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पालि-प्राकृत मुक्तक काव्य का
समीक्षात्मक अध्ययन
रजनीश शुक्ल
भगवान बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेशों का माध्यम जनसामान्य में प्रचलित जनभाषा पालि और प्राकृत को बनाया था। उस समय के गणधरों
और श्रुतधरों तथा भिक्षुओं और भिक्षुणियों ने बुद्ध और महावीर के उपदेशों को सुरक्षित रखा था। कुछ समय पश्चात् उन उपदेशों को लेखन के माध्यम से सुरक्षित किया गया। उस समय के अधिकांशतः उपदेश काव्यात्मक शैली में रखे जाते थे, जिससे कि वे आगे भी विद्यमान रहे। पालि और प्राकृत के मुक्तक काव्यों और गीतिकाव्यों में धम्मपद, थेरगाथा, प्राकृत के अनेक मुक्तक ग्रन्थों को विद्वानों ने संकलित करके श्रुत परम्परा को जीवित रखा है, जो कि मानव जीवन के मूल्यों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं।
साहित्यिक प्राकृत का विकास बोलचाल की जन-भाषा से हुआ है। दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृत से हुआ, जैसे वैदिक भाषा या छन्दस् का। यही कारण है कि वैदिक भाषा और प्राकृत में अनेक स्थलों पर सादृश्य प्राप्त होता है। भारत की प्राचीन भाषाओं में प्राकृत भाषाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोक भाषाओं के रूप में प्रारम्भ में इनकी प्रतिष्ठा रही और क्रमशः ये साहित्य और चिन्तन की भाषाएँ बनीं। प्राकृत प्राचीन भारत के जीवन और साहित्यिक जगत की आधार भाषा है। जनभाषा से विकसित होने के कारण और जनसामान्य की स्वाभाविक (प्राकृतिक) भाषा होने के कारण इसे प्राकृत भाषा कहा गया है। भगवान महावीर ने प्राकृत में और भगवान बुद्ध ने पालि (जो कि प्राकृत का एक प्राचीन रूप है) में उपदेश दिये।
लोकभाषा जब जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है तथा उसकी शब्द
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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