Book Title: Upasakdashangasutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 536
________________ ४४० उपासकदशाम अहिजमाणेहिं अन्नउत्थिया अहे हि य जाव निष्पट्टपसिणा करितए || १७६ || तर ण समणा निग्गंथा य निग्गथिओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमहं विणएण पडिसुणंति ॥ १७७॥ मूलम् - तएण कुंडकोलिए समणोवासए समण भगव महा वीर वदड़ मसइ, वदित्ता नमसिना पसिणाड पुच्छड, पुच्छित्ता अट्टमादियइ, अट्टमादिइत्ता जामेव दिसं पोउवभृए तामेव दिस पडगए । सामी बहिया जणवयविहार विहरड ॥ १७८ ॥ तए ण शक्या पुनरार्याः | श्रमणैर्निर्ग्रन्यैर्द्वादशाङ्ग गणिपिटनमधीयानेरन्यपृथिका अर्थैश्व यावम्नि स्पष्टप्रश्नाः कर्त्तुम् ॥ १७६ ॥ ततः खलु श्रमणा निर्ग्रन्याश्च निर्गन्ध्यश्र श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थं विनयेन मतिशृण्वन्ति ॥ १७७॥ छाया-ततः खलु कुण्डकौलिक श्रमणोपासक श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छति, पृवाऽर्थमाददाति, अर्धमादाय यामेव दिश मादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगतः । स्वामी बहिर्जन पदविहार विहरति प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति ॥ १७४ - १७७ ॥ 19 दादशा का अध्ययन करनेवाले निर्गन्ध श्रमणों को तो, उन्हें ( अन्ययू frist ) असे यावत् निरुत्तर अवश्य कर देना चाहिए" ॥१७६॥ श्रमण निर्ग्रन्थोंने श्रमण भगवान् महावीरका यह कथन विनयके साथ 'तहत्ति ' ( तथेति ) कहकर स्वीकार किया || १७७ ॥ टीकार्थ- ' तर ण कुडे ' -त्यादि कुण्डकौलिक श्रावक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दन- नमस्कार करके प्रश्न पूछे और अर्थ को ग्रहण किया । फिर जिस और से કરી શકે છે, તે હું આ ગણુ ! દ્વાદશાગવું અધ્યયન કરનારા નિગ્રન્થ શ્રમણે તે તેમને (અ યયૂથિકને) અર્થાથી ચાવત નિરૂત્તર અવશ્ય કરી દેવાજ ોઇએ (૧૭૬) શ્રમણુ નિર્ભ્રાન્થાએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનુ એકચન વિનયપૂર્વક वहत्ति' (तयेति) हीने स्वीकार्य (१७७) टीकार्थ- 'तए ण कुडे' -त्याहि ओसिक श्रावडे શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના કરી નમસ્કાર કર્યાં, અને પ્રશ્નો પૂછયા તથા અને ગ્રહણ કર્યાં

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