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उपदेश पुष्पमाला/ 69
जइ मिच्छदिट्टियाण वि, जत्तो केसिंचि जीवरक्खाए। कह साहूहिं न एसो, कायव्वो ? मुणियसारेहिं।। 144|| यदि मिथ्यात्वदशामपि यस्मात् केषांचित् जीवरक्षायां।
कथं साधुभिः न एषः कर्तव्यः ? ज्ञात सारैः।। 14411 यदि मिथ्यादृष्टि जीव भी स्व-स्वभाव से स्वजाति के जीवों की रक्षा करते हैं तो मुनित्व के मूल-तत्त्व को समझने वाले साधु को क्या जीव-रक्षा नहीं करनी चाहिये ? अर्थात् आवश्यमेव करनी चाहिये।
नियपाच्चएण वि, जणंति परपाणरक्खणं धीरा। विसतुंबओवभोगी, धम्मरुई एत्थुदाहरणं ।। 145 ।। निजप्राणत्यागेनापि जनयन्ति परप्राणरक्षणं धीराः।
विषतुम्बकोपभोगी धर्मरूचिः अत्रोदाहरणं।। 145 ।। धीर पुरूष दूसरे के प्राणों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का भी उत्सर्ग (त्याग) कर देते हैं। जैसे - धर्म रूचि अणगार ने चींटियों की रक्षा के लिये विषैले तुम्बे के शाक को ग्रहण कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
कोहेण व लोभेण व, भएण हासेण वा वि तिविहेणं। सुहुमेयरं पि अलियं, वज्जसु सावज्जसयमूलं ।। 146 ।। क्रोधेन वा लोभेन वा भयेन हासेन वापि त्रिविधेन। सूक्ष्मतरं अपि अलीकं, वर्जयेत् सावधशतमूलं ।। 146 ।। साधक क्रोधवश या लोभवश या भयवश अथवा हास्य हेतु सूक्ष्मतर भी मिथ्या वचन नहीं बोले, क्योंकि यह पाप का मूल है। अतः उसे त्रिविध योग एवं त्रिकरण से असत्य का परित्याग करना चाहिये।
लोए वि अलियवाई, वीससणिज्जो न होइ भुअंगोव्व। पावइ अवन्नवायं, पियराण वि देइ उव्वेयं ।। 147 ।।
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