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52 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
दान, शील और तप ये सभी तब तक इक्षु के पुष्प की तरह निष्फल है, जब तक हृदय में शुभ भाव-रूपी धर्म न हो, क्योंकि शुभ भाव ही मोक्ष का हेतु है।
सम्मत्तचरणसुद्धी, करणजओ निग्गहो कसायाणं । गुरुकुलवासो दोसाण, वियउणा भवविरागो य ।। 87 ।। विणओ वेयावच्च, सज्झायरई अणाययणचाओ । परपरिवायनिवित्ती, थिरया धम्मे परिन्ना य ।। 88 ।। सम्यक्त्व - चरणशुद्धि करणजयः निग्रहः कषायाणां । गुरूकुलवासः दोषणां विकटना भवविरागश्च ।। 87 ।। विनयः वैयावृत्यं स्वाध्यायरति ः अनायतनत्यागः । परपरिवादनिवृत्तिः स्थिरता धर्मे परिज्ञा च ।। 88 ।। सम्यक्त्वशुद्धि चारित्रशुद्धि, इन्द्रिय-जय, कषाय - निग्रह, गुरु का सान्निध्य, प्रमाद आदि दोषों की आलोचना, भवविराग (निर्वेद), विनय, सेवा, स्वाध्याय में रति, अनायतनता, पर-परिवाद का त्याग, धर्म में स्थिरता और प्रत्याख्यान ये चौदह गुण शुभ-भाव के हेतु है ।
किं सम्मत्तं ? तं होज्ज, किह? णु कस्स? व गुणा ये के? तस्स । कइभेयं ? अइयारा, लिंगं वा किं भवे ? तस्स ।। 89 ।। किं सम्यक्त्वं ? तद् भवेत् कथं? ननु कस्य? वा गुणाश्च के । तस्य कतिभेदादि अतिचाराः, लिङ्ग वा किं भवेत् ? तस्य ।। 89 ।। सम्यक्त्व का स्वरुप क्या हैं ? सम्यक्त्व किस प्रकार से होता है ? सम्यक्त्व किसको होता है ? सम्यक्त्व के गुण क्या है ? सम्यक्त्व के कितने भेद है ? सम्यक्त्व के अतिचार (दोष) क्या है ? और सम्यक्त्व की पहचान ( लिंग ) क्या है ?
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