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44 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
इसके साथ शील का पालन कर लिया तो फिर सम्पूर्ण संसार को ही जीत लिया ऐसा कहा जा सकता है। इति पुष्पमाला वृत्तौ तृतीय-मुपष्टम्मद्वारं समाप्तम् ।
जं देवाण वि पुज्जो, भिक्खानिरओ वि सीलसंपुन्नो। पुहइवई वि कुसीलो, परिहरणिज्जो बुहयणस्स ।। 61।।
यद् देवानां अपि पूज्यः भिक्षानिरतोऽपि शीलसम्पन्नः। पृथ्वीपति अपि कुशीलो, परिहरणीयः बुधजनस्य ।। 61 ।। जो भिक्षा चर्या करते हैं तथा शील सम्पन्न है, वे देवताओं द्वारा भी पूजनीय है तथा जो पृथ्वी पति है परन्तु दुराचारी है, वे बन्धुजनों के द्वारा भी त्याज्य है।
कस्स न सलाहणिज्जं, मरणं पि विसुद्धसीलरयणस्स। कस्स व न गरहणिज्जा, वियलियसीला जियंता वि।। 62 ||
कस्य न सलाभनित्यं, मरणमपि विशुद्धशीलरत्नस्य। कस्य वा न गर्हनीया विगलितशीला जीवन्तोऽपि।। 62 || विशुद्ध शील रत्न वाले का मरण भी प्रशंसनीय है तथा विगलित शील (दुराचारी) वाले का जीना भी निंदनीय है।
जे सयलपुहविभारं, वंहति विसहति पहरणुप्पीलं । नणु सीलभरुव्वहणे, ते वि हु सीयंति कसरुव्व।। 63 ।।
ये सकल पृथ्वीभारं, बहन्ति विसहन्ते प्रहरणोत्पीड़ाम् । ननु शीलभरोद्वहने, तेऽपि खलु सीदन्ति कसरं इव ।। 63 ।। कुछ व्यक्ति सम्पूर्ण पृथ्वी के भार को धारण करते हैं अर्थात् प्रज्ञा का पालन करते हैं तथा शत्रु के प्रहार को भी सहन कर लेते हैं, परन्तु शील रत्न के भार को वहन करने में कोल्ह के बैल की तरह अपने को खेदित अनुभव करते हैं।
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