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अहिंसा है। मित्ती मे सव्वभूएसु इसे सार्वजनिक बनाना होगा। अपने को अनुशासित करूँ- यह संयम है। अतः दुःखों से उद्वेलित होकर अविचारपूर्वक होने वाली प्रतिक्रिया न करूँ- इसे परीषहजय भी कहते हैं तथा दुःख के प्रति स्वेच्छा से प्रतिकूल परिस्थिति को आमंत्रित करना तप हैं। अतः अहिंसा, संयम और तप रूप इन तीनों उत्कृष्ट मंगल के प्रति हमारी प्रवृत्ति समरूप रहे। अपने आपको प्रतिकूल परिस्थितियों की दासता से मुक्त बनाये रखें और सब प्रकार की परिस्थितियों में अपना समभाव बना रहे, क्योंकि समया धम्ममुदाहरे मुणी अर्थात् अनुकूलता में प्रफुल्लित न होना और प्रतिकूलता में विचलित न होना समता है। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि रखने पर सामाजिक प्रवृत्ति समतापूर्वक की जा सकती है। 4. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन
आधुनिक समाज की रचना श्रम पर आधारित होते हुए भी संघर्ष और असंतुलन पूर्ण हो गई है। जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा होने पर जीवन निर्वाह की आवश्यक वस्तुओं का उत्पाद और विनिमय प्रारम्भ हुआ। अर्थ-लोभ ने पूंजी को बढ़ावा दिया। फलतः औद्योगीकरण, यंत्रवाद, यातायात, दूरसंचार तथा अत्याधुनिक भौतिकवाद के हावी हो जाने से उत्पादन और वितरण में असंतुलन पैदा हो गया। समाज की रचना में एक वर्ग ऐसा बन गया, जिसके पास आवश्यकता से अधिक पूंजी और भौतिक संसाधन जमा हो गये तथा दूसरा वर्ग ऐसा बना, जो जीवन-निर्वाह की आवश्यकता को भी पूरी करने में असमर्थ रहा। फलस्वरूप श्रम के शोषण से बढ़े वर्ग-संघर्ष की मुख्य समस्या ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया।
इस समस्या के समाधान में समाजवाद, साम्यवाद जैसी कई विचारधाराएँ आयीं, किन्तु सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। भगवान् महावीर ने आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व इस समस्या के समाधान के कुछ सूत्र दिए, जिनके सन्दर्भ में समतावादी समाज की रचना की जा सकती है। ये सूत्र अर्थ-प्रधान होते हुए भी जैन धर्म के साधना-सूत्र कहे जा सकते हैं। महावीर ने श्रावकवर्ग की आवश्यकताओं एवं उपयोग का चिंतन कर हर क्षेत्र में मर्यादा एवं परिसीमन पूर्वक आचरण करने के लिए बारह व्रतों का विधान किया है। जैन आगम उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन आनंद श्रावक में वर्णित बारह व्रतों का विधान इस प्रकार है
"अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा- पंच अणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं तं जहा- थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ
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तुलसी प्रज्ञा अंक 130
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