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तेजस्विता, भक्ति, विनय, क्षमा, दया, उदारता, शील, संतोष आदि विषयों का पालि प्राकृत के मुक्तक काव्यों में विस्तार से विवेचन किया गया है । इन काव्यों में सज्जन, दुर्जन, यश- अपयश, आत्मप्रशंसा, साहस, धैर्य, मित्रता, परोपकार, वीरता आदि का भी कथन किया गया है। वस्तुतः नीतिपरक मुक्तकों में शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में निरूपण किया जाता है। मनुष्य के जिस व्यवहार से उसका स्वयं का हित तथा संसार का उपकार होता है, उसे आचार कहते हैं । वेदों और आगमों में जो धर्माचरण आदि का व्यवहार किया जाता है वही आचार है । आचरण ही परमधर्म है 'आचारी परमधर्मः ' ।
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पालि मुक्तकों में जहाँ प्रेम को दुखों का कारण, आसक्ति का माध्यम होने से लोग धर्म साधना में इसको बाधा मानकर प्रेम से दूर रहने का संकेत करते हैं वहीं प्राकृत मुक्कों में प्रेम को श्रृंगार के माध्यम से अनेक कवियों ने इसका अपने ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन किया है। रूप सौन्दर्य को पाने के लिए प्रेम की आवश्यकता होती है। रूप के प्रति कवियों ने आसक्ति व्यक्त की है। प्रेम दो व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधता है, लेकिन प्रेम को सदा एकरूप होना चाहिए। इस अध्याय के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन के अनेक अनुभव हैं जो मनुष्य को पग-पग पर विभिन्न रूपों में शिक्षा प्रदान करते हैं । पालि और प्राकृत गाथाएं पर्याप्त समृद्ध हैं।
शोध प्रबंध के चतुर्थ अध्याय में पालि प्राकृत की समीक्ष्य मुक्तक गाथाओं को काव्यात्मक और भाषात्मक दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । इस अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि इन मुक्तकों को प्रमुख छंद गाथा छंद रहा है । यद्यपि इसके अतिरिक्त छंदों का प्रयोग मुक्तकों में हुआ है। इन मुक्तकों की काव्यात्मक सुषमा की श्रेष्ठता के कारण अलंकारों के उदाहरणों के रूप में प्राकृत मुक्तकों के काव्यशास्त्रीय रूप में प्रस्तुत किया है। हमने इस संबंध में कतिपय अलंकारों के उदाहरण शोध-प्रबन्ध में दिये हैं। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि पालि प्राकृत मुक्तकों में प्रायः सभी रसों का समावेश पाया जाता है। इनमें श्रृंगार रस के अतिरिक्त शांत और भक्ति रसों की प्रधानता है। इन समीक्ष्य मुक्तकों की भाषा प्रमुख रूप से महाराष्ट्री प्राकृत है। इनमें देशी शब्दों का प्रयोग भी पाया जाता है।
शोध-प्रबन्ध के पंचम अध्याय में पालि प्राकृत के मुक्तकों का सांस्कृतिक दृष्टि से भी अध्ययन किया गया है । अध्ययन में प्रयुक्त मुक्तक गाथाएँ विभिन्न कालों में लिखे गये पालि प्राकृत ग्रन्थों की हैं। अतः इन मुक्तक गाथाओं की सांस्कृतिक सामग्री किसी एक समयावधि की नहीं है और न ही एक प्रकार की । फिर भी इन मुक्तकों में जो सामाजिक
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
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