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38 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
इति पुष्पमाला विवरणे द्वितीयं ज्ञान द्वारम्
आहारवसहिवत्था-इएहिं नाणीणुवग्गहं कुज्जा। जं भवगयाण नाणं, देहेण विणा न संभवइ ।। 41 ।।
आहार वसतिवस्त्रादिभिः ज्ञानिनां उपग्रहं कुर्यात् । यत् भवगतानां ज्ञानं, देहेन बिना न संभवति।। 41|| आहार, वसति, वस्त्र आदि द्वारा ज्ञानी का उपकार करें, क्योंकि संसार में आये हुये व्यक्ति को देह के बिना ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
देहो य पुग्गलमओ, आहाराइहिं विरहिओ न भवे। तयभावे न य नाणं, नाणेण विणा कओ तित्थं ?|| 42|| - देहः च पुद्गलमयः, आहारादिभिः विरहित न भवति।
तदभावे न च ज्ञानं, ज्ञानेन बिना कुंतः तीर्थम् ।। 42 ।। शरीर पुद्गलमय है, अतः आहारादि के अभाव में शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता है एवं स्वस्थ शरीर के अभाव में ज्ञान भी सुरक्षित नहीं रहता है, और ज्ञान के अभाव में धर्म-तीर्थ (चतुर्विघसंघ) भी सुरक्षित नहीं रहता है।
एएहिं विरहियाणं, तवनियमगुणा भवे जइ समग्गा। आहारमाइयाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा ? || 43 ।। एतैः विरहितानां, तपनियमगुणा भवेयुः यदि समग्राः। आहारमात्रादिकानाम्, को नाम परिग्रहं कुर्यात् ।। 43 ।। यदि आहार आदि के अभाव में भी साधु जीवन तप, नियम आदि गुणों से परिपूर्ण पालन हो जाये तो फिर कौन आहार आदि के परिग्रहण की अपेक्षा रखेगा?
तम्हा विहिणा सम्म, नाणीणमुवग्गहं कुणंतेणं। भवजलहिजाणवत्तं, पवत्तियं होइ तित्थंपि।। 44||
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