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थों में इसका निर्देश किया गया है।
चेइयकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य । सव्वेसु वि तेण कयं तवसंजमउज्जमंतेण ।। 227 ।। चैत्यकुलगणसंघे, आचार्याणां च प्रवचनश्रुते च । सर्वेषु अपि तेन कृतं तपसंयमोद्यमान्तेन ।। 227 ।। जिनायतन (चैत्य ) मुनि, कुल, गण, संघ के हेतु आचार्यों के द्वारा जिन प्रवचन रूप आगम सूत्रों में जो कुछ भी विधान किया गया है, वह सभी तप एवं संयम के लिए किया गया है।
सव्वरयणमएहिं, विभूसियं जिणहरेहिं महिवलयं ।
जो कारिज्ज समग्गं, तओ वि चरणं महिड्डियं । 228 ।। सर्वरत्नमयैः विभूषितं जिनगृहै महीतलं ।
यः कारयेत् समग्रं ततोऽपिचरणं महर्द्दिकं ।। 228 11
चाहे व्यक्ति सम्पूर्ण भूमण्डल को रत्न जटित जिन चैत्यों से अलंकृत कर दे, फिर भी उसकी अपेक्षा संयम अर्थात् मुनि जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण एवं महान ऋद्धि प्रदाता है ।
दव्वत्थओ य भाव-त्थओ य बहुगुणोत्ति बुद्धि सिया । अनिउणवयणमिणं, छज्जीवहियं जिणा बिंति ।। 229 ।।
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