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40 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
इय मोक्खहेउदाणं, दायव्वं सुत्तवण्णियविहिए । अणुकंपादाणं पुण, जिणेहिं सव्वत्थ न निसिद्धं ।। 48 ।। इति मोक्षहेतुदानं, दातव्यं सूत्रवर्णित - विधिना । अनुकम्पा दानं पुनः, जिनैः सर्वत्र न निषिद्धम् ।। 48 ।। सूत्रों में वर्णित विधि के अनुसार सुपात्र को मोक्ष प्राप्ति हेतु दान देना चाहिये। जिनेश्वर परमात्मा ने अनुकंपा दान का निषेध नहीं किया है परन्तु यह दान परम्परा से मोक्ष का कारण हो सकता है पर साक्षात् मोक्ष का हेतु नहीं है।
केसिंचि होइ चित्तं, वित्तं अन्नेसिमुभयमन्नेसिं ।
चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्नि वि केसिंचि धन्नाणं ।। 49 ।। केषांचित् भवति चित्तं वित्तं अन्येषां उभयं अन्येषाम् । चित्तं वित्तं पात्रं त्रीणि अपि केषांचित् धन्यानाम् ।। 49 ।
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( 3 ) उपष्टम्भदान द्वारं
कोई-कोई श्रद्धालु मन से दान देते हैं क्योंकि न तो उसके पास वित्त होता है और न सुपात्र का योग मिलता है। कुछ लोगों के पास वित्त तो होता है परन्तु दान देने की भावना (चित्त वृत्ति) नहीं होती है और न सुपात्र का योग मिलता है। विरले ही कोई ऐसे होते हैं जिन्हें वित्त, चित्त और पात्र तीनों ही उपलब्ध होते हैं ।
आरोग्गं सोहग्गं, आणिस्सरियं मणिच्छिओ विहवो । सुरलोयसंपया विय, सुपत्तदाणाऽवरफलाई || 50 || आरोग्यं सौभाग्यं आज्ञैश्वर्यं मनीषि तो विभवः । सुरलोक संपदापि च सुपात्रदानापरफलानि ।। 50 ।। दान से आरोग्य, सौभाग्य, आज्ञाकारी सेवकों की सम्पदा, मनोवांछित वैभव तथा सुरलोक की समृद्धि की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही मोक्ष पद की
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