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उपदेश पुष्पमाला/ 39
तस्मात् विधिनां सम्यक्, ज्ञानिनां उपग्रहं कुर्वता।
भवजलधियाणपात्रं प्रवर्तितं भवति तीर्थमपि।। 44 ।। सम्यक् विधि द्वारा आहार आदि से उपग्रह करते हुये संसार-सागर से पार होने के लिये बने हुये जहाज के समान चतुर्विध-धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति होती
कह दायगेण एयं, दायेव्वं ? केसु वा वि पत्तेसु ?।
दाणस्स, अदायगाणं च गुणदोसा ।। 45 ।। कथं दायकेन एतं दातव्यं ? केषु वापि पात्रेषु ?| दानस्य दायकानां, अदायकानां च गुणदोषाः ।। 45 ।। दाता के द्वारा दिये जाने वाले दान नहीं देने से क्या-क्या दोष होते हैं, उन्हें मैं बताता हूँ।
आसंसाए विरहिओ, सद्धारोमंचकंचुइज्जंतो। कम्मक्खयहेउं चिय, दिज्जादाणं सुपत्तेसु ।। 46 ||
आशंसया विरहितः, श्रद्दारोमांचकंचुकितः ।
कर्मक्षयहेतुं चैव दद्यात् दानं सुपात्रेषु ।। 46 || प्रशंसा की कामना के बिना, श्रद्धा से, भावोल्लास के साथ तथा कर्म क्षय हेतु सुपात्र को दान देना आदि दायक के गुण हैं।
आरंभनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविंताणं। धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहिं धम्मे कयमणाणं ।। 47 ||
आरम्भ निवृत्तेभ्यः अक्रीणभ्यः अकारयद्भ्यः ।
धर्मार्थम्दातव्यं, गृहीभिः, धर्मेकृतमनोभिः ।। 47 || हिंसा एवं परिग्रह से निवृत्ति, मूल्य देकर क्रय नहीं करने वाला, न दूसरों से मूल्य दिलाने वाला एवं धर्म-मार्ग में स्थित व्यक्ति को अर्थात् सुपात्र को ही दान देना चाहिये।
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