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तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA
वर्ष 33 ० अंक 130 ० जनवरी-मार्च, 2006
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तुलसी प्रज्ञा.
_TULSI PRAJNA
Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL.-130
JANUARY-MARCH, 2006
Patron Sudhamahi Regunathan
Vice-Chancellor
Editor in
Hindi Section Dr Mumukshu Shanta Jain
English Section Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial-Board Dr Mahavir Raj Gelra, Jaipur Prof. Satya Ranjan Banerjee, Calcutta Dr R.P. Poddar, Pune Dr Gopal Bhardwaj, Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun Dr Bachh Raj Dugar, Ladnun Dr Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr J.P.N. Mishra, Ladnun
Publisher : Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306
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Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL-130
JANUARY-MARCH, 2006
Editor in Hindi Dr Mumukshu Shanta Jain
Editor in English Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial Office Tulsi Prajñā, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
LADNUN-341 306, Rajasthan
Publisher
: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Type Setting : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Printed at
: Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302015, Rajasthan
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them.
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अनुक्रमणिका / CONTENTS
विषय
जैन धर्म में व्रताराधना : आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ
जैन अर्द्धमागधी आगमों में निहित गणित
हिन्दी खण्ड
स्वप्न-विज्ञान
जैन संस्कृति की मूल अवधारणा
जैन कर्म - सिद्धान्त और वंश-परम्परा विज्ञान
पालि-प्राकृत मुक्तक काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
Subject
Acārānga-Bhāṣyam
अंग्रेजी खण्ड
Higher Education and National....
Application of Meditation in the field ...
लेखक
डॉ. जिनेन्द्र जैन
डॉ. अनुपम जैन
समणी कुसुम प्रज्ञा
प्रोफेसर भागचन्द जैन
सोहनराज तातेड़
रजनीश शुक्ल
Author
Acarya Mahāprajña
Dr Anil Dhar
Dr Chintaharan Betal
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दृष्टिकोण का परिवर्तन
आकांक्षा इतनी तीव्र बनी रहती है कि उसका अन्त ही नहीं आता, इसका मूल कारण है दृष्टिकोण का अपरिवर्तन। दृष्टिकोण का परिवर्तन होना अत्यन्त । आवश्यक है और इसके लिए आध्यात्मिक विकास बहुत जरूरी है आज समाज व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है कि इसमें पदार्थ व्यवस्था अर्थात् उत्पादन, वितरण और विनिमय पर बहुत ध्यान दिया गया किन्तु उत्पादक, वितरक और विनिमयिक पर बहुत कम ध्यान दिया गया। इसीलिये इतनी विषमतायें और अव्यवस्थायें उत्पन्न हुई हैं जब तक व्यक्ति को बदलने की बात प्राप्त नहीं होती तब तक समस्याएं सुलझती नहीं है। जब तक चेतना जो करता है, करने वाला है, वह नहीं बदलेगा तो प्रणालियों के परिवर्तन से कुछ नहीं बनेगा। इसलिये जरूरी है दृष्टिकोण का परिवर्तन।
- अनुशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ
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जैन धर्म में व्रताराधना : आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ
यह एक बुद्धिगम्य तथ्य है कि जब तक योजनाबद्ध और सुनियन्त्रित आदर्शमूलक विकास-पथ का सक्रिय अनुसरण मानव-समाज द्वारा न होगा, तब तक वास्तविक उत्कर्ष के उन्नत शिखर पर दृढ़तापूर्वक चरण स्थापित नहीं किये जा सकेंगे । अनेक भौतिक उपलब्धियों के बाद भी आज मानव वास्तविक सुख से वंचित है । वास्तविक सुख मानव-जाति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ हैं और उनका आपस में सम्बन्ध है । इसीलिए धर्म के साथ अर्थ रखने का फलितार्थ यह है कि अर्थ का उपयोग धर्म द्वारा नियंत्रित हो और धर्म - अर्थ द्वारा प्रवृत्त्यात्मक बने। इस दृष्टि से धर्म अर्थ का सम्बन्ध संतुलित अर्थव्यवस्था और समाज - रचना का समाजवादी दृष्टिकोण स्थापित करने में सहायक बनता है । धर्म मानव-जीवन की आध्यात्मिक एवं धार्मिक शक्तियों के साथ-साथ सामाजिक विकास और उसके रक्षण के लिए भी आवश्यक व्यवस्था देता है । अतः समाज व्यवस्था के सूत्रों के धरातल पर धर्म आर्थिक तत्त्वों से जुड़ता है।
जैन धर्म केवल निवृत्तिमूलक दर्शन नहीं है, बल्कि उसके प्रवृत्त्यात्मक रूप में अनेक ऐसे तत्त्व विद्यमान हैं, जिनमें निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय होकर धर्म का लोकोपकारी रूप प्रकट हुआ है । इस दृष्टि से जैन धर्म जहाँ एक ओर अपरिग्रही, महाव्रतधारी अनगार धर्म के रूप में निवृत्तिप्रधान दिखाई देता है, तो दूसरी ओर मर्यादित प्रवृत्तियाँ करने वाले अणुव्रतधारी श्रावक धर्म की गतिविधियों में सम्यक् नियन्त्रण करने वाला दिखाई देता है । समाज-रचना के समाजवादी दृष्टिकोण में से दोनों (अनगार एवं श्रावक) वर्ग सदा अग्रणी रहे हैं ।
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- डॉ. जिनेन्द्र जैन
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समाज - रचना में राजनीति और अर्थनीति के धरातल पर यदि जैनदर्शन के अहिंसात्मक स्वरूप का प्रयोग करें तो आधुनिक युग में समतावादी दृष्टिकोण को स्थापित किया जा सकता है । महात्मा गाँधी ने भी आर्थिक क्षेत्र में ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं का संचय न करना, शरीर श्रम, स्वादविजय, उपवास आदि के जो प्रयोग किये, उनमें जैनदर्शन के प्रभावों को सुगमता से रेखांकित किया जा सकता है।
जैन दर्शन का मूल लक्ष्य वीतरागभाव अर्थात् राग-द्वेष से रहित समभाव की स्थिति प्राप्त करना है । समभाव रूप समता में स्थित रहने को ही धर्म कहा गया है। समता धर्म का पालन श्रमण के लिए प्रति समय आवश्यक है । इसीलिए जैन परम्परा में समता में स्थित जीव को ही श्रमण कहा गया है। जब तक हृदय में या समाज में विषम भाव बने रहते हैं, तब तक समभाव की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती। समतावादी समाज - रचना के लिए यह आवश्यक है कि विषमता के जो कई स्तर, यथा- सामाजिक विषमता, वैचारिक विषमता, दृष्टिगत विषमता, सैद्धान्तिक विषमता आदि प्राप्त होते हैं, उनमें व्यावहारिक रूप से समानता होनी चाहिए। समतावादी समाज - रचना की प्रमुख विषमता आर्थिक क्षेत्र में दिखाई देती है । आर्थिक वैषम्य की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उससे अन्य विषमता के वृक्षों को पोषण मिलता रहता है। आर्थिक विषमता के कारण निजी स्वार्थों की पूर्ति से मन में कषायभाव जागृत होते हैं । फलतः समाज में पापोन्मुखी प्रवृत्तियाँ पनपने लगती हैं। लोभ और मोह पापों के मूल कहे गये हैं। मोह राग-द्वेष के कारण ही (जीव) व्यक्ति समाज में पापयुक्त प्रवृत्ति करने लगता है। इसलिए इनके नष्ट हो जाने से आत्मा को समता में अधिष्ठित कहा गया है। समाज में व्याप्त इस आर्थिक वैषम्य को जैनदर्शन में परिग्रह कहा गया है । यह आसक्ति, अर्थ - मोह या परिग्रह कैसे टूटे, इसके लिए जैनधर्म में श्रावक के लिए बारह व्रतों की व्यवस्था की गई है। समतावादी समाजरचना के लिए आवश्यक है कि न मन में विषम भाव रहें और न प्रवृत्ति में वैषम्य दिखाई दे । यह तभी सम्भव है जब धार्मिक और आर्थिक स्तर पर परस्पर समतावादी दृष्टिकोण को अपनाएँ। प्रत्येक मनुष्य को विकास के समान अवसर एवं साधन उपलब्ध हों- इसे समाजवाद का मूल सिद्धान्त माना गया है । मानव मात्र की समानता समतावादी समाज की रचना का व्यावहारिक लक्ष्य है। जैन दर्शन में धार्मिक प्रेरणा से जो अर्थतन्त्र उभरा है, वह इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
जैन आगमों में ज्ञाताधर्मकथा द्वादशांगी के अन्तर्गत परिगणित है । इसके पंचम अध्ययन में शैलक का कथानक दिया गया है, जिसमें एक प्रसंग थावच्चा पुत्र एवं शुक के बीच हुए संवाद सहित यहाँ अपरिग्रह की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए दृष्टव्य है
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मूल पाठ
'सरिसवया ते भंते! भक्खेया अभक्खेया ?'
'सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।'
सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ?
'सुया! सरिसवया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य । तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - सहजायया, सहवड्ढियया सहपंसुकीलियया । तेणं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया ।
तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पन्नता, तं जहा - सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य। तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया तं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया ।
तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा -फासुगा य असफासुगा य। अफासुगा 'सुया ! नो भक्खेया ।
तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- जाइया य अजाइया य । तत्थं णं ते अजाइया ते अभक्खेया । तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - एसणिज्जा य असणिज्जा य । तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया ।
तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नता, तं जहा - लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं ते अलद्धा ते अभक्खेया । तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया ।
एएणं अट्ठेणं सुया ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।
शुक परिव्राजक ने प्रश्न किया- 'भगवन्! आपके लिए 'सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं । '
थावच्चापुत्र ने उत्तर दिया- 'हे शुक ! 'सरिसवया' हमारे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं ।'
शुक ने पुनः प्रश्न किया- 'भगवन् ! किस अभिप्राय से ऐसा कहते हैं कि 'सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं ?'
थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं- 'हे शुक ! 'सरिसवया' दो प्रकार के कहे गये हैं- मित्रसरिसवया (सदृश वय वाले मित्र) और धान्य- सरिसवया (सरसों) । इनमें जो मित्रसरिसवया हैं वे तीन प्रकार के हैं। वे इस प्रकार
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1. साथ जन्मे हुए, 2. साथ बढ़े हुए, 3. साथ-साथ धूल में खेले हुए। यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। ___जो धान्य-सरिसवया (सरसों) हैं, वे दो प्रकार के हैं-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं अर्थात् जिनको अचित्त करने के लिए अग्नि आदि शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया गया है, अतएव जो अचित्त नहीं हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं।
जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं - प्रासुक और अप्रासुक। हे शुक! अप्रासुक भक्ष्य नहीं हैं। उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं -याचित (याचना किये हुए) और अयाचित (नहीं याचना किये हुए)। उनमें जो अयाचित हैं, वे अभक्ष्य हैं। उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा-एषणीय और अनेषणीय। उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं।
जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं- लब्ध (प्राप्त) और अलब्ध (अप्राप्त)। उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं।
'हे शुक! इस अभिप्राय से कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।'
ज्ञाताधर्मकथा के उक्त दृष्टांत में यद्यपि श्रमण के भक्ष्य और अभक्ष्य का विवेचन किया गया है किन्तु विषय के आलोक में यहाँ यह विशेष रूप से कहा जा सकता है कि अभक्ष्य का त्याग अनावश्यक संग्रह एवं हिंसा के त्याग की भावना को व्यक्त करता है। यदि व्यक्ति संयमपूर्ण आहार को ग्रहण करता है तो एक ओर उसके स्वास्थ्य और धर्म आराधना का पालन तो होता ही है, साथ ही साथ आर्थिक दृष्टि से भी वह अपने आप को समृद्ध करता है। अतः समतावादी समाज-रचना के लिए जैनदर्शन के संदर्भ में निम्नांकित आर्थिक बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है
1. अहिंसा की व्यावहारिकता 2. श्रम की प्रतिष्ठा 3. दृष्टि की सूक्ष्मता 4. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन
5. साधन-शुद्धि पर बल 6. अर्जन का विसर्जन। 1. अहिंसा की व्यावहारिकता
अहिंसा के सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा हैअप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ 44॥
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अर्थात् जहाँ रागादि भावों का अभाव होगा, वहीं अहिंसा का प्रादुर्भाव हो सकता हैऐसा जैन परम्परा में स्वीकार किया गया है। महावीर ने समता के साध्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा को साधन रूप बताया है। अहिंसा मात्र नकारात्मक शब्द नहीं है, बल्कि इसके विविध रूपों में सर्वाधिक महत्त्व सामाजिक होता है। वैभवसम्पन्नता, दानशीलता, व्यावसायिक कुशलता, ईमानदारी, विश्वसनीयता और प्रामाणिकता जैसे विभिन्न अर्थ प्रधान क्षेत्रों में अहिंसा की व्यावहारिकता को अपनाकर श्रेष्ठता का मापदंड सिद्ध किया जा सकता है। अहिंसा की मूल भावना यह होती है कि अपने स्वार्थों, अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाओ, जहाँ तक वे किसी अन्य प्राणी के हितों को चोट नहीं पहुँचाती हों। अहिंसा इस रूप में व्यक्ति -संयम भी है और सामाजिक-संयम भी। 2. श्रम की प्रतिष्ठा __साधना के क्षेत्र में श्रम की भावना सामाजिक स्तर पर समाधृत हुई। इसीलिए महावीर ने कर्मणा श्रम की व्यवस्था को प्रतिष्ठापित करते हुए कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है। उन्होंने जन्मना जाति के स्थान पर कर्मणा जाति को मान्यता देकर श्रम के सामाजिक स्तर को उजागर किया, जहाँ से श्रम अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा और कृषि, गोपालन, वाणिज्य आदि की प्रतिष्ठा बढ़ी। ___जैन मान्यतानुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में जब कल्पवृक्षादि साधनों से आवश्यकताओं की पूर्ति होना सम्भव न रहा, तब भगवान् ने असि और कृषि रूप जीविकोपार्जन की कला विकसित की और समाज की स्थापना में प्रकृति-निर्भरता से श्रम-जन्य आत्म-निर्भरता के सूत्र दिए। यही श्रमजन्य आत्मनिर्भरता जैन परम्परा में आत्म-पुरुषार्थ और आत्म-पराक्रम के रूप में फलित हुई। अतः साधना के क्षेत्र में श्रम एवं पुरुषार्थ की विशेष प्रतिष्ठा है। यही कारण है कि व्यक्ति श्रम से परमात्म दशा प्राप्त कर लेता है। उपासकदशांगसूत्र में भगवान् महावीर और कुम्भकार सद्दालपुत्र का जो प्रसंग वर्णित है, उससे स्पष्ट होता है कि गोशालक का आजीवक मत नियतिवादी है तथा भगवान् महावीर का मत श्रमनिष्ठ आत्म-पुरुषार्थ और आत्मपराक्रम को ही अपना उन्नति का केन्द्र बनाता है। 3. दृष्टि की सूक्ष्मता
धर्म के तीन लक्षण माने गये हैं- अहिंसा, संयम और तप। ये तीनों ही दु:ख के स्थूल कारण पर न जाकर दुःख के सूक्ष्म कारण पर चोट करते हैं। मेरे दुःख का कारण कोई दूसरा नहीं, स्वयं मैं ही हूँ। अतः दूसरे को चोट पहुँचाने की बात न सोचूँ- यह
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अहिंसा है। मित्ती मे सव्वभूएसु इसे सार्वजनिक बनाना होगा। अपने को अनुशासित करूँ- यह संयम है। अतः दुःखों से उद्वेलित होकर अविचारपूर्वक होने वाली प्रतिक्रिया न करूँ- इसे परीषहजय भी कहते हैं तथा दुःख के प्रति स्वेच्छा से प्रतिकूल परिस्थिति को आमंत्रित करना तप हैं। अतः अहिंसा, संयम और तप रूप इन तीनों उत्कृष्ट मंगल के प्रति हमारी प्रवृत्ति समरूप रहे। अपने आपको प्रतिकूल परिस्थितियों की दासता से मुक्त बनाये रखें और सब प्रकार की परिस्थितियों में अपना समभाव बना रहे, क्योंकि समया धम्ममुदाहरे मुणी अर्थात् अनुकूलता में प्रफुल्लित न होना और प्रतिकूलता में विचलित न होना समता है। ऐसी सूक्ष्म दृष्टि रखने पर सामाजिक प्रवृत्ति समतापूर्वक की जा सकती है। 4. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन
आधुनिक समाज की रचना श्रम पर आधारित होते हुए भी संघर्ष और असंतुलन पूर्ण हो गई है। जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा होने पर जीवन निर्वाह की आवश्यक वस्तुओं का उत्पाद और विनिमय प्रारम्भ हुआ। अर्थ-लोभ ने पूंजी को बढ़ावा दिया। फलतः औद्योगीकरण, यंत्रवाद, यातायात, दूरसंचार तथा अत्याधुनिक भौतिकवाद के हावी हो जाने से उत्पादन और वितरण में असंतुलन पैदा हो गया। समाज की रचना में एक वर्ग ऐसा बन गया, जिसके पास आवश्यकता से अधिक पूंजी और भौतिक संसाधन जमा हो गये तथा दूसरा वर्ग ऐसा बना, जो जीवन-निर्वाह की आवश्यकता को भी पूरी करने में असमर्थ रहा। फलस्वरूप श्रम के शोषण से बढ़े वर्ग-संघर्ष की मुख्य समस्या ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया।
इस समस्या के समाधान में समाजवाद, साम्यवाद जैसी कई विचारधाराएँ आयीं, किन्तु सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। भगवान् महावीर ने आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व इस समस्या के समाधान के कुछ सूत्र दिए, जिनके सन्दर्भ में समतावादी समाज की रचना की जा सकती है। ये सूत्र अर्थ-प्रधान होते हुए भी जैन धर्म के साधना-सूत्र कहे जा सकते हैं। महावीर ने श्रावकवर्ग की आवश्यकताओं एवं उपयोग का चिंतन कर हर क्षेत्र में मर्यादा एवं परिसीमन पूर्वक आचरण करने के लिए बारह व्रतों का विधान किया है। जैन आगम उपासकदशांग के प्रथम अध्ययन आनंद श्रावक में वर्णित बारह व्रतों का विधान इस प्रकार है
"अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा- पंच अणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं तं जहा- थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ
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मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे । तिण्णि गुणव्वयाइं तं जहा- अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोग-परिभोगपरिमाणं। चत्तारि सिक्खावयाई तं जहा- सामाइयं, देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहि-संविभागे, अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-झूसणाराहणा, अयमाउसो! अगार-सामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ।"
भगवान् ने अगारधर्म बारह प्रकार का बतलाया- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत। पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं
1. स्थूल -मोटे तौर पर, अपवाद रखते हुए प्राणातिपात से निवृत्त होना। 2. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना। 3. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना। 4. स्वदारसंतोष- अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा करना। 5. इच्छा- परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण करना। तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं1. अनर्थदंड-विरमण- आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक निरर्थक
प्रवृत्ति का त्याग। 2. दिग्व्रत- विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण। 3. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत- उपभोग- जिन्हें अनेक बार भोगा जा
सके, ऐसी वस्तुएँ-जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा
सके- जैसे भोजन आदि- इनका परिमाण- सीमाकरण। चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं1. सामायिक- समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय
(न्यूनतम एक मुहूर्त-48 मिनिट) में किया जाने वाला अभ्यास। 2. देशावकाशिक-नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की बुद्धि का
अभ्यास। 3. पोषधोपवास- अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने के हेतु यथाविधि आहार,
अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा 4. अतिथि-संविभाग- जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित
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संयमी साधक या साधर्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी
भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। .
इनके पालने से दैनिक जीवन में आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन हो जाता है। परिसीमन के निम्न सूत्र हैं(क) इच्छा परिमाण
__ महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर आवश्यकताओं को मर्यादित कर दिया। सिद्धान्तानुसार समतावादी समाज-रचना में यह आवश्यक हो गया कि आवश्यकता से
अधिक वस्तुओं का संचय न करें। मनुष्य की इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं और लाभ के साथ ही लोभ के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है, क्योंकि चाँदी-सोने के कैलाश पर्वत भी व्यक्ति को प्राप्त हो जाएँ, तब भी उसकी इच्छा पूरी नहीं हो सकतीं। अत: इच्छा का नियमन आवश्यक है। इस दृष्टि से श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाण या इच्छा परिमाण व्रत की व्यवस्था की गयी है। अतः मर्यादा से व्यक्ति अनावश्यक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है। सांसारिक पदार्थों का परिसीमन जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए किया गया है, वे हैं- 1. क्षेत्र (खेत आदि भूमि), 2. हिरण्य (चाँदी), 3. वास्तु (निवास योग्य स्थान), 4. सुवर्ण (सोना), 5. धन (अन्य मूल्यवान पदार्थ) (ढले हुए या घी, गुड़ आदि), 6 धान्य (गेहूँ, चावल, तिल आदि), 7. द्विपद (दो पैर वाले), 8 चतुष्पद (चार पैर वाले), 9. कुप्य (वस्त्र, पात्र, औषधि आदि)। (ख) दिक्परिमाण व्रत
भगवान् महावीर का दूसरा सूत्र है- दिक्परिमाणव्रत। विभिन्न दिशाओं में आनेजाने के सम्बन्ध में मर्यादा या निश्चय करना कि अमुक दिशा में इतनी दूरी से अधिक नहीं जाऊँगा। इस प्रकार की मर्यादा से वृत्तियों के संकोच के साथ-साथ मन की चंचलता समाप्त होती है तथा अनावश्यक लाभ अथवा संग्रह के अवसरों पर स्वैच्छिक रोक लगती है। क्षेत्र सीमा का अतिक्रमण करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है। अतः इस व्रत के पालन करने से दूसरे के अधिकार क्षेत्र में उपनिवेश बसा कर लाभ कमाने की या शोषण करने की वृत्ति से बचाव होता है । इस प्रकार के व्रतों से हम अपनी
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आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन कर समतावादी समाज-रचना में सहयोग कर सकते हैं। (ग) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत__उपभोग-परिभोग परिमाण-व्रत श्रावकों का एक अन्य व्रत है। दिक्परिमाणव्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर तथा वहाँ की वस्तुओं से निवृत्ति हो जाती है, किन्तु मर्यादित क्षेत्र के अन्दर और वहाँ की वस्तुओं के उपभोग (एक बार उपभोग), परिभोग (बारबार उपभोग) में भी अनावश्यक लाभ और संग्रह की वृत्ति न हो, इसके लिए इस व्रत का विधान है। जैन आगम में वर्णित इस व्रत की मर्यादा का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति का जीवन सादगीपूर्ण हो और वह स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरों को भी जीवित रहने के अवसर और साधन प्रदान कर सकें। व्यर्थ के संग्रह और लोभ से निवृत्ति के लिए इन व्रतों का विशेष महत्त्व है। (घ) देशावकाशिक व्रत
दिक्परिमाण एवं उपभोग-परिभोग परिमाण के साथ-साथ देशावकाशिक व्रत का भी विधान श्रावक के लिए किया गया है, जिसके अन्तर्गत दिन-प्रतिदिन उपभोगपरिभोग एवं दिकपरिमाण व्रत का और भी अधिक परिसीमन करने का उल्लेख किया गया है अर्थात् एक दिन-रात के लिए उस मर्यादा को कभी घटा देना, आवागमन के क्षेत्र एवं भोगोपभोग्य पदार्थों की मर्यादा कम कर देना, इस व्रत की व्यवस्था में है। श्रावक के लिए देशावकाशिक व्रत में 14 विषयों का चिन्तन कर प्रतिदिन के नियमों में मर्यादा का परिसीमन किया गया है। वे चौदह विषय हैं
सचित्त दव्व विग्गई, पन्नी, ताम्बूल वत्थ कुसुमेसु। वाहक सयल विलेवण, बम्भ दिसि नाहण भत्तेसु॥1
इन नियमों से व्रत विषयक जो मर्यादा रखी जाती है, उसका संकोच होता है और आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर सीमित होती हैं।
उक्त सभी व्रतों में जिन मर्यादाओं की बात कही गयी है, वह व्यक्ति की अपनी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है। भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि आवश्यकताएँ इतनी-इतनी सीमित हों। उनका मात्र संकेत इतना था कि व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक अपनी शक्ति और सामर्थ्यवश आवश्यकताओं-इच्छाओं को परिसीमित व नियंत्रित करें, जिससे समतावादी समाज का निर्माण किया जा सके।
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5. साधन-शुद्धि पर बल
साधन-शुद्धि पर बल देकर भी समतावादी समाज की रचना करने के कुछ सूत्र महावीर ने दिए। अणुव्रतों के द्वारा व्यक्ति की प्रवृत्ति न केवल धर्म या दर्शन के क्षेत्र में विकसित होती है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अणुव्रतों का पालन समतावादी समाजरचना का हेतु अथवा साधन माना जाता है। साधन-शुद्धि में विवेक, सावधानी और जागरूकता का बड़ा महत्त्व है।
जैन दर्शन में साधन-शुद्धि पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है कि उससे व्यक्ति का चरित्र प्रभावित होता है। बुरे साधनों से एकत्रित किया हुआ धन अन्ततः व्यक्ति को दुर्व्यसनों की ओर ले जाता है और उसके पतन का कारण बनता है। तप के बारह प्रकारों में अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या और रस परित्याग भोजन से ही सम्बन्धित हैं। इसीलिए खाद्य शुद्धि-संयम प्रकारान्तर से साधन-शुद्धि के ही रूप बनते हैं।
अहिंसा की व्यावहारिकता की तरह ही सत्याणुव्रत एवं अस्तेयाणुव्रत का साधनशुद्धि के सन्दर्भ में महत्त्व है। ये विभिन्न व्रत साधन की पवित्रता के ही प्रेरक और रक्षक हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थार्जन करने में व्यक्ति को स्थूल हितों से बचना चाहिए। सत्याणुव्रत में सत्य के रक्षण और असत्य से बचाव पर बल दिया गया। व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए, कन्नालाए (कन्या के विषय में), गवालीए (गौ के विषय में), भोमालिए (भूमि के विषय में), णासावहारे (अर्थात् धरोहर के विषय में झूठ न बोलें) तथा दूडसक्खिजे (झूठी साक्षी न दें) इनका उपयोग व उपभोग न करें। अर्थ की दृष्टि से सत्याणुव्रत का पालन कोर्ट-कचहरी में झूठे दस्तावेजों में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी में नहीं हो पाता, क्योंकि इन सभी क्षेत्रों में अर्थ की प्रधानता होने से असत्य का आश्रय लिया जाता है, जिससे समाज के मूल्य ध्वस्त हो जाते हैं। इसीलिए सत्याणुव्रत समाज-रचना का आधार बन सकता है।
अस्तेय व्रत की परिपालना का भी साधन-शुद्धता की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। मन, वचन और काय द्वारा दूसरों के हकों को स्वयं हरण करना और दूसरों से हरण करवाना चोरी है। आज चोरी के साधन स्थूल से सूक्ष्म बनते जा रहे हैं। खाद्य वस्तुओं में मिलावट करना, झूठा जमा-खर्च बताना, जमाखोरी द्वारा वस्तुओं की कीमत घटा या बढ़ा देना, ये सभी कर्म चोरी के हैं। इन सभी सूक्ष्म तरीकों की चौर्यवृत्ति के कारण ही मुद्रा-स्फीति का इतना प्रसार है और विश्व की अर्थव्यवस्था उससे प्रभावित हो रही है। अतः अर्थ व्यवस्था संतुलन के लिए आजीविका के जितने भी साधन हैं और पूंजी के
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जितने भी स्रोत हैं, उनका और पवित्र होना आवश्यक है, तभी हम समतावादी समाज का निर्माण कर सकते हैं। __इसी सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने आजीविकोपार्जन के उन कार्यों का निषेध किया है, जिनसे पापवृत्ति बढ़ती है। वे कार्य कर्मादान कहे गये हैं। अतः साधन-शुद्धि के अभाव में इन कर्मादानों को लोक में निन्द्य बताया गया है। इनको करने से सामाजिक प्रतिष्ठा भी समाप्त होती है। कुछ कर्मादान हैं, जैसे -
1. इंगालकर्म (जंगल जलाना)। 2. रसवाणिज्जे (शराब आदि मादक पदार्थों का व्यापार करना)। 3. विसवाणिज्ज (अफीम आदि का व्यापार)। 4. केसवाणिज्जे (सुन्दर केशों वाली स्त्रियों का क्रय-विक्रय)। 5. दवग्गिदावणियाकमेन (वन जलाना)।
6. असईजणणेसाणयाकम्मे (असामाजिक तत्त्वों का पोषण करना आदि।) 6. अर्जन का विसर्जन -
अर्जन का विसर्जन नामक सिद्धान्त को जैनदर्शन में स्वीकार्य दान एवं त्याग तथा संविभाग के साथ जोड़ सकते हैं। महावीर ने अर्जन के साथ-साथ विसर्जन की बात कही। अर्जन का विसर्जन तभी हो सकता है, जब हम अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित एवं मर्यादित कर लेते हैं। स्वैच्छिक परिसीमन के साथ ही अर्जन का विसर्जन लगा हुआ है। उपासकदशांग सूत्र में दस आदर्श श्रावकों का वर्णन है, जिसमें आनन्द, मन्दिनीपिता और सालिहीपिता की सम्पत्ति का विस्तृत वर्णन आता है। इससे यह स्पष्ट है कि महावीर ने कभी गरीबी का समर्थन नहीं किया। उनका प्रहार या चिन्तन धन के प्रति रही हुई मूर्छावृत्ति पर है। वे व्यक्ति को निष्क्रिय या अकर्मण्य बनने को नहीं कहते, पर उनका बल अर्जित सम्पत्ति को दूसरों में बांटने पर है। उनका स्पष्ट उद्घोष है - असंविभागी ण हु तस्स मोक्खो अर्थात् जो अपने प्राप्त को दूसरों में बाँटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती। अर्जन के विसर्जन का यह भाव उदार और संवेदनशील व्यक्ति के हृदय में ही जागृत हो सकता है।
भगवतीसूत्र में तुंगियानगरी के श्रावकों का उल्लेख मिलता है, जिनके घरों के द्वार अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। अतिथियों में साधुओं के अतिरिक्त जरूरतमंद लोगों का भी समावेश है।
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जैनदर्शन में दान और त्याग जैसी जनकल्याणकारी वृत्तियों का विशेष महत्त्व है। आवश्यकता से अधिक संचय न करना और मर्यादा से अधिक जरूरतमंद लोगों में वितरित कर देने की भावना समाज के प्रति कर्त्तव्य व दायित्व बोध के साथ-साथ जनतांत्रिक समाजवादी शासन व्यवस्था को जन्म देना कहा जा सकता है । दान का उद्देश्य समाज में ऊँच-नीच कायम करना नहीं, वरन् जीवन-रक्षा के लिए आवश्यक वस्तुओं का सम-वितरण करना है। दान केवल अर्थ दान तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान तथा अभयदान इन रूपों में भी दान को जैन दृष्टिकोण से समझाया गया है। अतः अर्थ का अर्जन के साथ-साथ विसर्जन करके समाज को नया रूप दिया जा सकता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में जिन आर्थिक तत्त्वों का गुम्फन किया गया है, उनकी आज के सन्दर्भ में बड़ी प्रासंगिकता है और धर्म तथा अर्थ की चेतना परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे की पूरक है।
सन्दर्भ-सूची 1. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते- आचारांगसूत्र, 5/3/45 2. मूलाचार 7/521 3. प्रवचनसार 1/84 4. मोहक्खोहविहीणो परिमाणो अप्पणो हु समो।- प्रवचनसार 1/7 5. कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ --उत्तराध्ययनसूत्र 25/33 6. समणसुतं-86 7. दशवैकालिक 1/1 8. आचारांगसूत्र 9. इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ।।9-48- उत्तराध्ययनसूत्र 9/48 10. सुवण्णरूपस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स ण तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया॥ उत्तराध्ययनसूत्र 9/48 11. 1. सचित्तवस्तु, 2. द्रव्य, 3. विगय, 4. जूते, 5. पान, 6. वस्त्र, 7. पुष्प, 8. वाहन, 9. शयन, 10. विलेपन, 11. ब्रह्मचर्य, 12. दिशा, 13. स्नान, 14. भोजन।
प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं- 341 306 (राजस्थान)
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जैन अर्द्धमागधी आगमों में निहित गणित
डॉ. अनुपम जैन
जैन-धर्म विश्व का प्राचीनतम जीवित धर्म है। यद्यपि जैन परम्परा इसे अनादि निधन प्राकृतिक धर्म मानती है तथापि इसका उपलब्ध साहित्य 2500 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। हमारे पास उपलब्ध जैन साहित्य चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर (599-527 ई. पू.) के बाद का है। ___ जैन मान्यतानुसार तीर्थंकर, जिन्हें अर्हत् संज्ञा भी दी जाती है, अपने अनंत ज्ञान के आलोक में विश्व दर्शन का दिव्य ध्वनि के रूप में सत्य को उद्भासित करते हैं एवं गणधर उसे सूत्र रूप में गूंथते हैं। यह सूत्र रूप में निबद्ध ज्ञान राशि ही 'आगम' नाम से जानी जाती है। प्रकारान्तर से आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम की संज्ञा दी जाती है।
जैन-आगम साहित्य भारतीय साहित्य की अनमोल निधि, अनुपम उपलब्धि एवं ज्ञान का अक्षय स्रोत है। भगवान महावीर अथवा उनकी शिष्य परम्परा केवली, श्रुत केवली आदि विशिष्ट ज्ञान के धारी आचार्यों द्वारा रचित/ संकलित (परम्परित ज्ञान के आधार पर) साहित्य को आगम की श्रेणी में रखा जाता है। जैन मान्यता के अनुसार उनका समस्त आगम साहित्य भगवान महावीर के उपदेशों के आधार पर उनके परम्परानुवर्ती शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। अधिकांश आगम ग्रन्थों की भाषा प्राकृत है किन्तु वे इसकी दो भिन्न शैलियों शौरसेनी एवं अर्द्धमागधी में विभाजित हैं। दिगम्बर परम्परा के आगमों की भाषा शौरसेनी प्राकृत तथा श्वेताम्बर परम्परा के आगमों की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है।
बहुश्रुत भारतीय गणितज्ञ आचार्य महावीर (814-877 ई.) ने गणितसार संग्रह में लिखा है -
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तीर्थकृभ्यः कृतार्थेभ्यः पूज्येभ्यो जगदीश्वरैः। तेषां शिष्यप्रशिष्येभ्यः प्रसिद्धाद्दयरूपर्वतः॥7 जलधेरिव रत्नानि पाषाणादिव काञ्चनम्। शुक्तेर्मुक्ताफलानीव संख्याज्ञान महोदधेः॥18 किंचिदुद्धृत्य तत्सारं वक्ष्येऽहं मतिशक्तितः। अल्पं ग्रन्थमनल्पार्थं गणितं सारसंग्रहम्॥
इससे स्पष्ट है कि वे गणितसार संग्रह में परम्परित ज्ञान के मात्र एक अंश को ही प्रस्तुत कर सकते हैं। यह जैनागमों में निहित पारस्परिक गणितीय ज्ञान की विशदता को भी स्पष्ट करता है। उन्होंने तो यह भी लिखा है -
बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे। यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन बिना न हि ॥6
अर्थात् अधिक प्रलाप करने से क्या फायदा? तीन लोक में जितनी भी चराचर वस्तुएं हैं वे गणित के बिना संभव नहीं है।
प्रस्तुत शोध पत्र में हम स्वयं को प्राकृत की अर्द्धमागधी शैली में निबद्ध जैनागमों एवं उसकी टीकाओं तक सीमित कर रहें हैं। सर्वप्रथम हम अर्द्धमागधी आगमों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।
भगवान महावीर के उपदेशों को परिवर्ती शिष्यों ने श्रुतरूप में कंठस्थ रखा, किन्तु धीरे-धीरे उनकी स्मृति क्षय होने लगी। तब आगमों के संकलन के लिए निम्न पांच वाचनाएं (संगोष्ठियाँ) हुई :
स्थान
काल
वाचना प्रमुख 1. पाटिल पुत्र
ई. पू. 350 लगभग 2. कुमारी पर्वत (उड़ीसा) ई. पू. दूसरी शताब्दी 3. मथुरा
300-313 ई.
स्कन्दलाचार्य 4. वल्लभी (सौराष्ट्र) 300-313 ई.
नागार्जुन 5. वल्लभी (सौराष्ट्र) 454-456 ई. देवर्द्धिगण क्षमाश्रमण वर्तमान में उपलब्ध आगम साहित्य पाँचवीं वाचना का प्रतिफल है। किन्तु इनको
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इस काल की कृति मानना भ्रांति होगी। पाँचवीं शताब्दी में तो मात्र परस्पर बैठकर अपने-अपने कंठस्थ पाठ को व्यवस्थित रूप से लिखा गया था, ज्ञान तो अत्यंत प्राचीनकाल से चला आ रहा था। Winter Rutz के शब्दों में "यद्यपि स्वयं जैनों की परम्परा उनके आगमों के बहुत प्राचीन होने के पक्ष में नहीं है तथापि कम से कम उनके कुछ भागों को अपेक्षाकृत प्राचीन काल का मानने में और यह मान लेने में कि देवर्द्धिगणी ने अंशतः प्राचीन प्रतियों की सहायता से और अंशतः मौखिक परम्परा के आधार पर आगमों को संकलित किया, पर्याप्त कारण है।''3
वस्तुतः आगम साहित्य में निहित गणितीय तत्त्व तो भगवान महावीर के उपदेशों में ही निहित थे। वाचनाकारों का लक्ष्य गणितीय विषयों का उद्घाटन एवं प्रतिस्थापन कदापि नहीं था, ये विषय तो आध्यात्मिक विवेचनाओं से अविभाज्य रूप से सम्बद्ध होने के कारण श्रुत-ज्ञान के साथ ही स्वाभाविक रूप से इन ग्रन्थों में आये हैं। साम्प्रदायिक मतभेद के कारण यदि किंचित परिवर्तन, परिवर्द्धन भी इन आगमों में किये गये हों तो भी गणितीय तत्त्व इनसे निश्चित रूप से अप्रभावित रहे होंगे। इसलिए दत्त, कापडिया ने भगवती सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों को ईसा पूर्व का माना है।
जैन शास्त्रों में जिन बहत्तर कलाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें सर्वप्रथम स्थान लेख का एवं दूसरा गणित का है तथापि आगमों में प्रायः इन कलाओं को "लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ" अर्थात् लेखादिक किन्तु गणित प्रधान कहा गया है। मात्र इतना ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय के विषयानुसार विभाजन के क्रम में उसे चार अनुयोगों में निम्न प्रकार विभाजित किया जाता है - 1. धर्मकथानुयोग- तीर्थंकरों का जीवन, पूर्वभव एवं धार्मिक कथाओं से सम्बद्ध
साहित्य। 2. चरण-करणानुयोग- आचार एवं गणित विषयक साहित्य। 3. गणितानुयोग- खगोल विषयक साहित्य। 4. द्रव्यानुयोग- अध्यात्म, न्याय, कर्म एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य ।
उक्त विभाजन से स्पष्ट है कि जैनधर्म में गणित को अतिविशिष्ट स्थान दिया है। इस विभाजन के अन्तर्गत गणितानुयोग तथा चरण-करणानुयोग के अन्तर्गत करणानुयोग के ग्रंथ उपयोगी हैं। श्वेताम्बर जैन मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने अनुयोगद्वार (विषयवार) संकलन कर गणितज्ञों के लिए काम बहुत आसान कर दिया है।
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चतुर्थ अंग भगवती सूत्र के अनुसार संख्यान या अंकों के विज्ञान का ज्ञान जैन साधुओं की एक प्राथमिक आवश्यकता थी।
यहां सब अंग-उपांगों की सूची प्रस्तुत हैं। जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में 11 अंगों एवं 12 उपांगों सहित निम्नांकित सूची के ग्रन्थों को आगम की मान्यता प्राप्त है
अंग 1. आचारांग 2. सूत्रकृतांग 3. स्थानांग (ठाणं) 4. समवायांग 5. भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) 6. ज्ञाताधर्म कथांग 7. उपासक दशांग 8. अन्तकृत दशांग 9. अनुत्तरोपपातिक दशांग 10. प्रश्न व्याकरणांग 11. विपाकसूत्र
उपांग 1. औपपातिक 2. राजप्रश्नीय 3. जीवाभिगम 4. प्रज्ञापना 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. सूर्य प्रज्ञप्ति 7. चन्द्र प्रज्ञप्ति 8. निरयावलिया 9. कल्पावंतसिका 10. पुष्पिका 11. पुष्प चूलिका 12. वृष्णिदशा
__ मूल सूत्र
छेद सूत्र 1. आवश्यक सूत्र
1. निशीथ 2. दशवैकालिक सूत्र
2. महानिशीथ 3. उत्तराध्ययन सूत्र
3. वृहत्कल्प 4. अनुयोगद्वार सूत्र
4. व्यवहार 5. पिण्डनियुक्ति
5. दशाश्रुतस्कन्ध 6. ओघनियुक्ति
6. पंच कल्प इसके अतिरिक्त पइन्ना शीर्षक के अन्तर्गत 10 अन्य ग्रन्थ भी हैं, जिन्हें मिलाकर कुल 45 आगम होते हैं। कतिपय अन्य विचारधारा के व्यक्ति 39 अन्य ग्रंथों को आगमों
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की श्रेणी में रखकर कुल 84 ग्रन्थों को आगम की संज्ञा देते हैं। जैन धर्म की तेरापंथ (श्वेताम्बर) परम्परा 11 अंग, 12 उपांग, 5 मूल सूत्र एवं 4 छेद सूत्रों (कुल 32) को ही प्रामाणिक मानती है। किन्तु इनकी प्रमाणिकता अथवा अप्रमाणिकता हमारे विवाद का विषय नहीं हैं, अत: हम इस विषय को यहीं छोड़ देते हैं। इतना निश्चित है कि उपरोक्त ग्रंथ अर्द्धमागधी भाषा के श्रेष्ठ ग्रंथ हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान की अनेक विधाओं के साथ ही गणित सम्बन्धी विपुल सामग्री निहित है। जैन आगमों में भी चिह्नाकित आगम गणितीय दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं। __जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग (ठाणं) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अंग साहित्य में यह तृतीय स्थान पर आता है। मूल रूप से लगभग 300 ई. पू. में सृजित एवं 5वीं श.ई. में अपने वर्तमान रूप में संकलित इस अंग के दसवें अध्याय में निहित 100 वीं गाथा गणितज्ञों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस गाथा से हमें गणित के अन्तर्गत अध्ययन के विषयों की जानकारी मिलती है। परोक्ष रूप से यह माना जा सकता है कि ये विषय आगम में भी उपलब्ध होंगे, क्योंकि तीर्थंकर महावीर को संख्या ज्ञान के संकलन मात्र है। स्थानांग सूत्र में उपलब्ध यह गाथा स्थानांग के विविध मुद्रित संस्करणों में निम्न प्रकार पाई जाती है
दस विघे संखाणे पणत्ते तं जहापरिकम्म ववहारों रज्जु रासी कलासवण्णे य। जावंतावति वग्गो धणो य (त) तह वग्गवग्गो वि॥ कप्पो प. (त)......1
उपर्युक्त रूप के अतिरिक्त कई गणित इतिहासज्ञों ने इसे निम्न रूप में भी उद्धृत किया है
परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी कलासवन्ने (कलासवण्णे) य। जावंतावति वग्गो धनो ततह वग्ग वग्गो विकल्पो त ॥ .........2
उक्त रूप में गाथा को दत्त एवं उपाध्याय ने उद्धृत किया है जबकि कापडिया ने इसे निम्न रूप में उद्धृत किया है
परिकम्म 1 ववहारो 2 रज्जु 3 रासी 4. कलासवन्ने 5 य। जावंतावति 6 वग्गो 7 घणो 8 ततह वग्गो 9 विकप्पो त ॥ ............ ठाण12 की 1 की संस्कृत छाया निम्न दी गई हैपरिकर्म व्यवहार रज्जु राशि कलासवर्ण च। यावत् तावत् इति वर्ग धनश्च तथा वर्गवगोपि॥ कल्पश्च ..........4
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वर्ग
स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि 11वीं श.ई. द्वारा की गई। उन्होंने स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट किया1. परिकम्म
संकलन आदि 2. ववहारो
श्रेणी व्यवहार या पाटीगणित 3. रज्जु
समतल ज्यामिति रासी
अन्नो की ढेरी कलासवण्णे
भिन्न जावत् तावत् प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन
वग्गो 8. घणो
घन 9. वग्गवग्गो
चतुर्थ घात 10. कप्पो
क्रकचिका व्यवहार दत्त13 (1929) ने लगभग 900 वर्षों के उपरांत उपर्युक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। यद्यपि दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे, तथापि व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत होती है। उन्होंने दस शब्दों की व्याख्या क्रमशः निम्न प्रकार दी है
1. अंक गणित के परिकर्म 2. अंक गणित के व्यवहार 3. रेखागणित
4. राशियों का आयतन आदि निकालना 5. भिन्न
6. सरल समीकरण 7. वर्ग समीकरण
8. घन समीकरण 9. चतुर्थघात समीकरण 10. विकल्प गणित या क्रमचय-संचय
दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापड़िया (1937) ने इस विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक्त सामग्री एवं प्राचीन जैन गणितीय ग्रंथों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखते हुए लिखा है कि :
It is extremely difficult to reconcile these two views specially when we
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have at present neither any acess to a commentry prior to the one mentioned above nor to any mathematicale works of Jaina authorship which is earlier to Ganitasara samgraha. So under these circumstances. I shall be excused if I reserve this matter for further research.14 ___आयंगर (1967)15 उपाध्याय (1971)16 अग्रवाल (1972)7 जैन लक्ष्मीचन्द्र (1980)18 ने अपनी कृतियों/ लेखों में इस विषय का व्यापक ऊहापोह किया है। स्थानांग सूत्र के विगत दो-तीन दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में यह विषय स्वाभाविक रूप से आया है। किन्तु सभी (सटीक संस्करणों) में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है । जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में तीन पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परम्परानुरूप ही है। संलग्न सारणी क्रमांक-1 में मैंने इस गाथा के दसों विषयों का पारम्परिक अर्थ दत्त का दृष्टिकोण तथा आधुनिक सन्दर्भ में उपयुक्त अर्थ प्रदर्शित किया है
इस विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य गाथाओं का उल्लेख भी आवश्यक है। आगम ग्रंथों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक (9 वीं श.ई.) ने सूत्रकृतांग की टीका में पोंडरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उघृत की है। गाथा निम्नवत् है :
परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे (सवन्ने ) य। (पुद्गल) जावं तावं घणे य घणे वग्ग वग्गवग्गे य।" ...... टीका के सम्पादक महोदय ने उपर्युक्त गाथा की संस्कृत छाया निम्न प्रकार की है। परिकम्मं रज्जु राशिः व्यवहारम्तया कलासपर्णश्च। पुद्गला: यावत्तावत् भवन्ति घनं घनूमलं वर्गः वर्गमूलं। ......
ये स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या दस ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पोत के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है अर्थात् यहा पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं। शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं।
संस्कृत छाया को देखने से स्पष्ट है कि गणित अध्ययन के विषय 11 हैं अर्थात् परिकर्म, व्यवहार, रज्जु, राशि, कलासवर्ण, पुद्गल, यावत्, तावत, घन, घनमूल, वर्ग एवं वर्गमूल । बोस ने अपनी पुस्तक में उपर्युक्त गाथा (6) को उद्धृत किया है किन्तु उसके आधार पर नीचे जो विषयों की सूची बनायी गयी है, उसमें पुद्गल को हटाकर विकल्प
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गणित को सम्मिलित कर दिया है22 अथवा यह कहा जाये कि स्थानांग की गाथा के विषयों को दे दिया है। इसका क्या कारण है ? संभवत: उद्धृत करने की त्रुटि है।
पुनः दृष्टव्य है कि मूल गाथा (5) में भी कुछ ऐसा नहीं है जो मूल शब्द को ध्वनित करता हो। दत्त ने भी लिखा है
There is nothing in the either form which could be informed a reference to roots (mula) Above all by that interpretation, he has made the number of topics for discussion to be eleven against the express injuction of the conanical works that they are all together ten. So we shall reject the rendering of the verse (sanskrit Version).
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना जाये? इस सन्दर्भ में दत्त महोदय ने तो स्पष्ट लिखा है कि- Pudgals as a topic for discussion in mathematics is meaningless.
अर्थात् पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय स्वीकार करना निरर्थक है। किन्तु विचारणीय यह है कि निष्कर्ष आपके द्वारा तब दिया गया था जब कर्म सिद्धान्त का गणित प्रकाश में नहीं आया था। उस समय तक Relativity के सन्दर्भ में जैनाचार्यों के प्रयास भी प्रकाशित नहीं हुये थे। आज परिवर्तित स्थिति में यह निष्कर्ष इतना सुगमता से गले नहीं उतरता, क्योंकि असंख्यात विषयक गणित, राशि गणित (Set theory) आदि का मूल तो पुद्गल ही है। एक तथ्य यह भी है कि शीलांक ने भी तो इसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से ही उद्धृत किया होगा। लेकिन समस्या यह है कि पुद्गल को गणित का विषय स्वीकार करने पर विकल्प छूट जाता है जबकि विकल्प तो अत्यधिक एवं निर्विकल्प रूप से जैन ग्रंथों में आता है। यहाँ हमें वृहत्कल्प भाष्य की एक पंक्ति कुछ मदद करती है- "भंग गणिताइ गमिकं''23 ।
मलयगिरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि भंग (विकल्प) एवं गणित अलग-अलग है।24
संक्षेप में यह विषय विचारणीय है एवं अभी यह निर्णय करना उपयुक्त नहीं है कि पुद्गल को गणितीय अध्ययन का विषय किया जाये अथवा नहीं।
स्थानांग सूत्र के ही चतुर्थ अध्याय में एतद्विषयक एक अन्य गाथा प्राप्त होती हैचउविधि संरवाणे पण्णत्ते तं जहा। परिकम्म ववहारे वज्जु रासी॥25 इस गाथा पर अद्यावधि किसी ने ध्यान नहीं दिया है। एक ही ग्रन्थ में दो प्रकार के
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उल्लेख क्यों हैं? क्या संख्यान के चार प्रकार पिछले पृष्ठ पर उद्धृत दत्त के निष्कर्ष के प्रतिकूल हैं ? क्या यहाँ संख्यान के प्रकार कोई विशेष गुण रखते हैं ? इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है।
मैं आचार्य श्री तुलसी जी के सम्मुख 3-6 नवम्बर, 1986 को लाडनूँ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या संगोष्ठी में इस विषय की विस्तार से चर्चा की थी एवं मेरा शोध पत्र 'तुलसी प्रज्ञा' के दो अंकों में प्रकाशित हुआ था, 26 जिसमें इन दसों विषयों की विवेचना हैं
द्रष्टव्य
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जैन आगमों में गणितीय सामग्री के अध्ययन के क्रम में अब तक अनेक स्फुट प्रयास हुये हैं जिनकी सूची निम्नवत् है । इसके हर शोध पत्र एवं पुस्तक में कुछ न कुछ नया है किन्तु कोई भी पूर्ण नहीं हैं ।
B.B. Dutt
1929
The Jaina School of Mathematics, B.C.M.S. (Calcutta ), pp. 115-143
B.B. Dutt & A.N. Singh 1935-38 History of Hindu Mathematics 2 vols. Motital Banarasi Das, Reprited combibed Edition. Asia Publishing House, 196, Reprinted mittal Publication, Delhi, 2001
H.R. Kapadia
ब. ल. उपाध्याय
1987
मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल 1972
अनुपम जैन
1937
1980
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006
Introducion of Ganita Tilaka Published with Ganita Tilaka of Simha Tilaksuri, Gaikwad Oriental Seies, Baroda, pp. IV-LXXVIII
प्राचीन भारतीयय गणित, दिल्ली
गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, शोध प्रबन्ध आगरा वि. वि.,
आगरा
अर्द्धमागधी आगमों एवं उनकी टीकाओं में निहित गणितीय सिद्धान्त अन्तर्गत गणित के विकास में जैनाचार्यों का योगदान M. Phil योजना का विवरण, मेरठ वि. वि. मेरठ, पृ. 36-70
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लक्ष्मीचन्द्र जैन
अनुपम जैन
अनुपम जैन
लक्ष्मीचन्द्र जैन
R.C. Gupta
राधाचरण गुप्त
Parmeshvar Jha
अनुपम जैन
अनुपम जैन
22
1980
1985-86 जैन गणितीय साहित्य, तुलसी प्रज्ञा (लाडनूँ) 11(3)पृ. 3-16, 12 (2), पृ. 36-46, पुनर्मुद्रित अर्हत् वचन ( इन्दौर), 1 (1) पृ. 19–40
1986-87 जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय, तुलसी प्रज्ञा (लाडनूँ), 12 (4) पृ. 57–65, 13 (1), पृ. 37-43 गणितानुयोग प्रस्तावना, अन्तर्गत गणितानुयोग संकलन - मुनि कन्हैयालाल कमल, अहमदाबाद, पृ. 976
1986
1986
1987
Contribution of Jainacaryas to Mathematies and Astronomy, Arhat Vacana (indore). 1 ( 1 ) pp. 163-172 गणित के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, मेरठ, वि. वि. मेरठ में प्रस्तुत Ph. D. शोध प्रबन्ध
जैन आगमों में गणित, जैन भारती, 48 (9), पृ. 14-21
हमने जैन विश्वभारती संस्थान के सहयोग से अर्द्धमागधी आगमों में निहित गणितीय
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आगमों में गणितीय सामग्री तथा उनका मूल्यांकन, तुलसी प्रज्ञा (लाडनूँ), 6 (9), T. 35-69
1988
1992
2000
Jinabhadra Gani and Segment of a Circle between Two Parallel Chords, Ganita Bharati (Delhi) 7 (1-4). p. 2526
जिनभद्रगणि के एक गणितीय सूत्र का रहस्य, आस्था एवं चिंतन, (दिल्ली) खण्ड जैन प्राच्य विद्यायें, पृ. 60-62
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सामग्री के अध्ययन की योजना बनाई है एवं इस पर काम चल रहा है। इसके तत्काल बाद शौरसेनी प्राकृत साहित्य में निहित गणित तथा उसके बाद जैन आगमेतर साहित्य में उपलब्ध गणितीय विवेचनों को संकलित किया जाना प्रस्तावित है। आगमेतर साहित्य के अन्तर्गत हम आचार्य श्रीधर, महावीर, कुमुदेन्दु, श्रीपति, सिंहतिलक सूरि, ठक्कर फेरू, राजादित्य, अनन्तपाल, महिमोदय, तेजसिंह सूरि, हेमराज आदि जैन आचार्यों एवं विद्वानों के कृतित्व में से गणितीय अभिरुचि की सामग्री संकलित करेंगे। यह हमारा संकलन एवं विश्लेषण अन्ततोगत्वा जैन परम्परा में गणितीय विचारों का विकास शीर्षक महत्त्वाकांक्षी परियोजना में सहायक होगा।
मेरे मन में काफी दिनों में यह परिकल्पना हैं कि Development of Mathematical Thoughts in Jainism शीर्षक सर्वांगपूर्ण पुस्तक का सृजन किया जाये, जिससे विश्व गणितीय इतिहास से जैन गणित के गौरव को सक्षमता के साथ प्रतिस्थापित किया जा सके।
सन्दर्भ :1. गणितसार संग्रह, मू. ले- महावीराचार्य, कन्नड़ अनुवाद सहित सम्पादित डॉ. पद्मावथम्मा,
होम्बुज जैन मठ, हुमचा (कर्नाटक), 2000, अध्याय-1, गाथा 17-19 2. वही, अध्याय-1, गाथा- 16 3. Winternitz, History of Indian Literature, book-2, pp 431-434 4. गणित सार संग्रह, हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादित प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन, जैन संस्कृति
संरक्षक संघ, शोलापुर, 1963 के अन्तर्गत ग्रंथमाला सम्पादकीय- डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने उपाध्ये।
आवश्यक कथा, श्लोक 174 6. भगवती सूत्र, सूत्र-90 7. ठाणं (स्थानांग सूत्र) सूत्र 747, 10/100 8. B. B. Dutt. The Jaina School of Mathematies, P 119. १. लक्ष्मीचन्द्र जैन, आगमों में निहित गणितीय सामग्री का मूल्यांकन पृ. 37 10. ब. ल. उपाध्याय, प्राचीन भारतीय गणित, पृ. 26 11. H.R. Kapadia, Introduction of Ganita Tilak, P, XII. 12. ठाणं, पृ. 926
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13. B. B. Dutt. The Jaina School of Mathematies, P 119-122. 14. H.R. Kapadia, Introduction of Ganita Tilak, P, XIII. 15. C.N. Srnivasiengar, The History of Ancient Indian Mathematics. pp.
25-27 16. ब. ल. उपाध्याय, प्राचीन भारतीय गणित, पृ. 26 17. मुकुट बिहारीलाल अग्रवाल-गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, पृ.
30-57 18. लक्ष्मीचन्द्र जैन, आगमों में निहित गणितीय सामग्री का मूल्यांकन, पृ. 37-41, 41 19. सूत्र कृतांग- श्रुत स्कन्ध-2, अध्याय-1 सूत्र 154 20. B. B. Dutt. The Jaina School of Mathematies, P 120 21. वही पृ. 170 22. वही पृ. 120 23. वृहत्कल्प भाष्य-143 24. H.R. Kapadia, Introduction of Ganita Tilak, P, XIII. 25. ठाणं, अध्याय-4 सूत्र 505 26. अनुपम जैन, जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय, तुलसीप्रज्ञा (लाडनूं)
12 (4) 57-65, 13 (1) 37-43, 1986, 1987
'ज्ञान छाया' डी-14, सुदामा नगर इन्दौर - 452 009
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स्वप्न-विज्ञान
समणी कुसुम प्रज्ञा
स्वप्न का मानव-जीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है। अन्य मानसिक क्रियाओं की भांति स्वप्न भी एक मानसिक क्रिया है। संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसने कभी स्वप्न न देखा हो। विज्ञान के अनुसार दृष्टिहीन व्यक्ति एवं पशु-पक्षी भी स्वप्न देखते हैं। स्वप्न मनुष्य की अव्यक्त एवं सुप्त भावनाओं के प्रतिबिम्ब हैं। मनोवैज्ञानिक क्लीटमन के अनुसार अमूर्त विचार ही स्वप्न में मूर्तिमान् रूप में प्रस्तुत होते हैं। स्वप्नावस्था में व्यक्ति देशातीत और कालातीत होकर मुक्त रूप से विचरण करता है। अतः यह निद्रावस्था का गतिशील अनुभव है। मनोवैज्ञानिक स्वप्नों को तनाव एवं अन्तर्द्वन्द्वों से मुक्ति पाने का ईश्वरीय वरदान मानते हैं। उनके अनुसार सपने में व्यक्ति जागृत अवस्था की अपेक्षा अधिक चैतन्य एवं शक्तिसम्पन्न होता है।
प्राचीन ग्रंथों में स्वप्न ज्योतिषशास्त्र का विषय रहा लेकिन आधुनिक शिक्षाप्रणाली में स्वप्न मनोविज्ञान का विषय है। आगम साहित्य में स्वप्नों को अष्टांग महानिमित्त के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। प्राचीन काल में स्वप्नविद्या आजीविका चलाने का साधन भी थी। माण्डूक्य उपनिषद् में मन की तीन अवस्थाओं का उल्लेख है, जिसमें एक अवस्था स्वप्नावस्था है। व्यवहार भाष्य में 'स्वप्न भावना' नामक ग्रंथ का उल्लेख मिलता है, जिसे चौदह वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला साधु पढ़ सकता था, आज वह ग्रंथ अनुपलब्ध है। ___यूनान और प्राचीन मिश्र में स्वप्न ईश्वरीय संदेश माने जाते थे। वहां स्वप्न के आधार पर ही भावी कार्यक्रम युद्ध आदि का निर्णय किया जाता था। हम स्वप्न क्यों देखते हैं ? उनका फल क्या होता है ? हमारे वास्तविक जीवन के संदर्भ में उनकी क्या स्थिति है ? इन प्रश्नों पर भारतीय मनीषियों ने गहराई से चिंतन किया है।
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स्वप्नः अर्थ-मीमांसा
सामान्यतया निद्रित अवस्था में जो घटना दिखलाई देती है, वह स्वप्न कहलाती है। स्वप्न प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी भावनाओं एवं वासनाओं के अनुरूप रची हुई एक विशेष सृष्टि है। जैन दर्शन के अनुसार स्वप्न द्रव्य मन का पौद्गलिक परिणमन है। केवलज्ञानी स्वप्न नहीं देखते क्योंकि उनके द्रव्य मन की प्रक्रिया नहीं होती। स्वप्न केवल समनस्क व्यक्ति ही देख सकते हैं।
भगवती सूत्र की टीका के अनुसार सोते समय विकल्प के अनुरूप जो अनुभव होता है, उसे स्वप्न कहा जाता है। स्थानांग टीका में निद्रा-विकार से जो दृश्य दिखलाई पड़ते हैं, उसे स्वप्न कहा गया है। योग वाशिष्ठ के अनुसार बाह्य ज्ञानेन्द्रियों की क्रिया के अभाव में अंदर के क्षोभ से जो ज्ञान होता है, उस अवस्था का नाम स्वप्न है।
आक्रान्तेन्द्रियछिद्रो, यतः क्षुब्धोऽन्तरेव सः। संविदानुभवत्याशु, स स्वप्न इति कथ्यते॥
अरस्तू के अनुसार सपने किसी भी पराभौतिक अस्तित्वों की देन नहीं है। ये मानवीय आत्मा के नियमों के अनुसार संचालित होते हैं। एडलर का मंतव्य है कि स्वप्न का जन्म हमारे दैनिक जीवन की उलझी समस्याओं से होता है। ये हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को साकार करते हैं। जुंग का मानना है कि स्वप्नों का कार्य मनोवैज्ञानिक संतुलन कायम करना है। स्वप्नों के बारे में फ्रायड का चिंतन बहुचर्चित एवं समालोच्य रहा। उसके अनुसार स्वप्न वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अचेतन मन की दमित इच्छाएं अपना रूप बदलकर चेतन मन में प्रवेश करती हैं और स्वप्न में चित्र रूप में दिखलाई पड़ती हैं। (Dream is a process through which unconscious wishes make entrance into the consciousness in a disguised form. स्वप्नों के प्रकार
सामान्यतया स्वप्नों की संख्या का निर्धारण नहीं किया जा सकता किन्तु वैशिष्ट्य के आधार पर भगवती सूत्र में पांच प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख मिलता हैं
1. यथातथ्य :- स्वप्न में जो कुछ दिखाई दे, जागने पर भी उसकदेखना तथा उसके अनुसार ही शुभाशुभ फल की प्राप्ति होना यथातथ्य स्वप्न है। टीकाकार ने इसके दो भेद किए हैं- (1) दृष्टार्थ विसंवादी, (2) फलाविसंवादी। स्वप्न में देखे दृश्य को जागृत अवस्था में देखना। जैसे स्वप्न में किसी ने हाथ में फल दिया, वैसा ही जागृत
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अवस्था में देखना, यह दृष्टार्थ विसंवादी स्वप्न है। स्वप्न के अनुसार उसका फल मिलना फलाविसंवादी स्वप्न है। जैसे स्वप्न में कोई स्वयं को हाथी या घोड़े पर आरूढ़ देखे, कालान्तर में उसे धन सम्पत्ति का लाभ होना।
2. प्रतान :- विस्तारयुक्त स्वप्न देखना प्रतान स्वप्न दर्शन है। यह यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का हो सकता है।
3. चिन्ता :- जागृत अवस्था में जिस व्यक्ति या वस्तु को देखा, स्वप्न में उसी व्यक्ति या वस्तु को देखना चिन्ता स्वप्न दर्शन है।
4. तद्विपरीत :- स्वप्न में जो वस्तु, व्यक्ति या दृश्य देखा, जागने पर उसके विपरीत वस्तु, व्यक्ति या दृश्य की प्राप्ति होना तद्विपरीत स्वप्न दर्शन है।
__ अव्यक्त :- स्वप्न में देखी वस्तु का स्पष्ट रूप से ज्ञान न होना अव्यक्त स्वप्न दर्शन है। निशीथ भाष्य में भी इन पांच प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख मिलता है। विशेषावश्यक भाष्य में स्वप्न के 9 प्रकार बताए गए हैं
1. अनुभूत - स्नान, भोजन, विलेपन आदि अनुभूत वस्तुओं का स्वप्न में दीखना। 2. दृष्ट - हाथी, घोड़े, ऊंट, बैल आदि पूर्व में दृष्ट वस्तुओं का स्वप्न में दीखना। 3. श्रुत - भूत, पिशाच, स्वर्ग, नरक आदि सुनी हुई चीजों का स्वप्न में दीखना। 4. प्रकृतिविकार - वात, पित्त आदि की न्यूनाधिकता से उत्पन्न विकार के
कारण स्वप्न दीखना। उदाहरणार्थ वात प्रकृति वाला पर्वत पर चढ़ना या आकाश में उड़ने का स्वप्न देखता है। पित्त दोष से व्यक्ति अग्निप्रवेश तथा
कफदोष से नदी स्नान आदि स्वप्न दिखाई देते हैं। 5. चिन्ता - मन-चिन्तित वस्तु का स्वप्न में दीखना। 6. देवता - किसी देव विशेष के अनुकूल या प्रतिकूल होने पर दीखने वाला
स्वप्न। 7. अणूका - प्रादेशिक सजलता के कारण आने वाला स्वप्न। 8. पुण्य - धर्मक्रिया के प्रभाव से आने वाला शुभ स्वप्न। 9. पाप - पाप के उदय से दिखाई देने वाला स्वप्न।'
तिलोयपण्णत्ति में फल के आधार पर स्वप्न के दो भेद किए हैं- 1. चिह्न स्वप्न, 2. माला स्वप्न। हाथी सिंह आदि का दर्शन चिह्न स्वप्न है, जो किसी शुभ एवं अशुभ के प्रतीक रूप हैं तथा पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाला स्वप्न माला स्वप्न है।'
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चरक संहिता में दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित एवं कल्पित-इन पांच प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख मिलता है।'
दृष्टं श्रुतानुभूतं च, प्रार्थितं कल्पितं तथा। भाविकं दोषजं चैव, स्वप्नं पंचविधं विदुः॥
रोम के विख्यात लेखक सिसरो ने ओनीरोक्रिटिका नामक पुस्तक में स्वप्न के पांच भेदों का उल्लेख किया है- 1. सांकेतिक, 2. भविष्य सूचक, 3. इच्छापूर्ति रूप, 4. दु:स्वप्न, 5. दिव्य स्वप्न।
मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य रूप से स्वप्नों का वर्गीकरण इस प्रकार किया हैगति - गति या क्रिया से सम्बन्धित स्वप्न। 35 प्रतिशत स्वप्न गति युक्त होते हैं।
इच्छापूर्ति - दमित इच्छाओं की प्रकारान्तर से पूर्ति करने वाले स्वप्न। इस प्रकार के स्वप्नों की भाषा संकेतात्मक होती है।
पुनरावर्तक - बार-बार दिखाई देने वाले स्वप्न।
चिन्ता - चिन्ता उत्पन्न करने वाले स्वप्न, जैसे-व्यापार में घाटा या प्रिय व्यक्ति का वियोग आदि।
भविष्यसूचक - भविष्य सम्बन्धी सूचना देने वाले स्वप्न। भयानक - डर या भय पैदा करने वाले स्वप्न। सामूहिक - एक ही प्रकार का स्वप्न अनेक व्यक्तियों द्वारा देखा जाना।
दण्ड - स्वप्न में दण्ड या कष्ट दिया जाना देखना। ये स्वप्न अचेतन में दण्ड भोगने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
मृत्यु - स्वप्न में परिचित व्यक्तियों या स्वयं को मृत देखना अथवा मृत व्यक्तियों को जीवित देखना।
प्रतिरोध - सामाजिक नियमों या प्रथाओं का प्रतिरोध करने वाले स्वप्न ।' शुभाशुभ स्वप्नों की संख्या
स्वप्नों की संख्या निर्धारित करना अत्यन्त कठिन है। भगवती टीका के अनुसार स्वप्न असंख्येय हो सकते हैं। स्वप्नों के फल के बारे में भारतीय ऋषि-महर्षियों ने इतना चिंतन किया कि यदि उन सबका संकलन किया जाए तो एक पूरा ग्रंथ तैयार हो सकता
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है। विशिष्ट फलाफल देने की अपेक्षा से महावीर ने 72 प्रकार के स्वप्नों का उल्लेख किया है। उनमें 42 स्वप्न जघन्य एवं अशुभ फल वाले तथा 30 स्वप्न उत्तम फल देने वाले हैं। गंधर्व, राक्षस, भूत, पिशाच, बुक्कस, महिष, सांप, ऊंट, गधा, बिल्ली, तम, दुराचारिणी स्त्री आदि 42 स्वप्न जघन्य हैं।
1. अर्हत्, 2. बुद्ध, 3. हरि, 4. कृष्ण, 5. शंभु, 6. नृप, 7. ब्रह्मा, 8. स्कन्द, 9. गणेश, 10. लक्ष्मी, 11. गौरी, 12. हाथी, 13. गाय, 14. वृषभ, 15. चन्द्र, 16. सूर्य, 17. विमान, 18. भवन, 19. अग्नि, 20. समुद्र, 21. सरोवर, 22. सिंह, 23. रत्नों का ढेर, 24. गिरि, 25. ध्वज, 26. जल से पूर्ण घट, 27. पुरीष, 28. मांस, 29. मत्स्य, 30. कल्पद्रुम, ये 30 स्वप्न महान् एवं उत्तम फल देने वाले हैं , अत: ये महास्वप्न कहलाते हैं। तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती की माताएं इन 30 स्वप्नों में 14 महास्वप्न देखती हैं। वासुदेव की माताएं चौदह स्वप्नों में सात, बलदेव की माता चार, माण्डलिक राजा या भावितात्म अणगार की माता 1 महास्वप्न देखती है।" दिगम्बर परम्परा में तीर्थंकर की माता सोलह, चक्रवर्ती की माता छह, बलदेव की माता सात स्वप्न देखती है। अग्निपुराण के 229 वें अध्याय में शुभाशुभ स्वप्नों के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है।
भगवती सूत्र में 14 ऐसे स्वप्नों का उल्लेख मिलता है, जिससे उस व्यक्ति की तद्भवगामिता का उल्लेख मिलता है। जैसे कोई व्यक्ति यदि स्वप्न में सर्व रत्नमय विमान पर आरोहण करता है, तरंगों से व्याप्त महासागर को कुशलतापूर्वक पार करता है, कुसुमित पद्मसरोवर में प्रवेश करता है, चांदी सोने एवं रत्नों के ढेर पर चढता है, काले या खेत उलझे हुए सूत को सुलझाता है तो वह उसी जन्म में मुक्त होता है।
भगवती सूत्र के अनुसार संवृत, त्यागी एवं संयमी व्यक्ति के द्वारा देखे गए स्वप्न का फल सत्य होता है। वह कभी सांसारिक लालसाओं से युक्त स्वप्न नहीं देखता। टीकाकार ने इसके दो कारण बताए हैं- 1. चित्त की निर्मलता, 2. देवता का अनुग्रह । असंयमी व्यक्ति का स्वप्न, यथार्थ भी हो सकता है और अयथार्थ भी। स्वप्न-फल की अवधि
स्वप्नों का फल मिलने के बारे में भी भारतीय मनीषियों ने पर्याप्त चिन्तन किया है। सामान्यतः रोग, शोक, चिन्ता, कामात एवं मत्त अवस्था में देखे गए स्वप्न निरर्थक होते हैं।
व्याधितेन सशोकेन, चिन्ताग्रस्तेन जंतुना। कामार्तेनाथ मत्तेन, दृष्टः स्वप्नो निरर्थकः॥
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उपनिषद् के अनुसार रात्रि के प्रथम प्रहर में देखे गए स्वप्न का फल बारह महीने में, दूसरे प्रहर में देखे स्वप्न का फल छह मास में, तीसरे प्रहर में देखे स्वप्न का फल तीन महीने से, चौथे प्रहर में देखे स्वप्न का फल पन्द्रह दिनों में तथा अरुणोदय के समय देखे स्वप्न का फल तुरन्त मिलता है। प्रात:कालीन देखे गए स्वप्न सत्य होने का एक कारण यह हो सकता है कि उस समय शरीर थकान और तनाव से मुक्त होकर नितान्त सहज अवस्था में रहता है।
शुभ स्वप्न देखकर फिर नहीं सोना चाहिए। नींद लेने से अथवा फिर अशुभ स्वप्न देखने से पूर्व दृष्ट स्वप्न का फल मंद या क्षीण हो जाता है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर शुभ स्वप्न देखने के बाद धर्म जागरण पूर्वक रात्रि बिताने का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद में स्वप्न के अनिष्ट फल को दूर करने के लिए वरुण से एक प्रार्थना की गयी है कि मित्रों ने जो स्वप्न के बारे में भयंकर बातें बताई हैं, उनसे मेरी रक्षा करो। इस प्रार्थना से स्पष्ट है कि स्वप्न के अनिष्ट फल को दूर करने के लिए देवताओं से प्रार्थना की जाती थी।
दुःस्वप्न आने पर उसके अनिष्ट फल को दूर करने के लिए ऋग्वेद में निम्न सूक्त मिलता- 'दुःस्वप्न जनित पाप से निवृत्त होता हूँ । सम्पत्ति-हीनता से दूर होता हूँ। दुःस्वप्न निवारक मंत्र को मैंने कवच के समान धारण कर लिया है, इसलिए मेरे शोकादि भाग जाएं।
रात्रेश्चतुर्षु यामेषु, दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः। मासै दशाभिः षड्भिस्त्रिभिरेकेन च क्रमात्॥ निशान्त्यघटिका युग्मे, दशाहात् फलति ध्रुवम्।
दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः, सद्यः फलति निश्चितम्॥ स्वप्न कब?
स्वप्न कब आता है, इस बारे में अनेक वैज्ञानिकों ने खोज की है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार सोने के 80 या 90 मिनिट बाद मस्तिष्क में उन्माद का संचार होता है, रासायनिक क्रियाएं प्रारंभ होती है और स्वप्न आने प्रारम्भ हो जाते हैं। गौतम के द्वारा प्रश्न पूछने पर महावीर ने कहा कि स्वप्न न जागृत अवस्था में आता है और न ही पूर्ण निद्रित ____अवस्था में ,अर्ध निद्रित अवस्था में स्वप्न आते हैं।'' जागते हुए आंखें खुली रहती हैं, चेतना चंचल रहती है, इसलिए स्वप्न नहीं आ सकते। गहरी नींद में स्नायु पूर्ण
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शिथिल हो जाते हैं, अन्तर्मन भी पूर्ण विश्राम करने लगता है, अतः उस स्थिति में स्वप्न नहीं आते। जब मन कुछ थक जाता है, आंखें बंद हो जाती हैं, बाह्य प्रवृतियां रुक जाती हैं, उस अर्द्धनिद्रित या हल्की नींद की अवस्था में स्वप्न आते हैं, चिंतातुर व्यक्ति को स्वप्न अधिक आते हैं, क्योंकि इस अवस्था में नींद अच्छी नहीं आती। कोट्याचार्य के अनुसार स्वप्न में मानसिक क्रिया चलती रहती हैं।" डॉ. क्लीटमा ने परीक्षण करके यह सिद्ध किया है कि जब व्यक्ति सपने देखता है, तब वह आधी नींद में रहता है । उस समय मस्तिष्क की तरंगें जागृत मनुष्य की तरह ही होती हैं ।
आयुर्वेद के ग्रंथ के अनुसार जब इंद्रियां अपने विषय से निवृत्त हो जाती हैं, मन शब्दादि विषयों में लीन रहता है, उस समय मनुष्य स्वप्न देखता है। 7 बौद्ध दर्शन के अनुसार बाहरी उत्तेजनाओं, आंतरिक व्याधियों, अचेतन संस्कारों और पुरानी आदतों आदि के कारण स्वप्न आते हैं। शिकागो विश्वविद्यालय के शरीरशास्त्री क्लीटमा ने परीक्षण से सिद्ध किया कि जब नींद रैपिड आई मूवमेंट होती है, तब व्यक्ति स्वप्न देखता है। यूरोप और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने खोज के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आदमी रात भर में सात-आठ घंटे की नींद के दौरान 5 से 7 तक सपने देखता है । स्वप्न क्यों ?
जैन दर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है। मनोवैज्ञानिकों ने स्वप्न आने के कारणों की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है । प्रायः मनोवैज्ञानिकों ने एक स्वर से इस बात को स्वीकृत किया है कि स्वप्न आने का प्रमुख कारण है मन का अन्तर्द्वन्द्व एवं इच्छाओं का दमन । जैन आचार्यों के अनुसार प्रकृतिगत विकार एवं देवता के अनुभाव से दृष्ट, विचारित पदार्थ स्वप्न में दिखाई देते हैं । आयुर्वेद के ग्रंथों में स्वप्न आने का मुख्य कारण हैं- शरीर में वात, पित्त एवं कफ आदि प्रकृतियों का असंतुलन ।
एडलर ने आत्म गौरव की वृत्ति का संतुष्ट न होना स्वप्न का कारण माना है। मैक्डूगल के अनुसार किसी भी मूल प्रवृत्ति का दमन या उनका परस्पर संघर्ष स्वप्न का कारण है । फ्रायड ने अतृप्त एवं दमित यौनेच्छा को स्वप्न का कारण माना है । फ्रांस के प्रख्यात शोधकर्त्ता डॉ. ऐंड्रमारी ने भी प्रयोग से इस बात की पुष्टि की है। उन्होंने एक आदमी को रात में सोने से पूर्व नमक की गिरियां खिलाईं। नमक खाने से उसे पानी पीने की अपेक्षा हुई। सपने में उसने पानी पी लिया और उसकी प्यास बुझ गई ।
वैज्ञानिकों के अनुसार मस्तिष्क के आसपास लगभग 16 करोड़ शिराओं से मिलकर
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एक मोटी पट्टी बनी हुई है, उसी पट्टी के कारण स्वप्न आते हैं। वैज्ञानिक कसाटकिन ने अनेक परीक्षणों से यह सिद्ध किया है कि जिसे हम स्वप्न कहते हैं, वह असल में मस्तिष्क की सक्रिय कोशिकाओं की बाह्य परत का ही कमाल है। यदि स्वप्न न हो तो नींद का होना असंभव या अनावश्यक हो जाता है ।
यह एक अहं प्रश्न है कि सपने आंखें देखती हैं या दिमाग ? अगर सपने आखें देखती है तो नेत्रहीन व्यक्ति सपने देख सकते हैं या नहीं ? प्रोफेसर राबर्ट ने यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के न्यूरोन्स नींद की अवस्था में आंखों के पार्श्वभाग को दुनिया की तस्वीर पलटकर दिखलाते हैं । वैज्ञानिकों की यह खोज भी आश्चर्यजनक है कि सिगरेट न पीने वालों को अधिक सपने आते हैं ।
पूर्वाभास और स्वप्न
स्वप्न अतीत की घटनाओं का ही संकेत नहीं देते, पूर्वाभास के साथ भी उनका गहरा सम्बन्ध है । मनुष्य का अचेतन मन स्वप्न के माध्यम से भविष्य को पहले ही देख लेता है। आगमों में अनागत को जानने के आठ कारणों में स्वप्न को एक कारण माना है । जोसेफ को भविष्य में आने वाले संकटों का पूर्वाभास स्वप्नों के माध्यम से हो जाता था । अरस्तू ने हजारों वर्ष पूर्व यह घोषणा की थी कि स्वप्नों के माध्यम से शारीरिक व्याधियों एवं परिवर्तनों का ज्ञान पहले ही किया जा सकता है। स्वप्न न केवल भविष्यवाणी करते हैं, अपितु अनेक सच्चाइयों को उजागर करते हैं । परामनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण की क्षमता वयस्कों की अपेक्षा बालकों में अधिक होती है। स्वप्न द्वारा भविष्य- ज्ञान की कुछ घटनाओं का यहां संकेत किया जा रहा है
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● अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन, क्लियोपैटा के प्रेमी सीजर और हेनरी तृतीय को अपनी हत्या का पूर्वाभास स्वप्न में हो गया था ।
सिलाई मशीन के खोजकर्ता एलियास हो को सुई का विचार स्वप्न में प्रतीक के माध्यम से आया ।
अमेरिका की प्रसिद्ध रेडरौक खदान का आभास स्वप्न में हुआ । विनफील्ड स्फाट स्ट्राटन को स्वप्न में देवदूत ने सोने की खान का स्थल बताया। जागने पर वैटिल पहाड़ पर उसने स्वप्न में निर्दिष्ट स्थान को खोज लिया। खुदाई करते ही उसे सोना दिखाई दिया। आज वह स्वर्ण खदान एशिया में दूसरे नम्बर पर आती है, जबकि सन् 1974 में भूगर्भशास्त्रियों ने उस स्थल का परीक्षण करके यह घोषणा की थी कि यहां केवल लाल पथरीली भूमि है।
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• सन् 1947 में एक डच आदमी ने स्वप्न में 3684 नम्बर देखे। उसने नम्बर
याद करके उस नम्बर की लाटरी खरीदी। उस लाटरी का प्रथम पुरस्कार उसे
मिल गया। गांधी जी की हत्या से पूर्व बिजनौर शहर में एक 11 वर्षीय लड़की सुधा ने 27 जनवरी को स्वप्न में देखा कि गांधी को किसी ने प्रार्थना के समय गोली मार दी है। यह बात जब उसने अपने माता-पिता को बताई तो उन्होंने उसे डांट दिया। तीन दिन बाद 30 जनवरी 1948 संध्या को रेडियो से लोगों ने महात्मा गांधी की हत्या का समाचार सुन लिया। इसी प्रकार लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु का अहसास भी स्वप्न में एक सोवियत छात्रा को हो गया था।
अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान भी स्वप्नों के आधार पर किए गए। परमाणु की संरचना को नील्स बोहर ने स्वप्न में आए प्रतीक के माध्यम से खोजा। नील्स बोहर ने स्वप्न में देखा कि वह सूरज के बीचोबीच उबलती गैसों के गर्भ में खड़ा है। सूरज के चारों ओर अंतरिक्ष के अनेक ग्रह चक्कर लगा रहे हैं। वे महीन तंतु से सूरज के साथ जुड़े हुए हैं। नील्स के देखते ही देखते गैसों का जलना शान्त हो गया और उन्होंने ठोस रूप ग्रहण कर लिया। सूरज और ग्रह टूटकर बिखर गए और नील्स आंखें मलता हुआ बिस्तर से उठकर बैठ गया। नील्स इस सपने के बारे में सोचता रहा और उसके दिमाग में एक विकल्प उठा कि सौर मंडल का यह दर्शन परमाणु रचना का भेद होना चाहिए। उसने यह खोज प्रस्तुत कर दी कि परमाणु स्वयं एक केन्द्र अथवा न्यूक्लियस है। उसके चारों ओर विद्युत्कण अर्थात् इलेक्ट्रान चक्कर लगा रहे हैं। स्वप्न के आधार पर उसने परमाणु की संरचना का सिद्धान्त खोज निकाला।
स्वप्नों के माध्यम से दैवी संकेतों का मिलना भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। ईसा से 200 वर्ष पूर्व ग्रीस देवता तथा अन्य भूमध्यीय सागर के स्थानों में लोग चिकित्सा के एस्कूलैपियस को स्वप्न प्रणेता के रूप में पूजते थे। इजिप्ट में आज भी भूत पिशाचों को भगाने या समाप्त करने के लिए स्वप्नों के द्वारा संकेत प्राप्त किए जाते हैं। इजिप्ट में अनेक ऐसे मंदिर थे, जहां स्वप्न के माध्यम से पादरी द्वारा लोग दुःखों से छुटकारा पाने के लिए आते थे। पादरी को 'मास्टर ऑफ द सिक्रेट थिंग्स' के नाम से पुकारा जाता था।
भविष्य सूचक स्वप्नों की प्रामाणिकता से प्रभावित होकर इंग्लैण्ड के विद्वानों और वैज्ञानिकों ने एक संस्था खोली- 'सोसायटी फार साइकिकल रिसर्च सेंटर' (मनोवैज्ञानिक गवेषणा समाज) इस संस्था ने अनेक ऐसे भविष्य सूचक स्वप्नों का संकलन करके उन्हें प्रयोग की कसौटी पर कसा है।
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प्रश्न उठता है कि स्वप्न में पूर्वाभास या अतीन्द्रिय क्षमता का ज्ञान सबको क्यों नहीं होता? इस प्रश्न का सामाधान वैज्ञानिक शोध का विषय है पर यह कहा जा सकता है कि स्वप्नों के माध्यम से भविष्य का पूर्वाभास अतीत की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का ज्ञान किया जा सकता है। वर्तमान में भविष्य सूचक स्वप्नों पर अनुसंधान एवं वैज्ञानिक प्रयोग करने के लिए विदेशों में अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं।
स्वप्न व्यक्ति को भाव जगत् से जोड़कर पूर्वजन्म का आभास भी करा सकते हैं। इटली के फ्लोरेंस नगर के मनश्चिकित्सक डॉ. गेस्टन ने सात-आठ वर्ष की उम्र में स्वप्न में एक मंदिर देखा, जिसके वे पुजारी थे। वैसा मंदिर उन्होंने न किसी चित्र में देखा था
और न ही वास्तविकता में। बड़े होने के बाद वे भारत आए। महाबलीपुरम् का मंदिर देखते ही उन्होंने उस मंदिर को पहचान लिया। वहां उनकी समाधि लग गयी। यह वही मंदिर था, जो उन्होंने स्वप्न में देखा था। उन्होंने पत्रकारों से कहा कि पिछले जन्म में मैं यहां का पुजारी था। स्वप्नों का प्रभाव
जैन आगमों में स्वप्नों को चित्त समाधि का एक हेतु माना है। कुछ स्वप्न ऐसे आते हैं, जिनसे उलझन सुलझ जाती है और चित्त को समाधान मिल जाता है तथा व्यक्ति का मन प्रसन्न और शरीर हल्का हो जाता है। Sleep एवं Dream के लेखक डॉ. डेविड ने भी स्वीकार किया है कि स्वप्न हमारी भावनात्मक एवं बौद्धिक समस्याओं को समाहित करते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने स्वप्न निद्रा ज्ञानालम्बनं वा 18 कहकर स्वप्न के आधार पर चित्त को स्थिर करने का उपदेश दिया है। स्वप्न से एकाग्रता एवं स्थिरता का विकास होता है। अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसिसी गणितज्ञ मारक्रिडे कद्रारसेंट हर समस्या को लेकर सो जाते थे। स्वप्न में उन्हें उसका समाधान मिल जाता था। ___डॉ. मारी ने प्रयोगों के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि सपने हमारी नींद में दखल न डालकर हमारा उपकार करते हैं। ये हमारे अवचेतन मन के सेफ्टी बाल्व हैं। दिन के व्यस्त कार्यक्रम में उत्पन्न मन के तनाव या भार को बाहर निकालने में ये सुरक्षापूर्ण उपाय हैं।' यदि किसी मनुष्य से स्वप्न देखने की क्षमता छीन ली जाए तो कालान्तर में वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाएगा। ग्रीक के प्रख्यात चिकित्साशास्त्री क्लौडियस गेलन ने स्वीकार किया है कि सर्जरी का सूक्ष्मतम ज्ञान उन्हें स्वप्न में देवता द्वारा कराया गया। मंत्र शास्त्र में ऐसे मंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनसे स्वप्न में किसी समस्या का समाधान प्राप्त किया जा सके।
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स्वप्न और साहित्य-लेखन
साहित्य लेखन के साथ भी स्वप्न का सम्बन्ध रहा है। बाणभट्ट की संसार प्रसिद्ध रचना कादम्बरी की कल्पना स्वप्न की ही देन है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गीताञ्जलि की कल्पना स्वप्न में की थी। विदेशों में अनेक विश्व प्रसिद्ध रचनाएं स्वप्नों से प्रेरणा पाकर लिखी गयीं। स्वप्नों से प्राप्त जानकारी के आधार पर कथाएं लिखने वाले कथाकार राबर्ट लूइस का नाम सबसे आगे है। डॉ. जेकल एवं मि. हाइडे आदि रोमांचक कथाएं स्वप्न के आधार पर लिखी गई हैं। 18 वीं सदी में प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका अन रेडक्लिफे ने अपने सभी उपन्यास स्वप्नों के आधार पर लिखे हैं। वह रात को गरिष्ठ भोजन खाकर सोती थी और रात्रि में देखे स्वप्नों को सुबह लिपिबद्ध कर देती थी। सरदारसती को स्वप्न में देवता जो कुछ बताते उसके आधार पर जयाचार्य ने कुछ ग्रंथों की रचना की। निद्रा के प्रकार
नींद और स्वप्न में अविनाभावी सम्बन्ध है। सघनता और हल्केपन के आधार पर जैनदर्शन में नींद के पांच भेद स्वीकार किए हैं
1. निद्रा – सामान्य नींद। 2. निद्रा निद्रा – बैठे-बैठे नींद लेना। 3. प्रचला-खड़े-खड़े नींद लेना। 4. प्रचला प्रचला-चलते हुए नींद लेना। 5. स्त्यानद्धि-इस नींद में व्यक्ति बंदरों की भांति बडी-बडी छतें लांघ लेता है
और किसी की हत्या करके वापिस अपने स्थान पर आकर सो जाता है। हरीश पांडे नामक व्यक्ति रात को उठकर कापी में रामायण की कुछ चौपाइयां लिखकर सो गया। सवेरे उठकर उसने जब कापी देखी तो वे चौपाइयां उसको बिल्कुल याद नहीं थीं। यह जड़ निद्रा स्यानद्धि के अन्तर्गत आती है।
डॉ. क्लीटमां एवं एसेरिन्स्की ने प्रयोगों के बाद नींद की दो अवस्थाओं को स्वीकार किया है
1. जिसमें आंखों की बंद पुतलियों के पीछे आंखों की गति तीव्र होती है, ऐसा लगता है मानों वे किसी दृश्य का अवलोकन कर रही हैं। (रैपिड मूवमेंट आई. ई. एम.) इसे अंग्रेजी में रेम तथा हिंदी में संक्षेप में संपुती कहा जाता है। संपुती का स्वप्न के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है।
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2. जिसमें पुतलियों की स्थिति स्थिर रहती है (नान रैपिड आई. मुवमेंट- एन. आर. ई. एम.) एन. आर. ई. एम. निद्रा में मस्तिष्क की बायोइलेक्ट्रिक क्रियाशीलता धीमी और एक रूप होती है। इसमें श्वसन की गति मंद तथा मांसपेशियों का तनाव कम होता है, आंखों की पुतलियां गतिहीन होती हैं। इस नींद में शरीर विश्राम की स्थिति में रहता है। यदि यह नींद पूरी रात न आए तो व्यक्ति को ताजगी का अनुभव नहीं होता। आर. ई. एम. निद्रा दिन की विभिन्न स्थितियों से सात्म्य करने का प्रयत्न करती है। ऐसी सूचनाओं को ग्रहण करने का अवसर देती है, जिन्हें स्वीकार करने को व्यक्ति का मानस तैयार नहीं होता। इस नींद से जगने के बाद व्यक्ति सपने का स्मरण कर उसे सविस्तार सुना सकता है। एन. आर. ई. एम. निद्रा में जगने के बाद सपने याद नहीं रहते। विशिष्ट व्यक्तियों के विशेष स्वप्न
विशेष व्यक्तियों के द्वारा देखे गए स्वप्नों का फल भी विशिष्ट होता है। तथागत बुद्ध जब बोधिसत्त्व थे, तब उन्होंने पांच विशिष्ट स्वप्न देखे थे- 1. महापर्यंक, 2. तिरिया नामक वृक्ष, 3. श्वेत कीट, 4. चार रंग बिरंगे पक्षी, 5. गोमय पर्वत पर अस्खलित चलना।” यहां कुछ ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक व्यक्तित्वों के स्वप्न एवं उनका फल प्रस्तुत किया जा रहा हैसम्राट भरत के 16 स्वप्न 1. पहाड़ पर चढ़ते हुए 23 सिंह, जिसका तात्पर्य था कि 23 तीर्थंकर तक साधु धर्म में
दृढ रहेंगे। उसके बाद उनकी केवल गूंज सुनाई देगी। 2. एक सिंह के पीछे अनेक हिरणों का अनुसरण- यह स्वप्न इस बात का द्योतक है
कि चौबीसवें तीर्थंकर के पीछे उनके साधु हिरण की तरह होंगे, जिनमें पौरुष कम
होगा वे केवल पदचिह्नों का अनुसरण करेंगे। पालन क्षमता धीरे-धीरे घटती जाएगी। 3. एक अश्व जो भार से दबा जा रहा था, जिसका तात्पर्य था कि पंचम आरे के मुनि
शक्ति और सत्ता के प्रभाव से दबते चले जाएंगे। 4. बकरियों के समूह द्वारा सूखी पत्तियां खाना, जिसका अर्थ था अतिवृष्टि-अनादृष्टि
के कारण पशु अभक्ष्य खाएंगे तथा वे बकरी की भांति दुर्बल होंगे। 5. हाथी की पीठ पर बंदर को देखा, जिसका फल था सत्ता निम्न वर्ग के लोगों के पास
चली जाएगी। क्षत्रिय कमजोर हो जाएंगे। 6. अनेक कौओं द्वारा हंस को सताना जिसका तात्पर्य था जैन संतों पर विरोधी लोग झूठे
आक्षेप लगाएंगे एवं उन्हें कष्ट देंगे।
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7. घर-घर प्रेत का नर्तन जिसका हार्द था कि लौकिक देवताओं की पूजा बढ़ेगी ।
8.
तालाब का मध्य भाग सूखा लेकिन किनारे पर पानी छलछला रहा है इसका तात्पर्य था कि आर्यावर्त जो धार्मिक संस्कृति का केन्द्र है वहां धर्म का प्रभाव कम हो जाएगा उसके आसपास के क्षेत्र में धर्म के केन्द्र रहेंगे ।
9. मिट्टी से ढका हुआ रत्नों का ढ़ेर, जिसका तात्पर्य था कि ज्ञान और श्रद्धा रूपी रत्न अज्ञान और अश्रद्धा से दब जाएगा । साधुओं में धीरे-धीरे शुक्ल ध्यान क्षीण हो
जाएगा।
10. कुत्ता मिठाई खा रहा है, जिसकी लोग श्रद्धा से पूजा कर रहे हैं जिसका अर्थ था कि अच्छे लोग नीच व्यक्तियों की सेवा करेंगे। नीच व्यक्ति उच्चता प्राप्त करेंगे।
11. तड़पता हुआ जवान बैल पास से निकलना, जिसका हार्द था कि युवक लोग दीक्षित होंगे पर शिथिलाचार के कारण जिनशासन को बदनाम करेंगे।
12. दो बैलों को कंधे से कंधा मिलाकर जाते हुए देखना जिसका अर्थ था कि धर्म प्रचार हेतु अकेला कोई व्यक्ति साहस नहीं कर सकेगा ।
13. चन्द्रमा पर धुंध छाई हुई देखना जिसका तात्पर्य था कि आत्मा पर आवरण बढ़ेगा । धीरे-धीरे तत्त्वज्ञान नष्ट हो जाएगा।
14. मेघ से ढंका हुआ सूर्य, जिसका तात्पर्य था कि कोई सर्वज्ञ नहीं होगा ।
15. छायाहीन सूखा पेड़ देखने का अर्थ था कि धर्म का वृक्ष तृष्णा के ताप से सूख
जाएगा।
16. सूखे पत्तों का ढेर, जिसका फल था कि औषधियां जड़ी-बूटियां आदि प्रभावहीन होंगी, वैद्य भी लोभी होंगे।
महावीर के दश स्वप्न
महावीर ने साधना काल में अन्तर्मुहूर्त्त नींद ली, जिसमें उन्होंने दस महास्वप्न देखे । महावीर द्वारा देखे गए स्वप्न और उनका फल इस प्रकार है
1. विशालकाय पिशाच का ललकारना और महावीर द्वारा उसे पराजित करना । ताल पिशाच को पराजित करने का फल है मोह कर्म का नाश ।
2. श्वेत पंखों वाला बड़ा सा नरकोकिल, जिसे देखने का फल था - महावीर के शुक्लध्यान का विकास ।
3. रंग बिरंगे पंखों वाला नरकोकिल, जिसका तात्पर्य था द्वादशांगी का निरूपण ।
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था
4. वैडूर्यरत्न से बनी दो मालाएं, जिनमें एक माला बड़ी तथा दूसरी छोटी थी। वैडूर्य
रत्न की दो मालाओं का फल था- महावीर द्वारा अगार और अनगार धर्म का
निरूपण। 5. सफेद रंग की गायों एवं बछड़ों के एक बड़े समूह का महावीर के सामने घूमना,
जिसका फल था चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना। 6. कमलों से परिपूर्ण सुंदर जलाशय, जिसका तात्पर्य था चार प्रकार के देवों द्वारा सेवा। 7. समुद्र को भुजाओं द्वारा तैरना, जिसका तात्पर्य था- संसार समुद्र का पार पाना। 8. रात्रि के सघन अंधकार को दूर करने वाले प्रभास्वर सूर्य का उदय जिसका तात्पर्य
था- केवलज्ञान की उपलब्धि। 9. महावीर द्वारा मानुषोत्तर पर्वत को अपनी आंतों से घेरना, जिसका तात्पर्य था
दिग्दिगन्त में महावीर के यश का विस्तार। 10. महावीर द्वारा मेरु पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर आरोहण जिसका फल था -व्यापक
धर्म का प्रतिपादन। चन्द्रगुप्त मौर्य के स्वप्न
राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ने पौषध अवस्था में रात्रि के तीसरे प्रहर में सोलह स्वप्न देखे। स्वप्नों का फलादेश जानने हेतु वह अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के पास गया। आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञानबल से उन स्वप्नों का फलादेश बताया। 1. कल्पवृक्ष की शाखा टूटी हुई है। इसका फल बताते हुए आचार्य ने कहा कि अनागत
. काल में कोई भी राजा जैन दीक्षा ग्रहण नहीं करेगा। 2. असमय में सूर्यास्त। इसका अर्थ है कि भरतक्षेत्र में अब किसी भी व्यक्ति को
केवलज्ञान प्राप्त नहीं होगा। 3. पूर्णिमा के चन्द्र में छिद्र। इसका तात्पर्य है कि एक भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म में एक ___आचार्य की परम्परा न रहकर अनेक आचार्य एवं पृथक्-पृथक् सामाचारियां रहेंगी। 4. भयंकर अट्टहास एवं कौतूहल करने वाले भूतों का नृत्य। इसका अर्थ है कि कुगुरु,
कुदेव एवं कुधर्म का प्रभाव बढ़ेगा। स्वच्छंदचारी और वेषधारी साधुओं को अज्ञानी
व्यक्ति मान्यता देंगे। 5. बारह फणों वाला कृष्णवर्णी सर्प, जिसका फल था बारह-बारह वर्षों के कई दुर्भिक्ष
पड़ेंगे, जिनमें कुछ आगमों का विच्छेद हो जाएगा। अपरिग्रही व्यक्तियों के द्वारा भी परिग्रह को प्रोत्साहन दिया जाएगा तथा सच्चे व्यक्ति निंदा के पात्र होंगे।
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6. समागत देव - विमान का पुनः लौटना, जिसका अर्थ है जंघाचारण, विद्याचारण आदि लब्धिधारी साधु भरत क्षेत्र में नहीं रहेंगे।
7. कूड़े के ढ़ेर में कमल का खिलना - यह स्वप्न इस बात का प्रतीक था कि चारों वर्णों में मुख्य रूप से वैश्यों के द्वारा ही धर्माचरण किया जाएगा।
8. खद्योत द्वारा बहुत अधिक प्रकाश फैलाना - जिसका अर्थ था त्यागी साधु संत भी अहिंसा धर्म को छोड़कर आडम्बर को प्रोत्साहन देंगे तथा बाह्य क्रियाकाण्डों से ही सम्मान प्राप्त करेंगे ।
9. पूर्व आदि तीन दिशाओं में सूखा हुआ समुद्र जिसका अर्थ था कि तीर्थंकरों की कल्याणक क्षेत्रों में प्रायः धर्म की हानि होगी। केवल दक्षिण दिशा के क्षेत्र में ही नाम मात्र का धर्म रहेगा।
10. स्वर्ण पात्र में खीर खाता हुआ कुत्ता - इस स्वप्न का तात्पर्य था कि उत्तम पुरुष श्री विहीन होंगे और पापी व्यक्ति आनंद मनाएंगे।
11. हाथी के पीठ पर बैठा हुआ बंदर, इस स्वप्न का तात्पर्य हुआ कि लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों पक्षों में अधार्मिक एवं आचरणहीन व्यक्तियों को सम्मान एवं उच्च पद मिलेगा ।
12. समुद्र का मर्यादा तोड़कर भागना, जिसका तात्पर्य था कि उत्तम व्यक्ति भी पेट पालने के लिए मर्यादाहीन हो जाएंगे।
13. एक विशाल रथ में जुते हुए छोटे-छोटे बछड़े, जिसका फल था कि भविष्य में छोटी उम्र के बच्चे संयम ग्रहण करेंगे अर्थात् संयम रथ की धुरा को धारण करेंगे।
14. महामूल्य रत्न को निस्तेज देखना, जिसका तात्पर्य था कि भविष्य में साधुओं के परस्पर कलह, अविनय आदि के कारण चारित्र का तेज घट जाएगा।
15. बैल की पीठ पर बैठा हुआ कुलीन राजकुमार – जिस स्वप्न का फल था क्षत्रिय आदि विशिष्ट वर्ग जिन - धर्म को छोड़कर मिथ्यात्व के पीछे लगेंगे और दुर्जनों का विश्वास करेंगे।
16. दो कृष्णवर्णी हाथियों को युद्ध करते हुए देखना, जिसका फल था कि पिता और पुत्र तथा गुरु और शिष्य परस्पर विग्रह करेंगे तथा कहीं अतिवृष्टि और कहीं अनावृष्टि होगी ।
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स्वप्न विज्ञान के रहस्यों की खोज आज भी वैज्ञानिक कर रहे हैं। यह शोधपूर्ण विषय है जिसकी भविष्य में बहुत कुछ सम्भावनायें उजागर हो सकती हैं। स्वप्नों की व्याख्या करके अचेतन मन से जुड़ी अनेक गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ - 1. उत्तराध्ययन, 15/7 2. भटी 16/6 पृ. 1307 3. योग सूत्र , 4/19/33 4. S. frued Quoted by J.F. Brown lauo 5. भगवती सूत्र, 16/6 6. भटी पृ. 1307 7. विशेषावश्यक भाष्य गा. 1703 8. तिलोय पण्णत्ति 4/1016 9. चरकसंहिता 1/21 पृ. 795 10. सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा पृ. 101, 102 11 भगवती सूत्र, 16/6 12. भगवती सूत्र, 16/6 13. भटी प.1308 14. ऋग्वेद 2/28/10 16. भगवती सूत्र, 16/6 16. स्वप्ने मन क्रिया विभाकोटी पृ. 5 17 चरक संहिता, हृदय निदान, स्थान अ. 9 18. पातञ्जल योगसूत्र 1/38 19 अंगुत्तरनिकाय भाग 2 पृ. 425-427
सम्पर्क : जैन विश्व भारती, लाडनूं
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जैन संस्कृति की मूल अवधारणा
जैन संस्कृति और अध्यात्म
संस्कृति एक आन्तरिक तत्त्व है, जो व्यक्ति और समाज के आत्मिकसंस्कारों पर केन्द्रित रहता है । सभ्यता उसका बाह्य तत्त्व है, जो देश और काल के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । यह परिवर्तन संस्कृति को प्रभावित भले ही कर दे पर उसमें आमूल परिवर्तन करने की क्षमता नहीं रहती । इसलिए संस्कृति की परिधि काफी व्यापक होती है । उसमें व्यक्ति का आचार-विचार, जीवन-मूल्य, नैतिकता, धर्म, साहित्य, कला, शिक्षा, दर्शन आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है । इन तत्त्वों को हम साधारण तौर पर सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना के अन्तर्गत निविष्ट कर सकते हैं ।
प्रोफेसर भागचन्द जैन 'भास्कर'
व्यक्ति समाजनिष्ठ होने के बावजूद आत्मनिष्ठ है पर सन्देह और तर्क की गहनता ने, बौद्धिक व्यायाम की सघनता ने उसकी इस आत्मनिष्ठता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है और आत्मानुभूति की शक्ति को पीछे ढकेल दिया है । वह कमजोरियों का पिण्ड है, इस तथ्य को जानते हुए भी अहङ्कार के कारण वह सार्वजनिक रूप से उसे स्वीकार नहीं कर पाता । यह अस्वीकृति उसका स्वभाव बन जाता है । फलतः क्रोधादि कषायों के आवेश और आवेग को वह अनियन्त्रित अवस्था में पाले रहता है ।
अध्यात्म एक सतत चिन्तन की प्रक्रिया है, अन्तश्चेतना का निष्यन्द है । वह एक ऐसा संगीत स्वर है, जो एकनिष्ठ होने पर ही सुनाई देता है और स्वानुभव की दुनिया में व्यक्ति को प्रवेश करा देता है । स्वयं ही निष्पक्ष चिन्तन और ध्यान के माध्यम से वह अपनी कमजोरियों को बाहर फेंकने के लिए आतुर हो जाता है। उसका हृदय आत्मसुधार की ओर कदम बढ़ाने के
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लिए एक सशक्त माध्यम की खोज में निकल पड़ता है- और यह माध्यम है-धर्म और अध्यात्म।
पशु और मनुष्य को पृथक् करने वाला तत्त्व है-विवेक। विवेक न होने से पशु आज भी अपने आदिम जगत् में है जबकि मनुष्य ने विवेक के माध्यम से ही अपनी प्राणशक्ति का विकास किया, विज्ञान की चेतना ने उसे नये आयाम दिये और प्रस्फुटित किये उसके सारे शक्ति-क्षेत्र जिनमें वह विकास के नये संकल्प, उपाय और साधन की खोज में निरन्तर लगा रहता है। उसकी इस निरन्तरता का सूत्र कभी भंग नहीं हो पाता। यह प्राणधारा प्रयत्न साध्य है।
चेतना की सक्रियता और मनोबल की सक्षमता से वह उपलब्ध की जा सकती है। शरीर-बल और वचन-बल से उसे क्रियाशक्ति मिल जाती है। यह क्रियाशक्ति व्यक्ति की संवेदना और चेतना के विकास-बोध की फलश्रुति है। संवेदना पर नियन्त्रण कर ज्ञान का विकास करना उसकी विशेषता है। अन्तर्मुखी होकर वह यथार्थ की साधना करता है, ध्यान करता है और प्रतिबिम्ब से परे ज्ञान का प्रयत्न करता है। इसी प्रयत्न में अहिंसा और संयम उसका साथ देते हैं। प्रज्ञा और आत्म-साक्षात्कार से उसकी साधना का क्षेत्र बढ़ जाता है। तर्क और बुद्धि के सोपान से ही अनुभव की चेतना में वह प्रवेश कर जाता है।
हमारी स्वानुभूति की चेतना यह कहती है कि हमारा आचार और व्यवहार दूसरों के प्रति परिष्कृत हो। उसमें क्रूरता, विषमता और अहंमन्यता न हो, धोखाघड़ी न हो। हमारी मन:स्थिति यदि समता से भरे आचरण और व्यवहार से भर जाये तो अशान्ति स्वतः अदृश्य हो जाती है, संस्कार परिवर्तित हो जाते हैं, स्वभाव रूपान्तरित हो जाता है और प्रवाहित होने लगती है सामुदायिक चेतना की वह प्रशस्त धारा जिसमें सहिष्णुता, करुणा, सरलता और क्षमाशीलता जैसे अध्यात्मनिष्ठ तत्त्व सदैव जागृत रहते हैं।
ये तत्त्व व्यक्ति की अध्यात्मनिष्ठा के साथ जुड़ जाते हैं जहां पुरुषार्थ जाग जाता है, वहां पूर्ण ज्योति पाने के लिए और सृजनात्मक चेतना स्फुरित हो जाती है विजातीय तत्त्वों को दूर करने के लिए। साधक इस साध्य की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन से स्वयं को नियन्त्रित करता है, अवचेतन मन में पड़े हुए संस्कारों और वासनाओं को विशुद्ध करता है
और सारी क्षमताओं को अर्जितकर मानसिक असंतुलन को दूर करता है निराग्रही वृत्ति से, संतुलित विशुद्ध शाकाहार से और निष्पक्ष वीतरागता के चिन्तन से। जैन संस्कृति ऐसा ही चिन्तनशील भरा वातावरण प्रस्तुत करती है साधक के समक्ष जो उसे सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना की ओर मोड़ देता है। यह उसका एक विशिष्ट अवदान है।
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श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति
भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख रूप से श्रमण और ब्राह्मण परम्परायें पल्लवित होती रही हैं। दोनों परम्परायें पृथक्-पृथक् होते हुए भी परस्पर में परिपूरक हैं, अनुस्यूत हैं। प्राचीनतम वैदिक साहित्य में समागत वातरशना श्रमण, व्रात्य, अर्हत्, आहेत, ऋषभ, असुर, ऊर्ध्वमन्थी, केशी, पुण्यशील, यति, मुनि आदि शब्द जैन संस्कृति के प्रभावशाली अस्तित्व की सूचना देते हैं और मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोहानीपुर में प्राप्त योगी ऋषभदेव की कायोत्सर्गी मूर्तियां उसकी सांस्कृतिक विरासत की कथा कहती है। ___श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियां वस्तुतः हमारी मनोवृत्ति की परिचायिका है, इसलिए वे परस्पर प्रभावित भी हुई हैं, उनमें आदान-प्रदान भी हुआ है। समता और पुरुषार्थशीलता पर प्रतिष्ठित श्रमणधारा के अध्यात्मप्रधान निवृत्तिमार्गीय चिन्तन से ब्राह्मणधारा प्रभावित हई हैं और ब्राह्मणधारा के कर्मकाण्डीय तत्त्व ने श्रमणधारा को प्रभावित किया है। उपनिषदीय चिन्तन में परिदृष्ट परिवर्तन निश्चित रूप से श्रमणधारा के प्रभाव का परिणाम है और इसी तरह श्रमणधारा में स्वीकृत देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणी समुदाय ब्राह्मणधारा से आयातित हुआ है। यहीं यह संकेत करना आवश्यक नहीं है कि श्रमणधारा का मूल प्रवर्तन जैन संस्कृति से हुआ है। बौद्ध संस्कृति तो छठी शताब्दी ई. पू. की देन है।
सहस्पतिसहस्र प्राचीन इस जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को दार्शनिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों में अत्यन्त समृद्ध किया है। जैनाचार्यों ने अपने चिन्तन में जो वैज्ञानिकता, प्रगतिशीलता, सार्वजनीनता, एकात्मकता, जाति-वर्गहीनता और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का प्रस्फुटन किया है, वह नितान्त अनूठी है। यहां हम उसके अनूठेपन को दो भागों में विभाजित कर उसके अवदान पर चिन्तन करेंगे-सांस्कृतिक अवदान और साहित्यिक अवदान। इन दानों अवदानों में श्रमण जैन संस्कृति में समतावाद, शमतावाद और पुरुषार्थवाद को आत्मसात करने का साहस दिखाई देता है और वर्गभेद, वर्णभेद, उपनिवेशवाद आदि जैसे असमानवादी तत्त्वों से कोसों दूर रखकर व्यक्ति और समाज को स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बन की ओर कदम पहुंचाता नजर आता है। जैन संस्कृति ने उपादान और निमित्त के माध्यम से तत्कालीन प्रचलित दार्शनिक मत-मतान्तरों में जो सामञ्जस्य प्रस्थापित करने का अथक प्रयत्न किया है वह निश्चित ही स्तुत्य है।
इस पृष्ठभूमि में परिपूरक होते हुए भी ब्राह्मण और श्रमण सांस्कृतिक विचारधाराओं के बीच एक विभेदक रेखा इस प्रकार खीची जा सकती है कि ब्राह्मण संस्कृति में 'ब्रह्मा' ने विस्तार किया, उसने एक से विविध रूप लिये, अवतार धारण किये, स्वप्न और माया
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का सृजन हुआ, भक्तिशास्त्र का जन्म हुआ, विषमता पनपी और परमात्मा ईश्वर स्वरूप में अनुपलब्धेय हो गया। दूसरी ओर श्रमण विचारधारा ने तीर्थवादी प्रवृत्ति को विकसित किया, इस पार से उस पार जाने की बात कही और संसार से लौटकर, बहिरात्मा से दूर होकर अन्तरात्मा की ओर मुड़ने का तथा परमात्मा की ओर वापिस जाने का संकल्प दिया। इस संकल्प में समर्पण नहीं, पुरुषार्थ है, वृत्तियों के सामने घुटने टेकना नहीं, साहसपूर्वक उनसे संघर्ष करना है, फैलाव नहीं, सिकुड़न है, अपने घर वापस लौटना है, विशुद्धता से पहुंचना है, अन्य किसी की भी शरण में जाकर स्वयं की शरण में जाना है, हर आत्मा में परमात्मा तीर्थङ्कर का वास है, वह अनुपलब्धेय नहीं, सम्यक् साधना से उपलब्धेय है, पथदर्शक है। वहां पूजा नहीं, ध्यान है, वासना या राग नहीं, वीतराग अवस्था है। इसलिए वह जिन मार्ग है। ऐसे जिनों का जिन्होंने कर्म, वासना को जीतकर स्वानुभूति के आधार पर उपदेश दिया है, स्वयं विशुद्धि के चरम शिखर पर पहुंचकर सभी प्राणियों के कल्याण की बात कही है। जिन मार्ग वस्तुतः क्षत्रिय मार्ग है, योद्धा मार्ग है, ऐसे योद्धाओं का जो इन्द्रिय वृत्तियों से संघर्ष करते हैं और निराकांक्षी होकर मृत्यु को जीत लेते हैं, परमानन्द का अनुभव करते हैं और भव सागर से पूर्णतः पार हो जाते हैं, अवतार के रूप में वापस नहीं आते। इस अन्तर के बावजूद दोनों संस्कृतियां एक-दूसरे की परिपूरक हैं।
___ 1. सांस्कृतिक अवदान इन दोनों की अवधारणाओं में जैन संस्कृति श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध है जिसे आचार्यों ने साहित्य के माध्यम से बड़ी सुगमता के साथ स्पष्ट किया है। इतिहास की दृष्टि से उस संस्कृति के आद्य प्रणेता तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे और उसे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और महावीर ने अनुप्राणित किया। उसी को उत्तरकाल में श्रुतधर और सारस्वत आचार्यों ने पल्लवित किया। उसी के आधार पर अचार्यों ने जैन संस्कृति की कतिपय मूल अवधारणाओं को लेकर संस्कृति के मूल कथ्य का विस्तार किया है। ___संस्कृति के मूल कथ्य को धर्म की परिभाषा की परिधि में रखा जा सकता है। धर्म की अनेक प्रकार से परिभाषायें देकर जैन संस्कृति की अवधारणाओं को उसके माध्यम से स्पष्ट करने का तात्पर्य यह भी है कि जीवन के सारे कोण धर्म से सम्बद्ध रहते हैं। इसलिए जैन संस्कृति के अवदान को समझने के लिए धर्म को पहले समझ लिया जाये। 1. धर्म की परिधि-अपरिमित मानवता
धर्म महज रूढियों और रीति-रिवाजों का परिपालन मात्र नहीं है। वह तो जीवन से जुड़ा सर्जनात्मक सर्वदेशीय तत्त्व है जो प्राणिमात्र को वास्तविक शान्ति का संदेश देता है,
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मिथ्याज्ञान और अविद्या को दूर कर सत्य और न्याय को प्रगट करता है, तर्कगत आस्था और श्रद्धा को सजीव रखता है, बौद्धिकता को जाग्रत कर सद्भावना के पुष्प खिलाता है और बिखेरता है उस स्वानुभूति को, जो अन्तर में ऋजुता, सरलता और प्रशान्त वृत्ति को जन्म देती है। वह तो रिम झिम बरसते बादल के समान हैं जो तन-मन को आह्लादित कर आधि-व्याधियों की ऊष्मा को शान्त कर देता है।
धर्म के दो रूप होते हैं - एक तो व्यक्तिगत होता है जो परमात्मा की आराधना कर स्वयं को तद्रूप बनाने में गतिशील रहता है और दूसरा साधना तथा सहकार पर बल देता है । एक आन्तरिक तत्व है और दूसरा बाह्य तत्त्व है। दोनों तत्त्व एक दूसरे के परिपूरक होते हैं, जो आन्तरिक अनुभूति को सबल बनाये रखते हैं, बुद्धि और क्रिया को पवित्रता की ओर ले जाते हैं और मानवोचित गुणों का विकास कर सामाजिकता को प्रस्थापित करते हैं ।
धर्म जब कालान्तर में मात्र रूढ़ियों का ढांचा रह जाता है, तब सारी गड़बड़ी शुरू हो जाती है, विवेक-हीनता पनपती है और फिर साधक रागात्मक परिसीमा में बंधकर धर्म के आन्तरिक संबंध को भूल जाता है, उसके निर्मल और वास्तविक रूप की छाया में घृणा और द्वेष-भाव जन्म लेने लगते हैं। ऐसे ही धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव नृत्य जितना हुआ उतना शायद ही किसी और नाम पर हुआ हो। इसलिए साधारण व्यक्ति धर्म से बहिर्मुख हो जाता है, उसकी तथ्यात्मकता को समझे बिना आस-पास के वातावरण को भी दूषित कर देता है। वस्तुतः हम न हिन्दू है, न मुसलमान है, न जैन है, न बौद्ध, न ईसाई हैं, न यहूदी हैं, हम तो पहले मानव हैं और धार्मिक बाद में । व्यक्ति यदि सही इन्सान नहीं बन सकता तो वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता, धर्म का मुखौटा भले ही वह कितना भी लगाये रखे । जैन संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता है ।
इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और इन्सानियत को बनाये रखने के लिए उसकी उपयोगिता को जाने । इन्सानियत को मारने वाली इन्सान में निहित कुप्रवृत्तियां और भौतिकवादी वासनायें हैं जो युद्ध और संषर्घ को जन्म देती हैं, व्यक्ति और राष्ट्र - राष्ट्र के बीच कटुता की अभेद्य दीवारें खड़ी कर देती हैं। धर्म के पात्र निवृत्तिमार्ग पर जोर देकर उसे निष्क्रियता का जामा पहनाना भी धर्म की वास्तविकता को न समझना है । धर्म तो वस्तुतः दुःख के मूल कारण रूप आसक्ति को दूर कर असाम्प्रदायिकता को प्रस्थापित करता है, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को नयी दृष्टि देता है और समतामूलक समाज की रचना करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है । इस दृष्टि से धर्म की शक्ति अपरिमित और अजेय है, बशर्ते उसके वास्तविक स्वरूप
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को समझ लिया जाये। धर्म के इसी स्वरूप को स्पष्ट समूचे साहित्य और कला का अभिधेय रहा है।
धर्म की शताधिक परिभाषायें हुई हैं। उन परिभाषाओं का यदि वर्गीकरण किया जाये तो उन्हें साधारण तौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-मूल्यात्मक, वर्णनात्मक और क्रियात्मक। ये तीनों प्रकार भी एक-दूसरे में प्रवेश करते दिखाई देते हैं। कोई एक तत्त्व पर जोर देता है तो कोई दूसरे तत्त्व को अधिक महत्त्व देता है। इसलिए काण्ट जैसे दार्शनिकों ने उसके वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसमें मानवता को प्रस्थापित कर धर्म को ईश्वर-विश्वास से पृथक् कर दिया। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, हरिभद्र आदि जैनाचार्यों ने तो धर्म को इस रूप में बहुत पहले ही खड़ा कर दिया था।
यह सही है कि धर्म की सर्वमान्य परिभाषा करना सरल नहीं है, पर उसे किसी सीमा तक इतना तो लाया जा सकता है कि वह अधिक से अधिक सार्वजनिक बन सके। एकेश्वरवाद की कल्पना ने ईश्वरीय पुरुष को खड़ा कर धर्म के साथ अनेक किंवदन्तियों
और पौराणिक कल्पनाओं को गढ़ा है और व्यक्ति तथा राष्ट्र को शोषित किया है। धर्म के नाम जितने बेहूदे अत्याचार और युद्ध हुए हैं, वह उन अज्ञानियों का दुष्कृत्य है जिन्होंने कभी धर्म का अनुभव ही नहीं किया बल्कि निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपनी पिछलग्गू जनता को भड़काया, भीड़ को जमा किया, उसकी आस्था और विश्वास का दुरुपयोग किया और धर्मान्धता की आग में धर्म की वास्तविकता को भस्म कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता के निर्झर को सुखा दिया। इसलिए धर्म के स्वरूप में स्वानुभूति का सर्वाधिक महत्त्व है। इसी को 'रसो वै सः' कहा गया है, अनिर्वचनीय और परमानन्द रूप माना गया है। एकेश्वरवाद से हटकर व्यक्ति सर्वेश्वरवाद की ओर जाता है और फिर स्वयं को ही परम विशुद्ध रूप परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर आत्मा को ही परमात्मा समझने लगता है। धर्म की यह विकास प्रक्रिया व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है और उसे विश्वजनीन बना देती है।
भारतीय संस्कृति में जब हम धर्म शब्द पर विचार करेंगे तो हमारा ध्यान ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति की ओर बरबस खिंच जाता है। 'धर्म' धृ धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है बनाये रखना, धारण करना, पुष्ट करना (धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मेण विधृताः प्रजाः)। यह वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है, किसी भी वस्तु का वह मूल तत्त्व, जिसके कारण वह वस्तु है। वेदों में इस शब्द का प्रयोग धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है। छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्धों) का उल्लेख किया गया है जिनका संबंध गृहस्थ, तपस्वी और ब्रह्मचारियों के कर्तव्यों से है। जब तैत्तिरीय
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उपनिषद् हमसे धर्माचरण करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्त्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें कि हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में शब्द का प्रयोग भगवद्गीता और मनुस्मृति दोनों में हुआ है। बौद्ध धर्म के लिए यह शब्द धर्म, बुद्ध और संघ या समाज के साथ-साथ त्रिरत्न में से एक है। पूर्व मीमांसा के अनुसार धर्म एक वांछनीय वस्तु है, जिसकी विशेषता है प्रेरणा देना- चोदना लक्षणार्थों धर्मः । वैशेषिक सूत्रों में धर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिससे आनन्द (अभ्युदय) और परमानन्द (निःश्रेयस्) की प्राप्ति हो, वह धर्म है - यतोभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
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जैनधर्म आर्ह धर्म है। उसकी संस्कृति वीतरागता से उद्भूत हुई है जहां कर्मों को नष्ट कर, उनकी निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता है । इसलिए जैनाचार्यों ने अपनी संस्कृति के मूल में धर्म को संयोजित किया है और उसे जीवन में हर पक्ष से जोड़ने का प्रयत्न किया है। जैन संस्कृति को समझने के लिए उसमें निहित धर्म की विविध परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। इन परिभाषाओं को हम स्थूल रूप से इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं
1. धर्म का सामान्य स्वरूप
2. धर्म का स्वभावात्मक
3. धर्म का गुणात्मक स्वरूप
4. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप ।
इन स्वरूपों के माध्यम से ही हम जैन संस्कृति की मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयन करेंगे।
2. आत्मा ही परमात्मा है
जैनधर्म आत्मवादी धर्म है । संसारी आत्मा ही कर्मों का स्वयं विनाश कर परमात्मा बन जाता है । इसलिए सभी जैनाचार्यों ने सामान्यतः धर्म उसे कहा है, जो सांसारिक दुःखों से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुंचाये । यथा
1. संसारदुःखतः, सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुख
2. इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म : 1
3. यस्माज्जीवं नारक-तिर्यग्योनिकुमानुष - देवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्म।
जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमतः सांसारिक दुःखों से परिचित कराना चाहते हैं और फिर आत्मा की विशुद्धि
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अवस्था रूप परमात्मा को प्राप्त करने का आह्वान करते हैं । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमारी की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तुस्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं । है भी नहीं । इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है । उसे वह उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संषर्घ करने की प्रेरणा देता है और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुखों का मूल कारण राग और द्वेष है । प्राणी कर्म मोह की प्रबलता से उन्मत्त होते हैं। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भाव- परम्परा दुःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहां ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव- चक्कर से मुक्त होना आवश्यक है। उपादेय भी यही है । आत्मा ही परमात्मा है, इस परमतत्त्व को समझने का मार्ग भी यही है ।
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3. आत्म- स्वतन्त्र्य
जैन सांस्कृतिक परम्परा में आत्म - स्वातन्त्र्य की घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तत्त्व नहीं है । वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है । इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा वीतरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहां रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हुआ कमल जो जल में रहता हुआ भी जल उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता ।
भावे विरतो मणिओ विसोगो, एएणदुक्खोहरपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोखरणि पलासं ॥
जैन-धर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न सृष्टिकारक परमात्मा का । वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की । आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता है। वहां मैं नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। हां, अहंकार का
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विगलन आवश्यक हो जाता है। उसके विसर्जन बिना एकाकीपन आ ही नहीं सकता । कैवल्य की साधना एकाकीपन की साधना है । वह व्यष्टिनिष्ठ आनन्द है । जो स्वयं आनन्दित नहीं होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहां स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है। आत्मा में विशुद्ध परमात्मा का रूप बसा हुआ है। इसलिए आत्मसाधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्त्ता हर्ता नहीं । बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है । उसका अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो उठता है, स्व-पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान - सामायिक करने लगता है । जब यह भी भेद समाप्त हो जाता है तो आत्मा की परमात्मावस्था आ जाती है। मनुष्य ही परमात्मा बन जाता है। आत्मा ही परमात्मा है, यह क्रान्तिकारी उद्घोषणा जैनधर्म की निराली है । ईश्वर से मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता देना जैनधर्म की अपनी विशेषता है। नीत्शे ने कहाईश्वर मर चुका है। अब आदमी स्वतन्त्र है कुछ भी करने के लिए | पर जैनधर्म ने इससे भी आगे बढ़कर कहा- ईश्वर का अस्तित्व था ही कहाँ ? फिर उसके मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर व्यक्ति में परमात्मा बैठा हुआ है। बस, उसे जागृत करने की आवश्यकता है । ईश्वर में जगत्-कर्तृत्व है ही नहीं। संसार तो उपादान - निमित्त का संयोजन मात्र है स्वयं ही । उसे ईश्वर कर्तृत्व की आवश्यकता नहीं होती ।
संसार की सृष्टि निमित्त- उपादान कारणों से होती है। ईश्वर सृष्टि - कारक नहीं है । व्यक्ति स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है । सारा उत्तरदायित्व स्वयं के सिर पर है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्त्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है । वह असंयम से निवृत्त होता है और संयम में प्रवृत्त होता है । निवृत्ति और प्रवृत्ति, उसकी एक साथ चलती है। सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो इन्द्रियां हैं, कषाय हैं जिन्हें जीतने के लिए व्यक्ति को सदैव संघर्ष करना पड़ता है, विवेक जाग्रत करना पड़ता है। तभी धर्माचरण हो पाता है। विवेक जाग्रत हो जाने पर सांसारिक सुख यथार्थ में सुखाभास लगने लगता है, उनमें झूठा आनन्द दिखाई देने लगता है, मृत्यु का चिन्तन प्रखर हो उठता है ।
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं य, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥ एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्द्रियाणि य । ते जिणित्तू, जहानायं विहरामि अहं मुणी ॥'
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इस दृष्टि से जैन संस्कृति की प्रथम यह मूल अवधारणा है कि आत्मा अनन्त है। वे पृथक्-पृथक् हैं। उनमें अनन्त शक्ति और ज्ञान प्रवाहित हैं। मूलतः वह आत्मा विशुद्ध है पर कर्मों के कारण उसकी विशुद्धता आवृत्त हो जाती है। वीतरागता प्राप्त करने पर वही संसारी आत्मा परमात्मा बन जाती है। जैन संस्कृति का यह लोकतन्त्रात्मक स्वरूप है जहाँ सभी आत्मायें बराबर हैं और वे सर्वोच्च स्थान पा सकती है। 4. समतावाद
धर्म का यह स्वभाव है कि वह समतामूलक हो। जैन संस्कृति की यह विशेषता है कि अथ से इति तक समता की बात करती है। समतावादी धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत वस्तु और व्यक्ति के स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका स्वभाव है, उसका भीतरी गुण ही उसका स्वरूप है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप स्थिति में पदार्थ अपना स्वरूप बनाये रखता है। इसी में स्वभाव की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप पर भी विचार किया गया है, जो समतामूलक है। जैसे
1. धम्मो वत्थु सहावो । 2. मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो। 3. धर्मः श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणम्' 4. सम्यग्यदर्शनाद्यात्मपरिणामलक्षणो धर्मः।०
धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठा हुआ है। सम्प्रदाय भीड़ है पर धर्म वैयक्तिक है, समूह नहीं । धार्मिक व्यक्ति अपने आपको अकेला करता जाता है, स्वभाव की ओर मुड़ता जाता है, स्वानुभूति के प्रकाश में संसार को छोड़ता जाता है और एक दिन निष्काम बन जाता है। निष्काम त्याग का जीवन है। धर्म त्याग बिना आचरित नहीं हो सकता। वह मांग से दूर रहने की प्रक्रिया सिखाता है, मन की चंचलता को समझने की आवश्यकता पर बल देता है। इसलिए वह स्पष्ट कर देता है कि क्रोधादि विकारों को किसी भी कीमत पर आश्रय न दे अन्यथा ये फैल जायेंगे और अपना घर बना लेंगे। विकार भाव अपना घर न बना पाये, यह तभी संभव है जब व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो, वह उनके सामने आत्मसमर्पण न करे। संकल्प के समक्ष सत्य रहता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती। असत्य की तो सीमा रहती है। संकल्पी व्यक्ति सत्य की खोज में रहता है। परमात्मावस्था को वापस पाने की तलाश में एकाकी बन जाता है और समत्व योग की साधना करता है। यही समता व्यक्ति का वास्तविक धर्म है, स्वभाव है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि समता अत् गत्यवर्थक धातु से सिद्ध होकर सहजावस्था को द्योतित करती है जो ध्यान की उपान्त अवस्था है और समाधि उसकी अन्तिम साधना है।
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समता मानवता का रस है। बर्बरता, पशुता, संकीर्णता उसका प्रतिक्षी स्वभाव है। राग-द्वेषादि भाव उसके विकार-तन्तु हैं। ऋजुता, निष्कपटता, विनम्रता और प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता और सच्चरित्रता उसका धर्म है।
यद्यपि सापेक्षता व्यापकता लिये हुए रहती है पर मानवता के साथ सापेक्षता को सम्बद्ध करना उसके तथ्यात्मक स्वरूप को आवृत्त करता है। इसलिए समता की सत्ता मानवता की सत्ता में निहित है। ये दोनों सत्तायें आत्मा की विशुद्ध अवस्था के गुण हैं । इन गुणों से समवेत व्यक्तित्व को ही साधु कहा जा सकता है
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होई, तवेणं होइ तावसो॥" व्यवहारतः मानवता के साथ सापेक्षता के आधार पर विचार किया भी जा सकता है पर वास्तविक समता उससे दूर रहती है। समता में यदि, और तो का संबंध बैठता ही नहीं। वह तो समुद्र के समान गंभीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील और आकाश के समान स्वच्छ तथा व्यापक है। इसलिए समता का सही रूप धर्म है। यही उसका धर्म है।
यही समता और धार्मिक चेतनता सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना का अविनाभावी अंग है जिसमें धृति और सहिष्णुता, अहिंसा और संवेग-नियन्त्रण जैसे तत्त्व आपाद समाहित हैं। कर्मों का उपशमन और मोक्ष की प्राप्ति भी समता का ही परिणाम होता है।
जैन संस्कृति सामाजिक समता की पक्षधर है। उसमें जाति के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और स्वयं के पुरुषार्थ को प्रस्थापित किया गया है। यही पुरुषार्थ कल का नियति बन जाता है। इसलिये यहाँ ईश्वर का नहीं, पुरुषार्थ का सर्वोपरि स्थान है। 5. चारित्रिक विशुद्धि
धर्म को शाश्वत और चिरन्तन सुखदायी माना गया है पर उसके वैविध्य रूप में यह शाश्वतता धूमिल-सी होने लगती है। समता का स्वरूप धूमिल होने की स्थिति में कभी नहीं आता। वह तो विकारी भावों की असत्ता में ही जन्म लेता है। क्रोधादिक विकारी भाव
असमता विनम्रता, उद्धत्तता और संसरणशीलता की पृष्ठभूमि में प्रादुर्भूत होते हैं । सम्यग्दर्शन, 'सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्वचारित्र के समन्वित रूप की साधना से ही ये विकारभाव तिरोहित होते हैं और वही सही रूप है। आस्था इसकी आधारभूमि है।
चारित्र का सम्यक् परिपालन किये बिना दर्शन और ज्ञान की आराधना हो नहीं सकती। दर्शन और ज्ञान, आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं जो समता के मूल कारण हैं। इसलिए चारित्र को धर्म कहा गया है और धर्म ही यथार्थ जीवन है।
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धर्म तथा समता को राग-द्वेषादिक विकारभावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवश्यक अंग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषादाग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमन करना समता की अपेक्षित तत्त्व दृष्टि है। सहयोग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं। श्रमण का यही सही रूप है, स्वरूप है। इसी को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार कहा है :
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो॥ सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवत्तिओगो त्ति॥ समता आत्मा का सच्चा धर्म है, इसलिए आत्मा को समय भी कहा जाता है। समय की गहन और विशद व्याख्या करने वाले दशवैकालिक, समयसार आदि ग्रन्थ इस संदर्भ में द्रष्टव्य है। सामायिक जैसी क्रियायें उसके फील्ड वर्क हैं। अहिंसा उसी का अंग है। वह तो एक निर्द्वन्द्व और शून्य अवस्था है जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दुःख में निर्लिप्त प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-कांचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता है। यही श्रमण अवस्था है।
वीतरागता से जुड़ी हुई समता आध्यात्मिक समता है. जो आगमों और कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्याद्वाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्यवाद में देख सकते हैं तथा कारुण्यमूलक समता पर व्यक्ति की विखण्डित, दरिद्र, पतित और वीभत्स अवस्था देखकर/अनुभवकर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं। मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिये हुए हैं। गांधीजी का सर्वोदयवाद महावीर के सर्वोदय तीर्थ पर आधारित है जिसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र (ई. दूसरी, तीसरी सदी) ने किया था।
सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥ चारित्रिक विशुद्धि की आधारशिला वस्तुतः परिवार है और परिवार का धर्म है गृहस्थ धर्म, जिसे जैन संस्कृति में श्रावक या उपासक धर्म कहा जाता है। वह साधु सन्तों से उपदेश सुनकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है। पारिवारिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना का जीवन सदाचारमय होना चाहिए। सामाजिक कर्त्तव्य भी उसके
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साथ जुड़ा हुआ है। आचार्य हरिभद्रसूरि, जिनमण्डनगणि, पण्डित आशाधर आदि चिन्तकों ने श्रावक के गुणों की एक लम्बी सूची दी है जिसमें सत्संग, शुश्रूषा, करुणा, सत्कार, कृतज्ञता, परोपकार आदि गुण उल्लेखनीय हैं। इन गुणों में भी न्यायपूर्वक धन कमाना, शाकाहारी वृत्ति रखना और करुणाशील होना श्रावक की पहचान कही जा सकती है
न्यायोपात्तधनो यजत्गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्नयोन्यानुगुणं तदर्हगृहिणो-स्थानालयो हीमयः । युक्ताहारविहारआर्य-समितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी
शृण्वन् धर्मविधि दयालु धर्मीः सागारधर्मं चरेत्॥ 6. अनेकान्तवाद
मानवीय एकता, सह अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता धर्म के तात्त्विक अंग हैं। तथाकथित धार्मिक विज्ञान और आचार्य इन अंगों को तोड़-मरोड़कर स्वार्थवश वर्गभेद
और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा कर देते हैं जिसमें समाज की भेड़ियाधसान वाली वृत्ति वैचारिक धरातल से असम्बद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे समीकरण झुलस जाते हैं। दृष्टि से हिंसक व्यवहार अपने पूरे शक्तिशाली स्वर में गूंजने लगता है, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को दूषित कर देती है, वैयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इस दुर्व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादी चिन्तकों के सबल हिंसक कन्धों पर है जिसने समाज को एक भटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्राकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसा रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों को लौहिक दीवाल को गढ़ दिया है।
अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशा दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह संभाल कर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूंक देता है। तब संषर्घ के स्वर बदल जाते हैं। समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को समान देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिये।
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सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति-नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेमपूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देते हैं। चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने उद्धाविव समुदीर्णास्त्वयि नाथः दृष्ट्यः ! कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है। हरिभद्रसूरि की भी समन्वय-साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है
भववीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णु र्वी हरो जिनो वो नमस्तस्मै॥ 7. अहिंसा और अपरिग्रह
जैन संस्कृति अहिंसा और परिग्रह मूलक है। इसलिए धर्म के गुणात्मक स्वरूप पर चिन्तन करते समय जैनाचार्यों ने व्यक्ति और समाज को परस्पर-निष्ठ बताया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोक मांगलिक है। व्यक्ति, समाज,राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से संभव है। धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं
1. धम्मो दयाविसद्धो। 2. धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो।
3. क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः। धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुण भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा एक निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अतः विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेधात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा।
हिंसा का मूल कारण है-प्रमाद और कषाय। उसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों
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का हनन होता है। कषादायिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य गुणों का हनन होता है। इसके अतिरिक्त दूसरे को मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है । इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना-फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना चाहिए ? इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रंथों में उपलब्ध है।
समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूयेसु संजमों । उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं । मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है । शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका हित मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता । जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है
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धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो ॥ 7
संजमु सीलु सउज्जु तवु सुरि हि गुरु सोई । दाहक - छेदक - संघायकसु उत्तम कंचणु होई ॥18
पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन निषेध, देव - दर्शन, अष्टमूल गुणों का परिपालन, निर्व्यसनी जीवन, समन्वयात्मक दृष्टि आदि कुछ ऐसे नियमों का विधान इसीलिए किया गया है कि साधक अहिंसक और संयमी बनकर अहिंसक समाज की रचना कर सके ।
जीवन का सर्वाङ्गीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है । सूत्रकृतांग में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है और भय - विमुक्त होने पर पुनः अंगप्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारंभ कर देता है । उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कतापूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही गोपन कर लेता है । मैत्री, करुणा, मुदिता और माध्यस्थ भाव समभाव की परिधि में आते हैं । समभावी व्यक्ति समाचारिता का पालक और सर्वोदयशीलता का धारक होता है ।
अध्यात्म का संबंध अनुभूति से है और हिंसा - अहिंसा का संबंध जैसे अध्यवसायसंकल्प से है। अध्यात्म और संकल्प से आस्था की सृष्टि होती है जिससे मानसिक
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दुर्बलता से भरी विलासिता समाप्त हो जाती है, स्वार्थ और अहिंसा का विसर्जन हो जता है, परिशोधन और पवित्रता के आन्दोलन से यह जुड़ जाता है। वह भोग में भी योग खोज लेता है।
जैन संस्कृति मूलतः अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। मुर्छा परिग्रह का पर्यायार्थक है। यह मुर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भव अंतरंग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह का साधन हिंसा है। झूठ, चोरी, कुशील उसके अनुवर्तक है और परिग्रह उसका मूल है। परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है जब वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे। ___ क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। क्रोधादि विकारों के कारण वह बहुत भूलें कर डालता है। क्रोध विभाव है, परदोषदर्शी है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है।
परपदार्थों में कर्तृत्व बुद्धि से, मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है। पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवे-दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तम क्षमा है पर नौंवें ग्रैवेयक तक पहुंचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी के उत्तम क्षमा नहीं होती।
__मार्दव मान का विरोधी भाव माना है। दु:ख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, आयु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्य की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति
और आत्मसमर्पण कहाँ प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहङ्कार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना संभव नहीं है। इसी तरह माया, लाभ आदि विकार भावों को भी विनष्ट किये बिना परम शान्ति नहीं मिलती।
धर्म आत्मस्थिति का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ है। ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता। शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है । सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान-साधना कर आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूबने लगता है।
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8. रत्नत्रय की समन्वित साधना
तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया हैसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । इन तीनों तत्त्वों को समवेत रूप में रत्नत्रय कहा जाता है। दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाषा में आत्मनुभूति के लिये प्रयास कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र का सम्यक् योग ही मोक्ष रूप साधन की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । इसलिए इन तीनों की समन्वित अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है - सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: । " रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिये
1. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धमेश्वरा विदुः 20 2. धम्मो णाम सम्मद्दंसण - णाण - चरित्ताणिस
3. सम्यग्दृष्टि - प्राप्ति चारित्रं धर्मों रत्नत्रयात्मक 22
मोक्ष - प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव संबंध है । जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण सभी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है 3
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है- तच्चरुई सम्मत्तं । 24 सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है । वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रकट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति में सम्यग्ज्ञान होता है । सम्यग्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रमाण और नय इसी सीमा में आते हैं । सम्यक्त्व का महत्त्व "दंसणभट्टा भट्टा" गाथा से भली-भांति स्पष्ट हो जाता है ।
सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है जिसमें कोई पाप - क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों । यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है-गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है, दूसरा महाव्रत है। इनमें अणुव्रतों की संख्या बारह अनर्थदण्डव्रत पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामाजिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिणाम तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने से सामाजिकता का पालन होता है ।
श्रावक बड़ी महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इसमें व्यक्ति इस अवस्था तक पहुंच जाता है
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कि वह उपदेश ग्रहण करने का पात्र बन सके। वह बारह व्रतों का पालन घर में रहकर करता है। व्रत पालन करने से धीरे-धीरे उसकी चित्तवृत्तियाँ विशुद्धता की ओर बढ़ती चली जाती हैं। आत्मा में इस आध्यात्मिक क्रमिक विकास को जैनधर्म में प्रतिमा कहा गया है। उनकी संख्या बारह है। उनमें प्रारंभ के छह प्रतिमाधारी गृहस्थ कहलाते हैं और वे जघन्य श्रावक हैं। सात से नवमी प्रतिमाधारी को ब्रह्मचारी या वर्णी कहा जाता है। वे मध्यस्थ श्रावक हैं तथा दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक भिक्षुक कहलाते हैं और वे उत्कृष्ट श्रावक हैं। उनमें दशवी प्रतिमा तक साधक श्रावक गृहस्थावस्था में रहता है पर ग्यारहवीं प्रतिमा स्वीकार करने पर भी उसे गृहत्याग करना आवश्यक हो जाता है। उसके बाद वह परिपूर्ण निष्परिग्रही मुनि बन सकता है।
जैन मुनि २८ मूल गुणों का पालन करता है-पांच महाव्रत, पांच समितियां, पञ्चेन्द्रिाविजय, छह आवश्यक, केश लुञ्चनता, अचेलकता, अस्नानता, भूशय्या, स्थिति भोजन, अदन्त धावन और एकभुक्ति। इन मूलगुणों के परिपालन से उसके मन में संवेग और वैराग्य की भावना प्रबलतर होती रहती है। वह क्षमादि दश धर्मों का पालन करता है और अनित्य, अशरण आदि बाहर भावनाओं का अनुचिन्तन करता है, बाईस परीषहों को सहजतापूर्वक सहन करता है तथा बाह्य तपों और अंतरंग तपों का पालन करता है। 9. उपयोग और भक्ति
जैन संस्कृति में आत्मा के परमात्मा बनने के लिए शुद्ध भक्ति का आश्रय लिया जाता है। यहां आत्मा की व्याख्या उपयोग शब्द के माध्यम से भी की गई है। यह उपयोग चैतन्य का परिणाम है, ज्ञान-दर्शन मूलक है। जो ज्ञानोपयोग इन्द्रियों की सहायता के बिना ही प्रगट होता है वह केवलज्ञान है, स्वभावज्ञान है। शेष चारों ज्ञानों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं तथा अन्तिम दो ज्ञान अवधि ज्ञान और मनःपर्यवज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होते हैं। क्रमश: ये ज्ञान उत्तरोत्तर विमलता को लिये रहते हैं।
यह उपयोग तीन प्रकार का है-शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग। जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन की क्रिया, शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये शुभोपयोग संवर तथा निर्जरा सहित मुख्यता से पुण्य कर्म के आस्रव के कारण हैं। पूजा, दान आदि में लीन आत्मा शभोपयोगी होती है, पंच परमेष्ठियों के प्रति भक्ति-भाव से भी शुभोपयोग होता है। प्रशम, संवेग, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावनाओं से चित्त विशुद्ध होता है। पर राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव इस चित्त विशुद्धि को प्राप्त करने में बाधक बनते
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हैं। कषाय व्यक्ति को बांध देती है, काट देती है। क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, अहङ्कार विनम्रता को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। इन कषायों से दूर होने का कारण है और अशुभोपयोगी रूप असदाचरण रूप व्यवहार धर्म पुण्य का कारण है और शुभोपयोगी रूप असदाचरण पापकर्मास्त्रव का कारण है। आत्मा का शुद्ध स्वभाव शुद्धोपयोग है जो शुभोपयोग के माध्यम से प्राप्त होता है। शुद्धोपयोग ही मोक्ष का कारण है। __शुभोपयोग व्यवहार धर्म है और शुद्धोपयोग निश्चय धर्म है जीव का स्वभाव अतीन्द्रिय आनन्द है। जिस अनुष्ठान विशेष से उस आनन्द की प्राप्ति होती है वह धर्म कहा जाता है। वह दो प्रकार का है-एक बाह्य और दूसरा अंतरंग। पूजा, दान, पुण्य, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि बाह्य अनुष्ठान है और अंतरंग अनुष्ठान समता व वीतरागता की साधना करना है। बाह्य अनुष्ठान व्यवहार धर्म है और अंतरंग निश्चयधर्म है। निश्चय धर्म सम्यक्त्व रहित भी होता है। परम समाधि रूप केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यवहार धर्म भी त्याज्य हो जाता है। इसके बावजूद निश्चय धर्म संवर तथा कर्मनिर्जरा का तथा परम्परा से मोक्ष का कारण सिद्ध होता है।
श्रमण संस्कृति यद्यपि मूलतः स्व पुरुषार्थवादी संस्कृति है पर व्यवहार में वह अपने परम वीतराग इष्टदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अभिव्यक्ति से विमुख नहीं रह सकी। यह स्वाभाविक है और मनोवैज्ञानिक भी। व्यक्ति के मन में जिसके प्रति पूज्य भाव होता है, उसके प्रति निष्ठा, श्रद्धा, आस्था और भक्ति स्वयं स्फुरित होन लगती है और स्वर लय खोजने लगता है। स्तुति और स्तोत्र उसी लय का जीवन्त रूप है। संगीत का माधुर्य और हृदय का स्वर-स्रोत उसी से प्रवाहित होता है। भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक के साथसाथ भौतिक साधनों की प्राप्ति की भी लालसा जाग्रत होती है और उसी लालसा से मन्त्रतन्त्र का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए भक्ति अध्यात्म का निष्पन्द है और मन्त्र-तन्त्र उसके पुत्र-पुष्प। निर्वाण-प्राप्ति उसका फल और लक्ष्य है।
इस भूमिका पर बैठकर जब हम आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों को देखते हैं, टटोलते हैं तो पाते हैं कि भक्ति वह आराधना है जो वीतराग देव के प्रति शुद्ध रत्नत्रय-परिणामों से की जाती है। वस्तुतः वह शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टि पंच परमेष्ठियों की आराधना-भक्ति करता है। विशुद्ध भावों के साथ उनके प्रति अनुराग व्यक्त करता है। यह भक्ति-दर्शन-विशुद्धि आदि के बिना हो नहीं सकती।
इस भक्ति की छह आवश्यक क्रियायें हैं-सामायिक, वन्दना, स्तुति, स्वाध्याय,
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प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग। स्तुतियों में तीर्थंकरों का स्तवन होता है और कायोत्सर्ग में निश्छल सीधे खड़े होकर २७ श्वासों में णमोकार मन्त्र का जप किया जाता है। प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति पाठों का निर्देश है। दैनिक और नैमित्तिक क्रियाओं में इन्हीं भक्तिपाठों का प्रयोग किया जाता है।
भक्ति तन्त्र से मन्त्र परम्परा का उद्भव हुआ। भक्ति के प्रवाह में आकर साधक परमात्मा की स्तुति करता है और उसे स्तुति में वह वाचाल हो उठता है । मन्त्र उस वाचालता को कम करता है और मन को एकाग्र करके आध्यात्मिक अनुभव को पाने का प्रयत्न करता है। नामस्मरण, श्रवण, मनन, चिन्तन की पृष्ठभूमि में मन्त्र की उत्पत्ति होती है, मांगलिक कार्य करने के लिए इष्टदेव की स्तुति होती है। समास-पद्धति का आधार लेकर भगवान का अनुचिन्तन होता है और मंगलवाक्य के रूप में मन्त्र की रचना हो जाती है।
विस्तार से समास की ओर जाने की यह एक सर्वमान्य स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मन्त्र तन्त्र परम्परा भी उसी से सम्बद्ध है। स्वानुभूति की सरसता का पान करने के लिए मन्त्र ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें मानसिक चंचलता की दौड़ को विराम दिया जा सकता है। इसलिए मन्त्र की परिधि में समय तत्त्व-चिन्तन आ जाता है जो हमारे शुभ-अशुभ भावों के साथ घूमता रहता है। मन्त्र की सार्थकता हमारे भावों पर अधिक निर्भर करती है। जैनधर्म चूंकि भावों की शुद्धि और अहिंसक आचरण पर अधिक जोर देता है, इसलिए शैव और वैष्णव शाक्त परम्पराओं का प्रभाव होने पर भी जैन मन्त्र-तन्त्र परम्परा पर उनकी हिंसक मान्यता की कोई छाप दिखाई नही देती। कोई भी यक्ष, यक्षिणी, देवदेवता ऐसा नहीं माना गया है जिसका आकार-प्रकार वीभत्स और दुष्ट हो या हिंसा की गन्ध उसमें आती हो। यह विशेषता जैन संस्कृति की प्रगाढ़ अहिंसक भावना का फल है।
हवन, यज्ञ आदि क्रियायें भी यद्यपि जैन संस्कृति की मूल क्रियायें नहीं हैं फिर भी उन्हें धर्म का अंग माना गया है। आचार्य हरिभद्र और जिनसेन के चिन्तन में इन क्रियाओं को वैदिक संस्कृति से लेकर अपने ढंग से आत्मसात् किया गया है। विशेषता यह है कि जैन संस्कृति ने उसे व्यवहार धर्म का अंग बना दिया और अहिंसात्मक की परिधि में उसे स्वकार कर लिया। यहां यह उल्लेखनीय है कि व्यवहार धर्म जैन संस्कृति में निश्चय धर्म के लिए सोपानवत् काम करता है। इसलिए वह भक्ति का अभिन्न अंग है और उपेक्षणीय नहीं है। इसका फल यह हुआ कि भक्ति शास्त्र का जन्म हुआ और मन्त्र-तन्त्र परम्परा स्तुतियों और स्तोत्रों का सृजन हुआ। निश्चय और व्यवहार धर्म के समन्वय से अहिंसा की परिधि में रहकर जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति के समीप पहुंचकर भी अपना
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पृथक् अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम रही। शाकाहार की प्रतिष्ठा और पर्यावरण की सुरक्षा का आह्वान सबसे पहले जैन संस्कृति ने ही किया जो उसकी मूल अवधारणा का अंग था। 10. सामाजिक समता
___ जैन संस्कृति भाव प्रधान संस्कृति है। इसलिए वहां ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर श्रृंखला को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार दिया। उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊंचा नहीं कहा जा सकता। वह ऊंचा तभी हो सकता है जबकि उसका चारित्र या कर्तृत्व ऊंचा हो, विशुद्ध हो। इसलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारों जातियों की नई व्यवस्था की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में प्रस्तुत किया
कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो।
वइस्सो कम्मुणो होई, सुद्दो होई कम्मुणो॥ इसी सामाजिक समता के आधार पर महावीर ने सभी जातियों और सम्प्रदायों के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया और उन्हें विशुद्ध आचरण देकर वीतरागता के पथ पर बैठा दिया। यही कारण है जैनाचार्यों ने सभी जातियों के आचार्य हुए हैं। इसी प्रकार नारी को भी दासता से मुक्त कर उसे सामाजिक समता को ही देहली पर नहीं खड़ा किया बल्कि निर्वाण-प्राप्ति को भी अधिकारी घोषित किया। यह उस समय का बहुत बड़ा क्रान्तिकारी सिंहनाद था। दास मुक्ति, नारी मुत्ति और जातिभेद मुक्ति के क्षेत्र में जैन संस्कृति का यह अवदान अविस्मरणीय है। 11. वैयक्तिक स्वातन्त्र्य और कर्मवाद - जैन संस्कृति वैयक्तिक स्वातन्त्र्य पर विश्वास करती है। इसलिए उसने व्यक्ति को ही उसके सुख-दुःख का पूर्ण उत्तरदायी बनाया है। ज्ञान और अध्यात्म में समन्वय स्थापित कर हमारे आचरण की कार्य कारणात्मक मीमांसा में उसने कर्मवाद को स्थापित कर ईश्वरवाद को नकार दिया है। संसार की विभिन्नता में कर्म को भी कारण बतलाकर उसे अनादि तथा शान्त बताया और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को पूर्ण वीतरागता तथा विशुद्धि के माध्यम से प्रशस्त किया।
कर्म अदृश्य है और पौद्गलिक है। उसे हम वासना और संस्कार नहीं कह सकते, क्योंकि वे तो धारणा या स्मृति से संबद्ध है। अच्छाई या बुराई से उसका कोई संबंध नहीं। उसका संबंध है हमारे कर्म से, राग-द्वेष से। राग-द्वेष का वलय ही हमारे आचरण का तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 -
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आधार बन जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के योग से कर्माश्रव होते हैं। वे सहज नहीं, आगन्तुक है। उनके वर्तमान के साथ अतीत और भविष्य भी जुड़ा रहता है।
अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का संयोग संबंध वैसे ही हो जाता है जैसे अमूर्त आकाश का मूर्त घट से संबंध होकर वह घटाकाश, पटाकाश की संज्ञा पा जाता है। यह पौद्गलिक कर्म हमारे भावकर्म पर निर्भर करता है। भावचित्त का संवादी होता है। पौद्गलिकचित्त और पौद्गलिक चित्त का संवादी होता है-स्थूल शरीर। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। उन्हें किसी ईश्वररूप नियन्ता या नियामक की आवश्यकता नहीं होती। कर्म का विपाक स्वयं हो जाता है या तप से उनकी निर्जरा कर ली जाती है। इसे हम उदात्तीकरण या मार्गान्तरीकरण भी कह सकते हैं। ____ आत्मा में अचिन्त्य ज्ञान-दर्शन शक्ति का प्रस्फुटन कर्म-निर्जरा के बाद ही होता है। इस अवस्था को कोई भी व्यक्ति अपनी साधना से प्राप्त कर सकता है। यहां आत्मा की ही तीन अवस्थायें हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा संसारावस्था है। अन्तरात्मा विशुद्ध पथ पर चलना है और परमात्मा पूर्ण वीतराग अवस्था है। ईश्वर का कोई स्थान नहीं। संसार की सृष्टि निमित्त है। उपादान से स्वयमेव होती रहती है। व्यक्ति अपने ही श्रम
और पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। 12. दार्शनिक अवदान
जैनधर्म की समूची अवस्थाएं स्वानुभूति पर टिकी हुई है। इसलिए अहिंसा और समतावाद इस दर्शन की मूल भित्ति बनी। दार्शनिक क्षेत्र भी इसी भित्ति पर प्रतिष्ठित होकर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और प्रमाणवाद को संस्थापित किया, भेदविज्ञान ने अध्यात्म को पुख्ता किया और उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक तत्त्ववाद ने संसार के स्वरूप को स्पष्ट किया।
बौद्धधर्म भेदवादी और असत्कार्यवादी है, न्याय-वैशेषिकों ने असत्कार्यवाद की प्रतिष्ठा की, संख्या-योग सत्कार्यवादी है, मीमांसक बाह्यार्थवादी होकर परिणामवादी है। ये सभी दर्शन भेदवादी रहे हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्तवाद के आधार पर भेदाभेदवाद की बात कहकर सदसत्कार्यवाद की संस्तुति की और इसी में क्षणभंगुरतावाद के सही दर्शन कराये।
जैन दर्शन ने आत्मा को नित्य, विशुद्ध और ज्ञान-दर्शन आदि गुणमय माना, परन्तु यह भी कहा कि मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण उसका यह स्वरूप धूल धूसरित हो जाता है। योगनिरोध से उस विशुद्ध मूल रूप को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा का यह स्वतन्त्र अस्तित्व जैनदर्शन की एक विशिष्ट देन है। मन को पौद्गलिक कहकर इस विचार को और भी पुख्ता कर दिया है।
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यहां ईश्वर न तो जगत् का सृष्टिकर्ता है और न कर्म-फलप्रदाता। सृष्टि तो अणुस्कंधों के स्वाभाविक परिणमन से होती है। उसमें चेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण कभी-कभी निमित्त अवश्य बन जाते हैं पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं होता। अपनी कारण सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। संसार को षड्द्रव्यात्मक कहकर और काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर इस विचार को और भी परिपुष्ट किया है।
प्रमाण का स्वरूप-मन्थन करते हुए जैनाचार्यों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना और उसे स्व-पर प्रकाशक कहकर अविसंवादी होना आवश्यक कहा। निष्कर्ष को यहां साधकतमकरण न मानकर ज्ञान को ही साधकतमकरण माना है। जैन दर्शन प्रमाणसंप्लववादी है। वह वेद को अपौरुषेय न मानकर प्रमाण को स्वत: और परतः दोनों मानता है। उसने निश्चयात्मक सविकल्पकज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष और परोक्ष की स्वतन्त्र अवधारणा दी है। यही चिन्तन उसकी विशिष्ट देन है। 13. कलात्मक अवदान
कला आत्मानुभूति का पर्यायार्थक शब्द है। इसका संबंध मूल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति से है। इसलिए इसमें अध्यात्म का भी निर्झर झरता है और इसी के माध्यम से रागादि विकारों की भी खुलेपन से जानकारी दी जाती है। जैन संस्कृति में कला का मूल उद्देश्य अध्यात्म की अभिव्यक्ति है और सारी अभिव्यक्तियां उसी इर्द-गिर्द घूमती रहती है।
जैन साधकों ने कला और स्थापत्य को एक नया आयाम दिया है। उन्होंने मूतिकला, वास्तुकला, अभिलेख, पाण्डुलिपि, चित्रशैली आदि सभी क्षेत्रों को परिष्कृत किया है। हड़प्पा और लोहानीपुर से प्राप्त मस्तक विहीन नग्न कायोत्सर्गी मूर्तियां तथा मोहनजोदड़ो से प्राप्त इसी तरह की अन्य मूर्तियों की अवस्थिति को कदाचित् मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान कहा जा सकता है। खारवेल के शिलालेख ने नन्दकालीन कलिंग जिसकी मूर्ति का उल्लेख कर इस अवदान पर एक और हस्ताक्षर कर दिया है। मथुरा के कंकाली टीले में छिपी जैन कला सम्पदा ने तो और भी उसे समृद्ध कर दिया। श्रवणबेलगोला की बाहुबली प्रतिष्ठा तो विश्रुत है ही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शासन देवी-देवताओं के आने के बावजूद मूर्तिकला के क्षेत्र में अहिंसा का ही प्राधान्य रहा है। उसमें किसी भी मूर्ति के साथ हिंसक तत्त्व नहीं जुड़ा हुआ है। तन्त्र-मन्त्र का क्षेत्र भी अहिंसक ही रहा है।
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मूर्तिकला के साथ ही गुफाओं और वास्तुकला का सम्बन्ध भी अविच्छिन्न है। बराबर, नागार्जुनी पहाड़, उदयगिरि - खण्डगिरि, रानीगुफा, गिरनार गुफायें, सोनभण्डार तथा दक्षिणापथ की मदुरै, रामनाथपुरम्, सितन्नवासल आदि में प्राप्त जैन गुफायें विशेष उल्लेखनीय हैं। अयागपट्ट, स्तूप, सरस्वती मूर्तियों, मन्दिर आदि के निर्माण ने वास्तुकला को और भी समृद्ध किया । नागर, वेसर और द्राविड शैलियों के साथ ही अन्य प्रादेशिक शैलियों का भी भरपूर प्रयोग जैन साधकों ने किया है। समूचे भारतवर्ष में जैन स्थापत्यकला फैली हुई है। शैलोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों के अतिरिक्त पल्लव, चालुक्य, होयसल आदि सभी शैलियों में मन्दिरों का निर्माण हुआ है।
चित्रकला भावाभिव्यक्ति का सुन्दरतम उदाहरण है । उसमें उपदेश और सन्देश देने की अनूठी क्षमता है। जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रचार में इसका समुचित उपयोग किया है। नायाधम्मकहाओ, वरांगचरित, आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथों में चित्रकला का अच्छा वर्णन मिलता है। चित्रकला के भेदों में प्रमुख भेद है - भित्तिचित्र, कर्गलचित्र, काष्ठचित्र, पटचित्र, रंगावलि अथवा धूलिचित्र |
प्राचीनतम भित्तिचित्र शित्तानावासल के जैन गुफा मन्दिर में मिलते हैं । वहाँ जलाशय का एक सुन्दर चित्र बनाया गया है। एलोरा और श्रवणवेलगोला के मठों में भी यह चित्र परम्परा दिखाई देती है । यह परम्परा 11वीं शती तक अधिक लोप्रिय रही। उसके बाद ताड़पत्रों पर चित्रांकन प्रारम्भ हो गया । मूडवद्री, पाटन आदि ग्रन्थ भण्डारों में यह चित्रांकन सुरक्षित है ।
कर्गल (कागज) चित्र लगभग 14वीं शती के बाद अधिक मिलते हैं । पाण्डुलिपियों में कथाओं को चित्रांकित किया जाता था । कालकाचार्य कथा शान्तिनाथचरित, सुपासनाहचरिय, यशोधरचरित, कल्पसूत्र आदि को चित्रों में बांधा गया है। इस चित्रांकन में समृद्धि शैली, तैमूर चित्र शैली आदि का उपयोग हुआ है। इनमें रंगयोजना, विविध मुद्रायें, वेश-भूषा तथा स्थापत्य की अनेक परम्पराओं का अंकन हुआ है ।
काष्ठ चित्र पाण्डुलिपियों पर लगे काष्ठफलकों पर बनाये जाते थे। इन पर विद्यादेवियों, तीर्थंकरों और पशु-पक्षियों तथा मानवाकृतियों का अंकन किया जाता था । राजस्थान और गुजरात में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार पटचित्र और धूलिचित्र के भी उल्लेख साहित्य में मिलते हैं । चित्रकला के इन विविध रूपों में जैन साधकों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। उसके माध्यम से अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन, मनोदशाओं का अभिव्यंजन तथा रूप - भावना और आकृति - सौन्दर्य का चित्रण बड़ी सफलतापूर्वक हुआ है।
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ब्राह्मण परम्परा की अनुश्रुतियों में लिच्छिवि, मल्ल, मोरिय आदि जातियों को व्रात्य कहा गया है। व्रात्य जन्मतः क्षत्रिय और आर्य जाति के थे, जो मूलतः मध्य देश के पूर्व या उत्तर-पश्चिम में रहते थे। उनकी भाषा प्राकृत थी और वेशभूषा अपरिष्कृत थी। वे चैत्यों की पूजा करते थे। आर्य द्रविड़ों, नाग, पणि और विद्याधर जाति से भी उनके सम्बन्ध थे। वर्णसंकरता उनमें बनी हुई थी। फिर भी अपने को वे क्षत्रिय मानते थे और श्रमण संस्कृति के पुजारी थे। उनके वैदिक यज्ञ विधन और जातिवाद के विरोधक प्रखर स्वर में आध्यात्मिकता व औपनिषदिक विचारधारा का उदय व्रात्य संस्कृति का ही परिणाम है। जहाँ वैदिक यज्ञों को फूटी नाव की उपमा दी गई है।
श्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा था और संजोया था अपने विचारों में जिन्हें तीर्थंकरों और जैनाचार्यों ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन को प्रमुखता देकर जीवन क्षेत्र को एक नया आयाम दिया और जिसे महावीर और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तियों ने आत्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे से आयी विकृत परम्पराओं के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और अहिंसक दृढ़ता थी, जिसे उसने थाती बनाकर कठोर झंझावातों में भी संभालकर रख। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है, वह निश्चय ही अनुपम माना जाएगा। बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ आ भी गईं पर जैनधर्म ने चारित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया।
अब मात्र संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का साधन नहीं था। पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जसी लोकबोलियों ने भी जनमानस की चेतना को नये स्वर दिये और साहित्य सृजन का नया प्रांगण खुला गया। इस समूचे साहित्य में एकात्मकता का जितना सुन्दर ताना-बाना हुआ है व अन्यत्र दुर्लभ है। अर्हन्तों और बोधिसत्वों की वाणी ने जीवन-प्रसाद को जितना मनोरम और धवल बनाया, उतना ही उनके प्रति आत्मीयता जाग्रत होती रही। फलतः हर क्षेत्र में उनका अतुल योगदान सामने आया। भावात्मक एकता की सृजन-शक्ति भी यहीं से विकसित हुई।
इसी बीच मगध साम्राज्य का उदय हुआ। विदेशी आक्रमण हुए। उस राजनीतिक अस्थिरता को दूर कर एकता प्रस्थापित करने का काम किया। राष्ट्रनिर्माता कुशल प्रशासक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिसने जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण प्रदेश की यात्रा की और दिगम्बर मुनिव्रत धारण कर श्रवणबेलगोला में समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। अशोक (268-69 ई.पू.) भी मूलतः जैन सम्राट् था, जिसमें धार्मिक
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सहिष्णुता, सार्वभौमिकता, असाम्प्रदायिक मनोवृत्ति, अहिंसात्मक भावना, सद्विचार और एकात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पुष्पमित्र शुंग ने ब्राह्मण साम्राज्य की स्थापना की आन्ध्र-सातवाहन आये, जिन्होंने प्राकृत भाषा का विशेष आश्रय दिया। कलिंग खारवेल भी जैन सम्राट् था, जिसने मगध साम्राज्य से युद्ध कर कलिंग जिनमूर्ति को वापिस प्राप्त किया। इसी समय मूर्तिकला के क्षेत्र में गान्धारकला ने एक नयी दृष्टि-सृष्टि दी। मथुरा कला का भी अपने ढंग का विकास हुआ और वहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक- तीनों सम्प्रदाय समान रूप से विकास करते रहे। मथुरा की जैनकला कदाचित् प्राचीनतम कला है।
गुप्तकाल को हमारे इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि प्रखर जैन विद्वान इसी काल में हुए जिन्होंने समन्वयवादिता पर विशेष जोर दिया। इसी युग में देवर्धिगणि द्वारा 453 ई. में वल्लभी में जैनागमों का संकलन हुआ। ___गुप्त काल के बाद राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई। इस काल में हर्ष की धार्मिक सहिष्णुता विशेष निदर्शनीय है। हर्ष की मृत्यु (646 ई.) के उपरान्त उत्तर भारत में पाल, सेन, परमार, कलचुरि आदि कितने ही छोटे-मोटे राजा हुए, जिन्होंने हमारी संस्कृति को सुरक्षित ही नहीं रखा, बल्कि उसे बहुत कुछ दिया भी है। वाकाटक, राष्ट्रकूट आदि राजवंशों ने भी जैनधर्म का पालन करते हुए सांस्कृति एकता के यज्ञ में अपना योगदान दिया।
पूर्व मध्यकाल में चालुक्य, पाल, चेदि, चन्देल आदि वंश आये, जिन्होंने शैव और वैष्णव मत का विशेष प्रसार किया। शाक्त और नाथ सम्प्रदाय भी उदित हुए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दिक्पाल आदि की पूजा का प्रचलन बढ़ा और अवतारवाद का खूब प्रचार-प्रसार बढ़ा। इसी काल में बौद्धधर्म की तान्त्रिकता ने उसे पतन का रास्ता बता दिया। पर जैनधर्म अपेक्षाकृत अधिक अच्छी स्थिति में रहा। विशेषतः दक्षिण भारत में उसे अच्छा राज्याश्रय मिला। यद्यपि लिंगायत सम्प्रदाय द्वारा ढाये गये अत्याचारों को भी उसे झेलना पड़ा। फिर भी अपनी चारित्रिक निष्ठा के कारण जैनधर्म नामशेष नहीं हो सकता। यह इसलिए भी हुआ कि जैनधर्म वैदिक धर्म के अधिक समीप आ गया था। कला के क्षेत्र में उसका यह रूप आसानी से देखा जा सकता है।
जैनधर्म प्रारम्भ से ही वस्तुतः एकात्मकता का पक्षधर रहा है। उसका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त अहिंसा की पृष्ठभूमि में एकात्मकता को ही पुष्ट करता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। हिंसा के विरोध में अभिव्यक्त अपने ओजस्वी और प्रभावक विचारों से जैनाचार्यों ने एक ओर जहाँ दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयास किया,
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वहीं मानव-मानव के बीच पनप रहे अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त करने का भी मार्ग प्रशस्त किया। समन्तभद्र ने उसी को सर्वोदयवाद कहा था। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने इसी के स्वर को नया आयाम दिया था। प्रारम्भ से लेकर अभी तक सभी जैनाचार्य अपने उपदेश
और साहित्य सजन के माध्यम से एकात्मकता की प्रतिष्ठा करने में ही लगे रहे हैं। इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं, जिसमें जैन धर्मावलम्बियों ने किसी पर आक्रमण किया हो और एकात्मकता को धक्का लगाया हो। भारतीय संस्कृति में उसका यह अनन्य योगदान है, जिसे किसी भी कीमत पर झुठलाया नहीं जा सकता। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा मन्दिरों और शास्त्र भण्डारों को नष्ट किये जाने के बावजूद जैन धर्मावलम्बियों ने अपनी अहिंसा और एकात्मकता के स्वर में आँच नहीं आने दी। यह उनकी अहिंसक धार्मिक जीवन पद्धति और दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सामाजिक चिन्तन का परिणाम था कि सदैव उसने जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं।
जैन संस्कृति की ये मूल अवधारणाएँ मानवतावाद के विकास में सदैव कार्यकारी रही हैं। उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूर कर सर्वोदयवादी
और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीविनी से दूर किया, शाकाहार पर पूरा बल देकर पर्यावरण की रक्षा की और सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा और मद्य, माँस, द्यूत आदि जीवनघाती व्यसनों से मुक्ति के महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैन संस्कृति ने सर्वाधिक योगदान दिया है। यह उसकी गहन चरित्र-निष्ठा का परिणाम है। बारह व्रतों में अनर्थदण्डव्रत को जोड़कर उसने और भी महनीय प्रतिष्ठा का काम किया है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने का भी उत्तरदायित्व जैनों ने अच्छी तरह निभाया है। उनकी वैज्ञानिक दृष्टि भी उल्लेखनीय रही है। यह तथ्य जैन साहित्य से परिपुष्ट हो जाता है
सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. त्रयो धर्मस्कन्धाः 2.3 2. धर्मं चर-1.11 3. रत्नकरण्डश्रावकाचार-2 4. सर्वार्थसिद्धि-९ तत्त्वार्थवार्तिक ९.२३ 5. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. १५
जलितविस्तरा, पृ. ९०, आवश्यक्सूत्र
मलयवृत्ति, पृ. ५९२, पद्मपुराण १४.१०३-४, महापुराण २.३७, उततराध्ययन चूर्णि३ पृ. ९८, धर्मामृत टीका- ५ प्र. सा. जय. वृ. १-८ आदि। उत्तराध्ययन, २०.३७-३८
6.
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7. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८
8.
भावपाहुड ८१
9.
सूत्रकृतांग, शी. वृ. २.५.१४)
10. धर्मसंग्रहणी - मलयगिरि, वृ. २५
11. उत्तराध्ययन, २५.३२
12. प्रवचनसार, 1.7, 1.14
13. सागारधर्मामृत १.११, धर्मबिन्दु ३-५ 14. बोध पाहुड, २५ नियमसार व ६,
वरांगचरित-१५-१०७, कार्तिकेया ९७
15. दशवैकालिक सूत्र १. १ तत्त्वार्थवार्तिक ६.१३.५ सर्वार्थसिद्धि, ६.१३ जीवाणं रक्खणं धम्मो - कार्तिकेया ४७८
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16. तत्त्वार्थसार, ६.४२, भावसंग्रह ३०६, तत्त्वार्थवृत्ति, श्रुत ६ - १३, ३ धर्मसं. श्री.
१०-९९ आदि ।
दशवैकालिक १.१
17.
18.
19.
20.
21.
धवला पु. ८, पृ. ९२
22.
लाटीसंहिता, ४.२३७-३८
23.
तत्त्वार्थवार्तिक 1.1, पृ. 14
24.
मोक्खपाहुड, ३८ ।
25. उत्तराध्ययन २५.१९.२७
भावपाहुड १४३
तत्त्वार्थसूत्र १.१ ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३
तुकारामचाल, सदर नागपुर - 440001
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जैन कर्म - सिद्धान्त और वंश-परम्परा विज्ञान
सोहनराज तातेड़
लोक या ब्रह्माण्ड (Universe) मुख्यतया दो तत्त्वों-चेतन और जड़ से बना है। इन दोनों का अस्तित्व शाश्वत है। दोनों के पर्याय बदलते रहते हैं, इसी कारण सृष्टि में हर क्षण रूपांतरण होता रहता है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार चेतना व जड़ का तारतम्य अनादि अनन्त काल से है तथा वह तब तक बना रहेगा तब जब आत्मा पौद्गलिक कर्म - बंधनों का पूर्ण क्षय कर मुक्त अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेती।
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार " उपयोग लक्षणो जीवः ।" जीव (आत्माचेतना) का लक्षण उपयोग है। ज्ञान-दर्शन को उपयोग कहते हैं । ज्ञान - दर्शन को आबद्ध करने वाला मुख्य मोहनीय कर्म है । मोह के कारण राग-द्वेष । रागद्वेष के कारण कर्म । कर्म के कारण जन्म-मरण । जन्म-मरण के कारण दुःख की उत्पत्ति | इस प्रकार यह आवृत्ति पुनरावृत्ति होती रहती है । तत्वार्थसूत्र में कहा गया “बध्यते परतन्त्रीक्रियते आत्माऽनेनेति बन्धनम् ।" जिसके द्वारा आत्मा परतन्त्र कर दिया जाता है वह बंधन (कर्म) है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार कर्मबद्ध आत्मा ही नये कर्मों का संचय करती है। मुक्त आत्मा कर्म संचय नहीं कर सकता, क्योंकि उनके कर्म बीज राग-द्वेष पूर्ण नष्ट हो चुके होते हैं। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार आत्मा कर्म का उपादान है । आत्मा कर्म की कर्त्ता तथा भोक्ता है । उपादान तभी व्यक्त होता है जब उसे निमित्त मिले । कर्मों को भोगने के लिए निमित्त बनते हैं- योग ( मन-वचनकाया), वातावरण तथा परिस्थिति । बिना निमित्त के कर्म आत्म प्रदेशों में ही भोग लिए जाते हैं । कषाय ( राग-द्वेष ) योगों की चंचलता बढ़ाते हैं । योग चंचल होने पर कषाय को उत्तेजित करते हैं तथा कर्म योग्य पुद्गलों का बंध होता हैं । इस प्रकार पूरा एक चक्र है । '
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शरीर माध्यम बनता है चेतना की अभिव्यक्ति का एवं कृत कर्मों के भोगने का। स्थूल शरीर का घटक है 'जीन'। सूक्ष्म शरीर का घटक है कर्म। जैसा "जीन" होता है, गुण सूत्र होता है, व्यक्ति वैसा ही बन जाता है। यह जीन सभी संस्कार सूत्रों तथा सारे विभेदों का मूल कारण है । वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) की भाषा में कहा जाता है कि एक-एक जीन का साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए होते हैं तो कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि कर्म स्कन्ध में अनन्त आदेश लिखे हुए होते हैं। अभी तक वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) जीन' तक ही पहुंच पाया है और यह 'जीन' स्थूल शरीर का ही घटक है, किन्तु कर्म सूक्ष्म शरीर का घटक है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस शरीर है, विद्युत् शरीर है। वह सूक्ष्म शरीर है। कर्म शरीर-सूक्ष्मतम है। इसके एक-एक स्कन्ध पर अनन्त-अनन्त लिपियाँ लिखी हुई हैं। हमारे पुरुषार्थ का, अच्छाइयों का, बुराइयों का, न्यूनताओं और विशेषताओं का सारा लेखा जोखा और सारी प्रतिक्रियाएं कर्म शरीर में अंकित रहती हैं। वहां से जैसे स्पंदन आते हैं, आदमी वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है।
प्राण से तात्पर्य जीवन शक्ति है। जिनके संयोग से यह जीव जीवन अवस्था को प्राप्त होता है और वियोग से मरण अवस्था को प्राप्त होता है, उसको प्राण कहते हैं। पांचों ही इन्द्रियों की जो ज्ञान करने की शक्ति है उसे कहते हैं- पांच इन्द्रिय प्राण । मनन करने, बोलने और शारीरिक क्रिया करने की शक्ति को कहते हैं- मनोबल, वचनबल और कायबल। बल और प्राण एक ही हैं। पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करने
और छोड़ने की शक्ति श्वासोच्छ्वास प्राण है। अमुक भव में अमुक काल तक जीवित रहने की शक्ति को कहते है- आयुष्य प्राण।।
प्राण का संबंध पर्याप्ति के साथ है। प्राण जीव की शक्ति है और पर्याप्ति जीव द्वारा ग्रहण किए हुए पुद्गलों की शक्ति है। पर्याप्ति कारण है और प्राण कार्य है। जीव की मन, वचन और काया से सम्बन्ध रखने वाली कोई भी ऐसी प्रवृत्ति नहीं, जो पुद्गल द्रव्य की सहायता के बिना होती है। पांच इन्द्रिय प्राणों का कारण है- इन्द्रिय पर्याप्ति । मनोबल, वचनबल और कायबल का क्रमशः कारण है मनः पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति । श्वासोच्छ्वास प्राण का कारण है- श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति। आयुष्य प्राण का कारण है आहार पर्याप्ति, क्योंकि आहार पर्याप्ति के आधार पर ही आयुष्य प्राण टिक सकता है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार इन दस प्राणों में मुख्य प्राण है- आयुष्यप्राण। शरीर की समस्त क्रियाएं और समस्त अंगों का कार्य संचालन तभी तक संभव है जब तक आयुष्य प्राण क्रियाशील है। इसके समाप्त होते ही समस्त क्रियाएं सम्पूर्ण रूप से बन्द हो जाती हैं जिसे हम मृत्यु की संज्ञा देते हैं।'
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जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है, तब नये जन्म के प्रारम्भ में जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार वह पर्याप्ति नाम-कर्म की सहायता से भावी जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए एक साथ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करती है। इसे या इससे उत्पन्न होने वाली पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते है। पर्याप्तियों का क्रम इस प्रकार है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति । कुल छः पर्याप्तियाँ हैं । छहों ही पर्याप्तियों का आरम्भ एक काल में होता है, परन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है, इसलिए इस क्रम का नियम रखा गया है। आहार पर्याप्ति को पूर्ण होने में एक समय और शरीर पर्याप्ति आदि पांचों में से प्रत्येक को अन्तर्मुहर्त्त लगता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मनः पर्याप्तियों के द्वारा जीव पर्याप्ति के माध्यम से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा एवं मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। उन्हें तदनुरूप परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं। ___वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) के अन्तर्गत 'जीन्स" को जैन-सिद्धान्त के अन्तर्गत शरीर पर्याप्ति के रूप में माना जा सकता है। पर्याप्ति का अर्थ जीवनोपयोगी पुद्गलों की शक्ति के निर्माण की पूर्णता। सबसे कम विकसित प्राणी में कम से कम स्पर्शेन्द्रिय प्राण, कायबल, श्वासोच्छ्वास प्राण, आयुष्य प्राण-कुल चार प्राण तथा आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति- कुल चार पर्याप्ति अवश्य होती हैं। इस प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार प्राणों तथा पर्याप्तियों के योग से प्राणी का जीवन क्रम चलता है। कोशिकाओं में जो वृद्धि विभाजन विशिष्टता (Specialisation) भिन्नता (differentiation) आदि क्रिया होती हैं वे सब इन पर्याप्तियों का ही हिस्सा है। इन पर्याप्तियों का नियन्त्रण कर्मों द्वारा होता है। कोशिका की मृत्यु होती है तथा अनेक कोशिकाओं द्वारा निर्मित बहुकोशीय प्राणी की भी मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु आयुष्य कर्म के हिसाब से होती है। जितना इनका आयुष्य होगा, उतने वर्ष तक जीवित रहेंगे।
व्यक्ति के व्यवहार, आचार, विचार और प्रत्येक क्रिया कलाप का अंकन व्यक्ति के भीतर निरंतर होता रहता है। ऐसा आज विज्ञान की अनेक शाखाएं भी मानने लगी हैं। आज वही अंकन कालांतर से उस व्यक्ति को प्रभावित करता है। भारतीय दर्शनों ने इस अंकन प्रणाली की कर्म-सिद्धान्त के रूप में विस्तृत विवेचना की है। आधुनिक विज्ञान उस अंकन की विभिन्न पद्धतियों और संस्थानों की चर्चा को आधार बनाती है। हमारा मस्तिष्क भी हमारे क्रिया-कलापों को रिकार्ड करता है। हमारी प्रतिरोधात्मक कोशिकायें
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भी उनका अंकन करती हैं और अन्त में उन सभी अंकनों का आधार बनता है संस्कार सूत्र "जीन्स"। इन दोनों के स्वतंत्र अध्ययन से जहां दोनों को समझने में सुविधा होगी, वहीं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समस्याओं को सुलझाने में मार्गदर्शन भी मिलेगा। ____ कर्म सिद्धान्त अति सूक्ष्म है। बुद्धि से परे का सिद्धान्त है। वंश-परम्परा विज्ञान ने कर्म सिद्धान्त को समझने में सुविधा प्रदान की है। जीन व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों के संवाहक है। प्रत्येक विशिष्ट गुण के लिए विशिष्ट प्रकार का जीन होता है। ये आनुवंशिकता के नियम कर्मवाद के संवादी नियम है। यह स्थूल शरीर सूक्ष्म कोशिकाओं (Biological Calls) से निर्मित है। मानव शरीर में लगभग साठ-सत्तर खरब कोशिकाएं हैं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्र होते हैं, जिन्हें क्रोमोसोम (Chromosomes) कहते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र एक लाख जीन से बनता है। जीन सारे संस्कार सूत्र हैं। मानव शरीर की प्रत्येक कोशिका में छीयालीस क्रोमोसोम होते हैं। इन्हें वंश सूत्र की संज्ञा भी दी गई है। जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक कोशिका या बीजकोष (Germ Plasm) में 23 पिता के तथा 23 माता के वंश सूत्रों (Chromosomes) का समागम होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनके संयोग से 16,77,216 प्रकार की विभिन्न संभावनाएं अपेक्षित हो सकती हैं। यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो वातावरण, परिस्थिति, पर्यावरण, भौगोलिकता, आनुवंशिकता, जीन और शरीर की ग्रन्थियों के विभिन्न स्रावों द्वारा रासायनिक परिवर्तन, ये सभी कर्म सिद्धान्त के संवादी सूत्र हैं।
जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयव है और कर्म हमारे सूक्ष्मतम शरीर का अवयव है। दोनों शरीर से जुड़े हुए हैं, एक स्थूल शरीर से और दूसरा सूक्ष्मतम शरीर से। यह सूक्ष्मतम शरीर कर्म शरीर है। मृत्यु का संबंध केवल स्थूल शरीर से है। सूक्ष्म शरीर मरणोपरान्त भी विद्यमान रहता है। जैन दर्शन में जिसे सूक्ष्म शरीर (तैजस, कार्मण) कहा गया है, सांख्य दर्शन में उसे लिंग शरीर कहा जाता है। संसारावस्था में ये निरंतर साथ रहते हैं । इस चर्चा को वैज्ञानिक संदर्भ में इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक पदार्थ की चार अवस्थाएं मानते हैं :-ठोस, द्रव्य, गैस व प्लाज्मा। एक अवस्था और खोजी गई जिसे प्रोटोप्लाज्मा या जैवप्लाज्मा कहा जाता है। अध्यात्म-योग की भाषा में प्रोटोप्लाज्मा हमारी प्राण शक्ति है, जो हमारे अस्तित्व का सटीक प्रमाण है। वैज्ञानिकों का यह कहना है कि प्रोटोप्लाज्मा अमर तत्व है। मृत्यु के पश्चात् भी यह रसायन, जो हमारी कोशिकाओं में रहता है, शरीर से अलग होकर वायुमंडल में बिखर जाता है। वही प्रोटोप्लाज्मा निषेचन की क्रिया के समय 'जीन्स' में शिशु के साथ पुनः चला जाता है।
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वंश परम्परा विज्ञान की भाषा में पृथ्वी में भी कुछ अति सूक्ष्म जीव होते हैं जिन्हें विषाणु (Virus) कहते हैं। ये विषाणु जैसे ही किसी जीवित (Linving Media) माध्यम के सम्पर्क में आते हैं तो इनकी असंख्यात गुना (Infinite) वृद्धि होती है। इनका शरीर एक कोशिका से बनता है जिसे बैक्टीरिया कहते हैं। उसमें एक केन्द्रक होता है। केन्द्रक में D.N.A होता है। उसमें वंश-वृद्धि के गुण होते हैं। इसी कारण यह एक कोशीय जीव चयापचय की क्रिया करता है। वंश-वृद्धि का घटक तत्त्व D.N.A है, जो एक कोशीय जीव में भी पाया जाता है।' क्लोनिंग अर्थात् प्राणी प्रतिलिपिकरण
किसी जीव विशेष का जैनेटिकल प्रतिरूप पैदा करना अर्थात् डोनर पेरेन्ट (नर या मादा कोई एक) की हू-ब-हू शक्ल सूरत (प्रतिलिपि) पैदा कर देना क्लोनिंग कहलाता है। इसे जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार शरीर-नाम-पर्याप्ति कर्म के विपाक का फलित माना जा सकता है। किसी भी जीव के गुणों का निर्धारण उसकी घटक कोशिकाओं के अन्दर स्थित गुणसूत्रों के द्वारा होता है। विभिन्न विकसित प्राणी लैंगिक प्रजनन की विधि द्वारा अपनी सन्तानों को उत्पन्न करते हैं, जिसमें नर एवं मादा की जनन कोशिकाओं के आधे गुणसूत्र (वंशसूत्र) मिलकर एक नई रचना करते हैं जिनमें जनक माता-पिता के गुण मिले रहते हैं। क्लोनिंग में मात्र नर अथवा मादा की सामान्य दैहिक कोशिकाओं के गुणसूत्रों के द्वारा सन्तान उत्पन्न की जाती है जो कि स्वाभाविक रूप से उनके दाता व्यक्ति (जनक) जैसी ही होती है। अविकसित जीवों, पेड़ पौधों आदि में तो यह क्रिया कायिक प्रजनन, अलैंगिक प्रजनन आदि के रूप में प्राकृतिक रूप में पाई जाती है। परन्तु आधुनिक विज्ञानिकों ने विकसित जीवों, चूहों, भेड़ों एवं मनुष्यों तक को इस विधि से उत्पन्न करना शुरू कर दिया है। स्तनधारी पशुओं में क्लोन बनाने ( पैदा करने ) की तकनीक
। प्रत्येक पशु तथा वनस्पति में अनेक कोशिकाएं (Cells) पाई जाती हैं। मनुष्य के शरीर में इन कोशिकाओं की कुल संख्या लगभग 100 खरब हैं। प्रत्येक कोशिका (Cell) अपने आप में पूर्ण जीवित इकाई होती है। कोशिका के केन्द्र में एक नाभिक (Nucleus) होता है जिसे केन्द्रक भी कहते हैं । केन्द्रक के अन्दर उस जीव के गुणसूत्र (वंशसूत्र) होते हैं। मनुष्य की कोशिका में गुणसूत्रों (Chromosomes) की संख्या 46 होती हैं। इन गुणसूत्रों में ही आनुवंशिकी (Heredity) के सभी गुण मौजूद होते हैं . गुणसूत्रों की रचना डी.एन.एन. (D.N.A) तथा आर.एन.ए. (R.N.A) नामक रसायनों
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से निर्मित्त होती है। इन गुणसूत्रों पर जीन स्थित होते हैं। कोशिका के केन्द्रक के चारों और एक जीव-द्रव्य होता है जिसे प्रोटोप्लाजमा कहते हैं ।
नर के शुक्राणु (Sperm Cell) तथा मादा के अण्डाणु (Egg Cell) भी परिपक्व कोशिकाएं होती हैं, इनमें द्विगुणन द्वारा वृद्धि नहीं होती । स्तनधारी पशुओं में लैंगिक (Sexual) प्रजनन होता है । इस प्रक्रिया में शुक्राणु, अण्डाणु के साथ मिलकर (Fu sion) एक नई कोशिका का निर्माण होता है। इस नई कोशिका में द्विगुणन (Copying) करने की क्षमता होती है जिससे वह भ्रूण में परिवर्तित हो जाता है । इस कोशिका के केन्द्र में गुणसूत्रों की संख्या तो 46 होती हैं, लेकिन इनमें से आधे गुणसूत्र नर के तथा शेष मादा के होते हैं। इसके विपरीत क्लोनिंग द्वारा उत्पन्न नई कोशिका में सारे के सारे गुण सूत्र किसी एक ही के होते हैं ।
स्तनधारी पशुओं में क्लोन पैदा करने की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार से है
इसके लिए सर्वप्रथम मादा के एक स्वस्थ अण्डाणु (Egg Cell) को काम में लिया जाता है । इस अण्डाणु (Egg Cell) में से विशेष तकनीक द्वारा केन्द्रक (Nucleus) को अलग कर दिया जाता है तथा उस केन्द्रक - विहीन कोशिका (Protoplasma) को एक सुरक्षित स्थान पर कल्चर मीडियम में डूबोकर रख दिया जाता है। अब हमें जिस प्रकार के जीव का क्लोन तैयार करना है ( उस प्रकार के डोरन पेटेन्ट) त्वचा में से कोशिका (Cell) अलग कर दी जाती है। इस कोशिका के केन्द्रक (Nucleus) को बड़ी सावधानीपूर्वक अलग कर दिया जाता है। इस केन्द्रक को पूर्व में सुरक्षित की गई केन्द्रक-विहीन कोशिका (Protoplasma) में प्रतिस्थापित (Trandplant ) कर दिया जाता है। इस प्रकार एक नई कोशिका पैदा हो जाती है जिसका केन्द्रक डोनर पेटेन्ट की कोशिका का केन्द्रक होता है । इस प्रकार नई कोशिका में गुणसूत्र वे ही होते हैं जो कि डोनर पेरेन्ट (Doner Parent) के होते हैं । यही नई कोशिका द्विगुणन (Copying) द्वारा भ्रूण में परिवर्तित हो जाती है। इस भ्रूण को किसी भी मादा के गर्भाशय में स्थित कर दिया जाता है जहां वह सामान्य रूप से विकसित होने लगता है। इस प्रकार जो नवजात पैदा होता है उसमें गुणसूत्र वे ही होते हैं जो कि डोनर पेरेन्ट के होते हैं, अतः उसकी शक्ल सूरत हू-ब-हू डोनर पेरेन्ट (Doner Parent) जैसी ही होती है यानि कि वह डोनर पेटेन्ट (Doner Parent) की कार्बन कॉपी की होती है। इस प्रकार हम जिसका प्रतिरूप (कॉपी-क्लोन) तैयार करना चाहते हैं उसका केन्द्रक मादा के केन्द्रक - विहीन (Protoplasma) अण्डाणु में प्रतिस्थापित करना होगा । यदि हम नर का क्लोन तैयार करना चाहते हैं तो उसकी कोशिका (Cell) का केन्द्रक और यदि मादा का क्लोन तैयार
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करना चाहते हैं तो मादा की कोशिका का केन्द्रक मादा के केन्द्रक-विहीन अण्डाणु में प्रतिस्थापित करना होगा। जैन कर्म-सिद्धान्त तथा मानव क्लोनिंग
जैन धर्मानुसार जीवन की विभिन्न क्रियाओं, रचनाओं तथा घटनाओं का नियन्त्रण कर्मों के द्वारा होता है। विभिन्न जीवों को मिलने वाले अलग-अलग शरीर, आयु, गोत्र, सुख-दुःख आदि का निर्धारण विभिन्न कर्म करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं की जीवन का पूर्ण संचालन कर्मों के द्वारा ही होता है। वस्तुतः कर्म तो मात्र परिस्थितियों का निर्माण करते हैं किन्तु उन कर्मों के अनुसार आचरण करना या नहीं करना, इसके लिए जीव स्वतन्त्र है। आत्मा कर्मों के कारागार में बंधी अवश्य है परन्तु वह अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों के फल में परिवर्तन कर सकती है। चेतना की स्वतन्त्र शक्ति के द्वारा कर्मों पर विजय पाना ही जिन-धर्म है।
प्रश्न उठता है कि जब वैज्ञानिक ही मानव तथा अन्य जीवों के लिए विभिन्न गुणों का निर्धारण करने लगे हैं तो जैन कर्म-सिद्धान्त कहाँ लागू होता है? शरीर में किसी प्रकार का परिवर्तन करना क्या कर्म-सिद्धान्त को चुनौती नहीं है? इस विषय में यह कहना उचित होगा कि एक अपराधी किसी व्यक्ति का अंग-भंग कर देता है या कोई व्यक्ति शल्यक्रिया के द्वारा अंग परिवर्तित करवा लेता है अथवा कोई मानसिक उपचार के द्वारा अपराधी प्रवृत्ति से छुटकारा पा लेता है या फिर जहर / दुर्घटना से असमय में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो यह सब कर्म-सिद्धान्त के लिए चुनौती नहीं माने जा सकते। यही कार्य अब और भी व्यवस्थित रूप से परन्तु अप्राकृतिक, अनैतिक रूप से क्लोनिंग प्रक्रिया के द्वारा वैज्ञानिक कर रहे हैं। एक समान मनचाहे जीवों को पैदा करने की बात भी बिल्कुल अधूरी है। एक जैसी शक्ल सूरत शरीर बन जाने का यह अर्थ नहीं होता कि उसका व्यक्तित्व और व्यवहार भी एक जैसा हो अर्थात् यह जरूरी नहीं कि अपराधी का क्लोन अपराधी तथा वैज्ञानिक का क्लोन वैज्ञानिक ही बने। लोगों को लगता है कि क्लोनिंग के द्वारा किसी भी जीव को वैज्ञानिक सुनिश्चित रीति से बना सकते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। पहली क्लोन भेड़ का निर्माण इस सम्बन्ध में किए गए 277 परीक्षणों की असफलता के बाद हुआ था तथा मानव क्लोनिंग के 100 में से 1 या 2 मामलों में ही सफलता मिली है।
जो जीव कई बार की असफलताओं के बाद बनते भी हैं तो वह दरअसल वैज्ञानिकों के द्वारा नहीं बनते हैं। वैज्ञानिक तो मात्र एक निश्चित शरीर रचना के अनुकूल
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परिस्थितियां देते हैं। उसमें जीव/आत्मा का आविर्भाव उनके बस के बाहर की है। क्लोनिंग सिर्फ शरीर के स्तर तक जुड़ी हुई हैं जबकि आत्मा तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की सीमाओं से परे है। आत्मा तथा पुनर्जन्म का आभास सत्यान्वेषी अहिंसक मानवों को होता है। इसे अभी वैज्ञानिक भी पूरे आत्मविश्वास तथा प्रमाणों के साथ नकार नहीं सके हैं। कारण स्पष्ट है कि इनके अस्तित्व के सम्बन्ध में संसार भर में असंख्य प्रमाण/ घटनाएं हर समय होती ही रहती हैं।" जैन धर्म तथा प्रौद्योगिकी
जीव विज्ञान की आधुनिक विकसित शाखा जैव प्रौद्योगिकी में मानव जीनोम परियोजना, जैनेटिक अभियांत्रिकी, जैनेटिक सर्जरी तथा मानव क्लोनिंग आदि का अध्ययन, अन्वेषण किया जाता है। इसके नूतन अनुसंधानों के द्वारा जीवों के गुणसूत्रों पर स्थित जीन्स (संस्कार सूत्र) के कई गुण धर्मों का पता चल रहा है। जीवों की विभिन्न दशाओं-बुढ़ापा, अपराध, बीमारियां आदि का नियमन भी इन संस्कार सूत्रों से होता है तथा इनके परिवर्तन के द्वारा मनोवांछित जीवन बनाने का दावा वैज्ञानिक कर रहे हैं। जीनों तथा जैनेटिक कोड के इस गुणधर्म को ध्यान में रखते हुए जैनेटिक कोड्स और कर्म परमाणुओं के बीच सम्बन्धों पर परिकल्पना वैज्ञानिकों को दी गई है जिस पर कुछ वैज्ञानिक व्यापक अनुसंधान भी कर रहे हैं।
पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि जीन तथा जैनेटिक कोड सर्वोपरि नहीं हैं तथा उन पर शारीरिक, पर्यावरणीय, वातावरण, आंतरिक तथा बाह्य परिस्थतियां भी नियन्त्रण रखती हैं। जीवन के क्रियाकलाप उसके स्वयं के शरीर के साथ-साथ दूसरे जीवों के क्रियाकलापों तथा अन्य बाह्य परिस्थितियों द्वारा संचालित होते हैं। इन जीनों तथा इनकों प्रभावित करने वाले उक्त कारण ही अन्ततः कर्म-परमाणुओं की संभावनाओं को सूचित करते हैं जिनके संबंध में वैज्ञानिक वर्ग फिलहाल पूर्णतः मौन है। अगर वैज्ञानिक जैन कर्म-सिद्धान्त को समझकर जीवों के विभिन्न कार्य-सच्चाई-झूठ, अहिंसाअपराध, जीवदया-क्रूरता पर सतत अन्वेषण करें तो वे इस महान् जैन कर्म-सिद्धान्त को सत्य सिद्ध पाएंगे।"
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीव के शरीर की रचना उसके नाम-कर्म के कारण होती है। कोई जीव कैसी शक्ल-सूरत प्राप्त करेगा उसका निर्धारण इसी नामकर्म से होता है। लेकिन यहां तो क्लोन से शरीर की रचना मनुष्य के अपने ही हाथों में आ गई है। हम जैसी शक्ल-सूरत बनाना चाहते हैं, बना सकते है। ऐसी स्थिति में नामकर्म की अवधारणा
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अर्थहीन हो गई है। लेकिन ऐसा सही नहीं है । वस्तुस्थिति समझने के लिए हमें जैन कर्म - सिद्धान्त को गहराई से समझना होगा।
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सबसे पहले तो हमें स्पष्ट करना होगा कि प्रत्येक घटना मात्र कर्म से घटित नहीं होती । आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपनी पुस्तक कर्मवाद में लिखा है- "कर्म से ही सब कुछ नहीं होता । यदि हम कर्मों के अधीन ही सब कुछ घटित होना मान लेंगे तो यह वैसी ही व्यवस्था हो जाएगी जैसी कि ईश्वरवादियों की है कि जो कुछ होता है वह ईश्वर की इच्छा से होता है या फिर उन नियतिवादियों की स्थिति है कि सब कुछ नियति के अधीन है । हम उसमें कुछ भी फेर-बदल नहीं कर सकते । यदि कर्म ही सब कुछ हो जाए तो उनको क्षय करने के लिए न तो पुरुषार्थ का ही महत्त्व रह जाएगा और न ही मोक्ष संभव होगा, क्योंकि जैसे कर्म होंगे वैसा ही उनका उदय होगा और उस उदय के अनुरूप ही हम कार्य करेंगे तथा नए कर्मों का बंधन करेंगे। इससे पुरुषार्थ तथा मोक्ष की बात गलत सिद्ध हो जाएगी ।" अब यह स्पष्ट है कि कर्म ही सब कुछ नहीं है । 12
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आचार्यश्री महाप्रज्ञजी आगे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- " कर्म एक निरंकुश सत्ता नहीं है। कर्म पर भी अंकुश है। कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा- ' किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा' । यह सामान्य नियम है, लेकिन कुछ अपवाद भी हैं । कर्मों में उदीरणा, उद्वर्तन, अपवर्तन तथा संक्रमण संभव हैं जिसके द्वारा कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है । सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा समय से पहले की जा सकती है। कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाया और घटाया भी जा सकता है तथा सजातीय कर्म एक भेद से दूसरे भेद में बदल सकते है । उदय में आने वाले कर्मों के फल की शक्ति को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है तथा काल विशेष के लिए पुनः फल देने में अक्षम भी किया जा सकता है, इसे उपशम कहते है । ' 13
आचार्य महाप्रज्ञजी का मानना है - " संक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है । 14 एक विशेष बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि कर्मों का विपाक (फल) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप होता है । व्यक्तित्व के निर्माण में कर्म ही सब कुछ नहीं होते हैं बल्कि आनुवंशिकता, परिस्थिति, वातावरण, भौगोलिकता, पर्यावरण यह सब मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार पर असर डालते हैं । आयुष्य भी एक कर्म हैं लेकिन बाह्य निमित्त जहर आदि के सेवन से आयुष्य को कम कर दिया जाता है। इसी प्रकार कोशिका (Cell) गुणसूत्रों (Chromosome) में अवस्थिति जीन्स (संस्कारसूत्र ) में परिवर्तन करके शक्ल-सूरत में परिवर्तन किया जा सकता है, क्योंकि जैन-कर्म
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सिद्धान्त के अनुसार संक्रमण द्वारा यह संभव है । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन कर्म - सिद्धान्त के अनुसार मानव जीनोम परियोजना, जैनेटिक अभियांत्रिकी, जैनेटिक सर्जरी, मानव क्लोनिंग द्वारा एक ही शक्ल-सूरत वाले जीव पैदा करना, कोशिका के केन्द्रक को परिवर्तित कर देना संभव है । अतः वंश-परम्परा विज्ञान ( Genetic Science) कर्म सिद्धान्त के लिए कोई चुनौती नहीं है बल्कि जैन कर्म-सिद्धान्त को व्यवस्थित तरीके से समझ लेने पर वंश-परम्परा विज्ञान ( Genetic Science) की व्याख्या जैन कर्म - सिद्धान्त के आधार पर सरलता से की जा सकती है ।
जैन कर्म - सिद्धान्त और वंश-परम्परा विज्ञान (Jain Theory of Karma and Genetic Science) दोनों का गहन अध्ययन व शोध कर जन-मानस तक यह तथ्य उजागर करना है कि हर प्राणी पुरुषार्थ कर संक्रमण के द्वारा अशुभ कर्मों को शुभ में बदल सकता है तथा त्याग, संयम, संवर और निर्जरा के द्वारा स्थूल शरीर के 'जीन्स' के स्वरूप को भी बदला जा सकता है। वंश-परम्परा विज्ञान ( Genetic Science) का शोध कर यह उद्घाटित करना है कि किसी भी प्राणी के जख्मी 'जीन्स' का प्रत्यारोपण कर स्थूल शरीर को उन्नत किया जा सकता है।
सामाजिक उपयोगिता
इस शोध कार्य से संसारी आत्मा की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से चिपकने वाले शुभअशुभ कर्मों की जानकारी मानव जगत को मिलेगी जिससे व्यक्ति अनैतिकता एवं हिंसा करने में संकोच करेगा । प्राणी मात्र के स्थूल शरीर रचना में 'जीन्स' किस प्रकार अपना योगदान देते हैं, जैसा 'जीन्स' वैसा स्थूल शरीर का महत्त्व जन-मानव को प्रकट होगा, जिससे वे अपने 'जीन्स' के शुद्धिकरण के बारे में सचेत होंगे। हमारी आत्मा चिन्तन व पुरुषार्थ में स्वतंत्र है, परन्तु कर्मों की बद्धता के कारण परतंत्र है। आत्मा के पुरुषार्थ से जीव त्याग, संयम, संवर, निर्जरा करके प्राणी अपनी आत्मा की शुद्धि करके स्थायी सुखानुभूति प्राप्त कर सकता है। 'भाव परिवर्तन' द्वारा कर्मों की निर्जरा तथा 'जीन्स' का रूपान्तरण किया जा सकता। इस शोध से जब सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर के शुद्धिकरण का सूत्र जन-मानस के हाथ लगेगा तो वह भावों की शुद्धि करके एक अच्छे समाज, राष्ट्र तथा विश्व का निर्माण कर सकेगा। इस शोध प्रबन्ध में इतनी सामाजिक अर्हता है कि वह वर्तमान भावात्मक युगीन समस्याएं परिग्रह, आतंकवाद, हिंसा, जनसंख्या - वृद्धि, लूटखसोट, कदाग्रह, गरीबी, बीमारी का स्थायी समाधान दे सकता है। इस शोध कार्य से उद्घाटित होगा कि वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) की शाखा क्लोनिंग
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तकनीक के द्वारा मानव के विभिन्न अंगों को प्रयोगशाला में ही विकसित किया जा सकता है, जिससे कई असाध्य रोगों को दूर करने में आसानी होगी। इसके अलावा इस तकनीक से विभिन्न बेकार जीन्स को बदला जा सकेगा तथा बुढ़ापे को रोका जा सकेगा। इसी चिकित्सकीय उपयोगिता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने जनवरी 2001 में मानव क्लोनिंग की इजाजत दे दी है।
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्मबद्ध आत्मा ही नये कर्मों का संचय करती है। कर्म का बीज है-राग-द्वेष । मुक्त आत्मा कर्म संचय नहीं करती। उसके राग-द्वेष पूर्णत: नष्ट हो चुके होते हैं। कर्म क्षय करने में जैन धर्म का पुरुषार्थ एवं प्रयत्न में अटूट विश्वास है। जैन साधना पद्धति का उद्देश्य संवर और निर्जरा के द्वारा कर्मों का क्षय कर मोक्ष की प्राप्ति करना है। संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना तथा उदीरणा आदि के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति को, अनुभाग को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए समता-भाव की साधना, आराधना करते हुए तप रूप निर्जरा को जीवन का अंग बनाना आवश्यक है।
जीन हमारे स्थूल शरीर का अवयव है और कर्म हमारे सूक्ष्मतम शरीर का अवयव है। "जीन्स" व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों के संवाहक हैं। प्रत्येक विशिष्ट प्रकार के गुण के लिए विशिष्ट प्रकार का जीन होता है। यह जीन कर्मवाद के संवादी हैं। वंश-परम्परा विज्ञान में क्लोनिंग तकनीक के द्वारा मानव के विभिन्न अंगों को प्रयोगशाला में ही विकसित किया जा सकता है, जिससे कई असाध्य रोगों को दूर करने में आसानी होगी। इसके अलावा इस तकनीक से विभिन्न बेकार "जीन्स" को बदला जा सकेगा तथा बुढ़ापे को रोका जा सकेगा। संक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है। "भाव परिवर्तन" द्वारा कर्मों की निर्जरा तथा जीन्स का रूपान्तरण किया जा सकता है। निष्कर्ष
वैज्ञानिकों के सामने एक चुनौती है कि जब जीन ही जीव के प्रत्येक कार्य कर नियंत्रण रखता है तब जीन को कौन नियंत्रित करता है ? इसका उत्तर उनके पास नहीं है। इस समस्या का उत्तर जैन दर्शन की कर्म-व्यवस्था द्वारा दिया जा सकता है। इन जीनों (Genes) को कर्म नियंत्रित करते हैं। कर्म ही समय-समय पर जीनों को निर्देश देते हैं कि उन्हें आगे क्या कार्य करना है फिर जीन उसी के अनुरूप कार्य करते हैं यानि कि औदारिक शरीर के निर्माण में जीन कर्म के संवादी तत्त्व हैं।
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सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. तत्वार्थ सूत्र - आचार्य उमास्वाति 2. कर्मवाद - युवाचार्य (वर्तमान आचार्य) महाप्रज्ञ, पृ. 137 3. जीव-अजीव - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 22 4. वही, पृ. 18 5. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृ. 161
आचारांग प्रथम अध्ययन : एक अनुशीलन, पृ. 10 7. वही, पृ. 14 8. जीवन क्या है : डॉ. अनिल कुमार जैन, पृ. 95 9. वर्मा, संजय, विज्ञान प्रगति (नई दिल्ली) मार्च, 2003, पृ. 19 10. अर्हत वचन - अजित जैन 'जलज' जनवरी-मार्च, 2004, पृ. 49 11. जैन अजित जैन 'जलज' कर्म सिद्धान्त की जीव विज्ञानिक परिकल्पना, अर्हत वचन
(इन्दौर) जुलाई, 1999, पृ. 17-22 12. कर्मवाद - युवाचार्य (वर्तमान आचार्य) महाप्रज्ञ, पृ. 132 13. वही, पृ. 102 14. वही, पृ. 132 15. वर्मा, संजय, मानव क्लोनिंग, विज्ञान प्रगति (नई दिल्ली), 2003, पृ. 20
शोधार्थी पारमार्थिक शिक्षण संस्था, लाडनूँ
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पालि-प्राकृत मुक्तक काव्य का
समीक्षात्मक अध्ययन
रजनीश शुक्ल
भगवान बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेशों का माध्यम जनसामान्य में प्रचलित जनभाषा पालि और प्राकृत को बनाया था। उस समय के गणधरों
और श्रुतधरों तथा भिक्षुओं और भिक्षुणियों ने बुद्ध और महावीर के उपदेशों को सुरक्षित रखा था। कुछ समय पश्चात् उन उपदेशों को लेखन के माध्यम से सुरक्षित किया गया। उस समय के अधिकांशतः उपदेश काव्यात्मक शैली में रखे जाते थे, जिससे कि वे आगे भी विद्यमान रहे। पालि और प्राकृत के मुक्तक काव्यों और गीतिकाव्यों में धम्मपद, थेरगाथा, प्राकृत के अनेक मुक्तक ग्रन्थों को विद्वानों ने संकलित करके श्रुत परम्परा को जीवित रखा है, जो कि मानव जीवन के मूल्यों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं।
साहित्यिक प्राकृत का विकास बोलचाल की जन-भाषा से हुआ है। दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृत से हुआ, जैसे वैदिक भाषा या छन्दस् का। यही कारण है कि वैदिक भाषा और प्राकृत में अनेक स्थलों पर सादृश्य प्राप्त होता है। भारत की प्राचीन भाषाओं में प्राकृत भाषाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोक भाषाओं के रूप में प्रारम्भ में इनकी प्रतिष्ठा रही और क्रमशः ये साहित्य और चिन्तन की भाषाएँ बनीं। प्राकृत प्राचीन भारत के जीवन और साहित्यिक जगत की आधार भाषा है। जनभाषा से विकसित होने के कारण और जनसामान्य की स्वाभाविक (प्राकृतिक) भाषा होने के कारण इसे प्राकृत भाषा कहा गया है। भगवान महावीर ने प्राकृत में और भगवान बुद्ध ने पालि (जो कि प्राकृत का एक प्राचीन रूप है) में उपदेश दिये।
लोकभाषा जब जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है तथा उसकी शब्द
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सम्पदा बढ़ जाती है तब वह काव्य की भाषा भी बनने लगती है । प्राकृत में जो आगम ग्रन्थ, व्याख्या साहित्य, कथा एवं चरित्रग्रन्थ आदि लिखे गये, उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है । काव्य की प्रायः सभी विधाओं - महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य आदि को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है ।
मुक्तक परम्परा का प्राकृत काल ईसा की प्रथम शताब्दी से आरम्भ होता है और उसका महाकवि हाल की 'गाहासतसई' जो मुक्तक काव्य जगत का सबसे महान् एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कोष -ग्रन्थ है, इसकी प्रत्येक गाथा अपने आप में स्वच्छंद है। अपनी अर्थ - प्रतीति के लिए वह किसी अन्य गाथा पर अवलम्बित नहीं है। ऐसे मुक्त पद्यों का काव्यशास्त्रीय नाम 'मुक्तक' है। मुक्तक वह पद है जो स्वतः निरपेक्ष रहते हुए पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति में समर्थ हो, काव्य के लिए अपेक्षित चमत्कृति इत्यादि विशेषताओं से मुक्त हो, अपनी काव्यगत विशेषताओं के कारण जो आनन्द देने में समर्थ हो, जिसका गुम्फन अत्यन्त हो और जिसका परिशीलन ब्रह्मानन्द-सहोदर रस की चर्वणा के प्रभाव से हृदय की मुक्तावस्था को प्रदान करने वाला हो । काव्य के संदर्भ में 'मुक्तक' की यही परिभाषा है ।
हमारी दृष्टि से मुक्तक ऐसी रचना को कहते हैं जिसके पद्य या छंद परस्पर निरपेक्ष हों एवं उसमें पौर्वापर्य संबंध का अभाव हो । इसमें रस का पूर्ण प्रवाह हो अर्थात् मुक्तक काव्यरस से आपूर्ण हो । इसमें उक्ति वैचित्र्य या अभिव्यक्ति सौन्दर्य का विधान किया गया हो। इसमें कार्य का आत्मानुभाव व्यक्त होता है अर्थात् जब कवि अपनी विशेष क्षण की अनुभूति को अत्यन्त तीव्रता के साथ अभिव्यक्त करता है तो उसमें आत्मनिष्ठा का समावेश हो जाता है। ऐसी ही आत्मभिव्यंजक रचना मुक्तक काव्य है । मुक्तक में भाव वैभव एवं कलात्मक संपत्ति का समग्र वेग रहता है। इसमें रस परिमाप के अतिरिक्त कवि का व्यास चमत्कार प्रदर्शन की ओर भी रहता है । कवि रसात्मक आवेग से भरकर हृदयगत भावों की व्यंजना करता है । अतः उसमें पाठकों के मनोवगों को तरंगित करने की अधिक शक्ति होती है । मुक्तककार अपनी रचना में चातुर्य का प्रदर्शन करके पाठकों के हृदय में रस की धारा प्रवाहित कराने की अपेक्षा छोटे-छोटे छीटें ही उठाने में अपना कर्तव्य मान लेता है ।
पालि और प्राकृत भाषा में काव्य-रचना प्राचीन समय से ही होती रही है । आगम ग्रन्थों एवं शिलालेखों में अनेक काव्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है । प्राकृत भाषा के कथासाहित्य एवं चरित्र ग्रंथों में भी कई काव्यात्मक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं । पादलिप्त की तरंगवती-कथा तथा विमलसूरि के पउमचरियं में कई काव्यचित्र पाठक का ध्यान
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अपनी ओर आकर्षित करते हैं । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग भी इसमें हुआ है।
भारतीय वाङ्मय में पालि, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं में मुक्तक काव्य, गीतिकाव्य, महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य की रचनाएँ की गयी हैं । पालि में उदान, धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय आदि तथा प्राकृत ग्रन्थों में आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ, भगवती आराधना, सेतुबंध कुमारपालचरित, गउडवहो, कंसवहो, कुवलयमालाकहा, समराइच्चकहा आदि अनेक तरह के काव्यों और कथाओं की रचना की गयी है ।
प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा मुक्तक काव्यों की ओर पाठक अधिक आकृष्ट होते हैं । इसका प्रमुख कारण है मुक्तकों का अनेक प्रकार के श्रृंगार आदि रसों से पूर्ण होना । मुक्तक के प्रत्येक पद की स्वतन्त्र सत्ता होती है और वे स्वतन्त्र रूप से भाव व्यक्त करने में भी सक्षम होते हैं। इन मुक्तकों की शब्द शैली में भावों की प्रधानता होती है । मुक्तक काव्य में भाव सहज संप्रेषणीय होता है ।
पालि साहित्य में मुक्तकों की दृष्टि से खुद्दक निकाय के धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । इन सबमें तत्कालीन जन-समुदाय की रुचि, व्यवसाय, विद्या, कला, विज्ञान, राजनीति, ग्राम, नगर, जनपद, लोगों का रहन-सहन, खेती, व्यापार, सामाजिक रीतियाँ, समाज में स्त्रियों का स्थान, दास-दासियों और नौकरों की अवस्था प्रभृति अनेक उपयोगी विषयों का समावेश इसमें मिल जाता है । प्राकृत भाषा में लिखित मुक्तक या गीतिकाव्य के ग्रन्थों में आगम और उनके व्याख्यात्मक साहित्य के अतिरिक्त गाथासप्तशती, वज्जालग्गं, गाहाकोष, आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं जिनका प्रभाव परवर्ती मुक्तक काव्य परम्परा, शतक, सूक्ति एवं सुभाषितकारों पर भी दिखाई पड़ता है । हमने अपने इस शोधप्रबन्ध को पाँच अध्यायों में विभक्त किया है। जिनका संक्षेप में परिचय निम्न प्रकार है:
हमने शोध- प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में भाषा के विकासक्रम में पालि भाषा और प्राकृत भाषा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्राकृत साहित्य और पालि साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों की समीक्षा कर मुक्तक के स्वरूप को स्पष्ट किया है।
द्वितीय अध्याय में पालि और प्राकृत के मुक्तक ग्रन्थों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इससे यह ज्ञात हुआ है कि प्रमुख रूप से संयुक्त निकाय, धम्मपद,
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सुत्तनिपात, थेरगाथा और थेरीगाथा आदि पालि के मुक्तक काव्य कहे जा सकते हैं। इसी अध्याय के दूसरे अनुच्छेद में हमने प्राकृत और अपभ्रंश परम्परा के मुक्तक ग्रन्थों की समीक्षा की है, जिसमें जैन आगम साहित्य के मुक्तकों के अतिरिक्त गाथासप्तशती और वज्जालग्गं प्राकृत के प्रमुख मुक्तक ग्रन्थ सुनिश्चित होते हैं । इस अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि प्राकृत के अन्य काव्य ग्रन्थों में भी अनेक मुक्तक गाथाएँ उपलब्ध हैं। इस अध्याय के अन्त में संस्कृत के प्रमुख मुक्तक ग्रन्थों और भाषाओं के प्रमुख मुक्तक ग्रन्थों की भी समीक्षा की गयी है। ___ तृतीय अध्याय में हमने पालि और प्राकृत के भाषा में रचित विभिन्न ग्रन्थों में धर्म के विविध रूपों का विवेचन किया है। उनमें जब हम आगमिक परम्परा के साहित्य का अध्ययन करते हैं तो विशुद्ध रूप से धार्मिक मुक्तकों का स्वरूप भी स्पष्ट होता है। इसमें से पालि व प्राकृत के आगम व लौकिक काव्यों में धार्मिक मुक्तकों का विषयवार चयन किया गया है। ये धार्मिक मुक्तक किसी धर्म विशेष की बात नहीं करते हैं परन्तु धर्म को कैसे धारण किया जाये, इसका प्रतिपादन करते हैं। जो मनुष्य अपने जीवनकाल में इन धार्मिक विचारपरक सुभाषितों को पढ़कर, सुनकर अपने जीवन में उतार लेता है, वह अपना धर्म सभी लोकों में प्रकाशित कर पुण्य अर्जित करता है।
पालि व प्राकृत के ग्रंथों में निम्न प्रकार के धार्मिक कथनों का चयन किया है। यथा-अप्रमाद, अहिंसा, अहंकार, त्याग, कर्म, कषाय विजय, कामभोगों पर विजय, तप, धर्म, दर्शन, ध्यान, नम्रता, क्षमा, अपरिग्रह, पुण्य, ब्रह्मचर्य, मृदुता, मंगलाचरण, शील, सत्य आदि। जैनागमों तथा पालि त्रिपिटक के ग्रन्थों में प्रमाद त्याग के संबंध में अनेक स्थलों पर विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है। अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य शिक्षा के लिए बाधक हैं। अविनीत, स्वादु, क्रोधी और कपटी शिक्षा देने के योग्य नहीं होते। मनुष्य जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ कहा गया है। पूर्व संचित कर्मों के क्षय के लिए ही मनुष्य देह धारण करनी चाहिए। बोलने के पहले जो कुछ बोला जाये, उस पर विचार कर लेना चाहिए। कभी ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए जिससे कलह बढ़े। झठे और कठोर वचन से सदा दूर रहना चाहिए। जो अप्रमत्त होता है वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जिन्हें तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय है वे स्वर्गलोक अथवा मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जो बिना धर्माचरण किए परलोक जाता है वह अनेक व्याधियों से पीड़ित होकर अत्यंत दु:खी होता है।
__ नैतिक और आचारमूलक मुक्तक काव्यों में गौरवशाली जीवन व्यतीत करने के लिए शरीर की क्षणभंगुरता, सत्य, शम, दम, विवेक, विद्वत्ता, विद्या का महत्त्व, मनस्विता,
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तेजस्विता, भक्ति, विनय, क्षमा, दया, उदारता, शील, संतोष आदि विषयों का पालि प्राकृत के मुक्तक काव्यों में विस्तार से विवेचन किया गया है । इन काव्यों में सज्जन, दुर्जन, यश- अपयश, आत्मप्रशंसा, साहस, धैर्य, मित्रता, परोपकार, वीरता आदि का भी कथन किया गया है। वस्तुतः नीतिपरक मुक्तकों में शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में निरूपण किया जाता है। मनुष्य के जिस व्यवहार से उसका स्वयं का हित तथा संसार का उपकार होता है, उसे आचार कहते हैं । वेदों और आगमों में जो धर्माचरण आदि का व्यवहार किया जाता है वही आचार है । आचरण ही परमधर्म है 'आचारी परमधर्मः ' ।
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पालि मुक्तकों में जहाँ प्रेम को दुखों का कारण, आसक्ति का माध्यम होने से लोग धर्म साधना में इसको बाधा मानकर प्रेम से दूर रहने का संकेत करते हैं वहीं प्राकृत मुक्कों में प्रेम को श्रृंगार के माध्यम से अनेक कवियों ने इसका अपने ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन किया है। रूप सौन्दर्य को पाने के लिए प्रेम की आवश्यकता होती है। रूप के प्रति कवियों ने आसक्ति व्यक्त की है। प्रेम दो व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधता है, लेकिन प्रेम को सदा एकरूप होना चाहिए। इस अध्याय के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन के अनेक अनुभव हैं जो मनुष्य को पग-पग पर विभिन्न रूपों में शिक्षा प्रदान करते हैं । पालि और प्राकृत गाथाएं पर्याप्त समृद्ध हैं।
शोध प्रबंध के चतुर्थ अध्याय में पालि प्राकृत की समीक्ष्य मुक्तक गाथाओं को काव्यात्मक और भाषात्मक दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । इस अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि इन मुक्तकों को प्रमुख छंद गाथा छंद रहा है । यद्यपि इसके अतिरिक्त छंदों का प्रयोग मुक्तकों में हुआ है। इन मुक्तकों की काव्यात्मक सुषमा की श्रेष्ठता के कारण अलंकारों के उदाहरणों के रूप में प्राकृत मुक्तकों के काव्यशास्त्रीय रूप में प्रस्तुत किया है। हमने इस संबंध में कतिपय अलंकारों के उदाहरण शोध-प्रबन्ध में दिये हैं। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि पालि प्राकृत मुक्तकों में प्रायः सभी रसों का समावेश पाया जाता है। इनमें श्रृंगार रस के अतिरिक्त शांत और भक्ति रसों की प्रधानता है। इन समीक्ष्य मुक्तकों की भाषा प्रमुख रूप से महाराष्ट्री प्राकृत है। इनमें देशी शब्दों का प्रयोग भी पाया जाता है।
शोध-प्रबन्ध के पंचम अध्याय में पालि प्राकृत के मुक्तकों का सांस्कृतिक दृष्टि से भी अध्ययन किया गया है । अध्ययन में प्रयुक्त मुक्तक गाथाएँ विभिन्न कालों में लिखे गये पालि प्राकृत ग्रन्थों की हैं। अतः इन मुक्तक गाथाओं की सांस्कृतिक सामग्री किसी एक समयावधि की नहीं है और न ही एक प्रकार की । फिर भी इन मुक्तकों में जो सामाजिक
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व सांस्कृतिक जीवन उपलब्ध होता है वह लोक जीवन के अधिक नजदीक है। इस अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार में अनेक सदस्य प्रेम-भाव से रहते थे। गृहिणी परिवार की केन्द्र बिन्दु थी। धार्मिक संस्कार परिवार में बने हुए थे। आर्थिक जीवन श्रम और कृषिकर्म पर निर्भर था। शिक्षा और कला के अन्तर्गत परम्परागत विषय सम्मिलित थे।
इस प्रकार इस शोधप्रबन्ध में पालि प्राकृत मुक्तक काव्यों के गहन अध्ययन द्वारा भारतीय साहित्य की एक स्वतंत्र विधा का विश्लेषण करने का प्रयत्न है तथा मुक्तकों के माध्यम से तत्कालीन काव्यशास्त्रीय अभिरुचि और संस्कृति की समीक्षा उपस्थित की गयी है।
जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर
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Ācārānga-Bhāsyam
by Ācārya Mahāprajña Taiam Ajjhayaṇam - Sīosaņijjam
CHAPTER-III ENDURANCE OF COLD AND HOT
SECTION -4
3.71 se vamtā koham ca, māņam ca, māyam ca, lobham ca. The aspirant purges himself of anger, pride, deceit and greed. Bhāśyam Sutra 71 Now, instruction is being given for the path of freedom from the labyrinth of the visible and the invisible worlds. The monk who is tolerant of the affliction of (the twins like) cold and heat is spiritually freed due to his being free from the passions. The passions are four viz., anger, pride, deceit and greed. Of these, the anger is the mentality due to physical attack and like. Pride is the mentality due to self-exaltation. Deceit is the mentality of cheating. Greed is the mentality arising due to hankering and possessiveness. The aspirant desirous of emancipation purges' all these four kinds of passions. The implication is that he calms down or uproots these passions. 3.72 eyam pāsagassa damsaņam uvarayasatthassa
paliyamtakarassa.
This is the doctrine of the seer who has abandoned the weapon of violence and eliminated the destructive karmas.
TCRA
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Bhāsyam Sūtra 72 The purging of the passions is the doctrine of the seer. The seer sees everything because he has done away with the destructive karma. Here the reference is to Lord Mahāvīra. The weapon is twofold: physical and non-physical. Fire etc. are physical weapons. The non-physical weapons are passions and non-restraint (see 1.19). “The fire, poison, salt, fat, alkali, acid are (physical) weapons. The evil mind, speech and body and also non-abstinence are the non-physical weapons. The person who eschews all these weapons is the ‘eschewer of weapons'. The person who puts an end to the obstructive karmas is the 'end-maker'. The person who has eschewed the weapons is (also) the 'end-maker'. The end-maker is a seer. This (i.e., purging of the passions) is the substance of his doctrine. 3.73 āyānam (nisiddhā?) sagadabbhi. The person who inhibits the passion destroys his past karma. Bhāoyam Sutra 73 There should not be any doubt that one must experience (the result of) karmas that one has acquired. How is it possible to make an end of his karma? (The reply is: It is possible to make an end of the karma acquired in the past if one can stop the intake of the new ones. The intake of the new ones means the passions (that are responsible for the new ones). The person who inhibits (and destroys) the passions is competent enough to destroy the karmas bound in the past. On such inhibition, the inflow of new karmas is stopped and the karmas acquired in the past are also destroyed. The implication is that for the purpose of such destruction, the passions must be inhibited. 3.74 je egam jāņai, se savvam jāņai, je savvam jāņai, se egam jāņai. He who knows one knows all. He who knows all knows one. Bhāsyam Sutra 74 The adjective 'one' here is without any definite substantive. The word ‘passion' follows here from the preceding Sūtra. The person who knows a single passion, such as the passion of anger, knows the nature of all the
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other passions. The person who knows all the passions, knows the essence of one passion. The first step towards the release from passion is the comprehensive knowledge of that particular passion. The person who does not know (the nature of passion) can not be expected to strive for its inhibition or elimination. This is the ethical view -point. In the Cūrņi and the Vrtti, the present Sūtra has been explained from the doctrinal standpoint. There are four limbs of the scriptural method of exposition, viz., ontological disquisition, ethical disquisition, mathematical disquisition, didactic narrative disquisition. Every sūtra is to be propounded from all these four angles of vision. The doctrinal standpoint, therefore, is also not irrelevant in the present context. The opinion of the Cūrņi (p. 126). the person who knows only the substance called jīva or only the substance called ajīva in all ‘modes - past, future and present - (knows all substance). The disciple may have asked : 'O Lord! does the person who knows only 'one' also knows all too?' (The reply is:) 'Yes'. Here the modes of the jīva and the ajīva are to be explained to the disciple to show how the understanding of one substance with all its modes is sufficient enough to know all other substance in all their modes.? This has been explained in some detail in the Vrtti (patra 155) - "If any person, whosoever, examines any atom or any other sbustance in its present and future mode or its own or alien modes is capable of knowing all its own and alien modes. This is so because there is universal concomitance between the knowledge of all things and the knowledge of all the past and future modes of a substance.? The person who knows all the things in the womb of the world necessarily knows the single thing like the jar. The single object through its different modes past and future assumes different natures in the beginningless and endless time and thus passes through the nature of every substance. As has been said - "The past and the future modes, both substantial and verbal of a single entity constitute the entire reality of the substance." (Sanmatitarkapra karaṇa, 1.31). All the substances are interrelated spatially and temporally. And therefore the knowledge of any one particular substance requires the knowledge of all others.
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Jinbhadragani Kșamāśramaņa says that one cannot know the single letter “Ā” without knowing the entire world of objects. ( Višeşāvaśyaka Bhāsya gāthā, 484).6
Maladhāri Hemcandra has supported this as follows: A person knowing a single object in respect of all its own and alien modes is capable of knowing all objects is the cosmic and transcosmic universe, in all their own and alien modes. This is so because there is universal concomitance between the knowledge of one object and the knowledge of all objects. Conversaly one who knows all objects in all their modes knows one object in all its modes, because there is concomitance between the knowledge of all and the knowledge of one (Ibid, gāthā 484 vrtti).'
3.75 savvato pamattassa bhayam, savvato appamattassa natthi bhayam. The non-vigilant has fear from all sides; the wakeful has no fear from any side. Bhāsyam Sutra 75
By means of the knowledge of the nature of the passions, one is convinced of the truth that a non-vigilant person is subject to fear from all sides. “All sides” means in respect of substance, space, time and mode. In respect of substance, the fear pervades all the soul-points; in respect of space, from all six directions; 'in respect of time' means; each moment', ‘in respect of modes' means ‘in all states of existence'.
The person who is overwhelmed by attachment or aversion, or by anger, pride, deceit and greed is non-vigilant. The person under the sway of attachment incurs a fear lest he should have bereavement from his dear ones. The person under the sway of aversion has the fear of meeting an undesirable situation. In a similar way, fear pervades the passions of anger and the like. There is no fear for the person who is evenly disposed towards the desirable and the undesirable objects. The implication is that wherever there is the activity of passions, there must be fear. And wherever there is no passion, their reigns fearlessness.
3. 76 je egam nāme, se bahum nāme, je bahum nāme, se egam nāme. One who tranquallizes any one passion traquillizes all; one who tranquillizes all passions tranquillizes any one of them.
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Bhāsyam Sūtra 76 The topic under discussion are the passions. The purging of passions is twofold - (1) calming down and (2) eliminating. In the spiritual science, suppression is not approved of, but purging is recommended. There is an order in the calming down of the passions which is explained here. One who tranquillizes one of the passions virtually tranquillizes all. According to the Cūrņi, "calming down' and 'tranquillizing' are synonyms. 8 'Tranquillizing' means calming down the deluding karma in its tweny eight sub-species. The aspirant who calms down a single subspecies of passion such as anger, virtually calms down the remaining ones, namely, the twenty seven sub-species. The calming down of anger and the like is effected by the practice of the antidotes, the reflections and the practice of the yogic postures and the like (such as breathing exercise). The elimination is done only once but the calming down is done many times. The person who calms down all the passions does ipso-facto calm down the single passion - anger and the like. 3.77 dukkham loyasa jāņittā Comprehending the misery of the world, one should avoid its cause namely passion. Bhāsam Sutra 77 Here purging qua elimination is under discussion. If a person practices the spiritual discipline on comprehending the nature of misery and its ultimate cause, his various passions are naturally destroyed. After comprehending that the world is afflicted with misery, one should search out the basic cause of that misery. Conventionally misery consists in unpleasurable feeling, whereas truly speaking misery consists in the karma that is responsible for unpleasurable feeling. 3.78 vamtā logassa samjoga, jamti vīrā mahāhānam.
pareņa param jamti, nāvakamkhamti jīviyam. Severing the relationship with the world, the heroes tread on the great path. They advance further and further, and have no hankering for life.
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Bhāsyam Sūtra 78 The world consists of everything other than the pure self, such as fortune, progeny, body and the like. The relationship with the world stands for the connection with the sense of 'mine'ness which is the cause of karmic bondage. Therefore, the valiant ones who purge the relationship with the world treads on the great path of spiritual discipline. The great path is the great way that is identical with the ladder of elimination (of deluding karma)'. Alongwith the abandonment of the relationship with the world, there is progressive advancement towards the great path. It has, therefore, been said in the scripture that the aspirant moving toward the great path gradually attains the radiant colouring, as for instance in the Bhagavati Sūtra (14.136)' in the following dialogue“O Lord! Whom do the bondless ascetics presently ordained, surpass in radiant colouring?" "O Gautama! The bondless ascetic of one months' standing surpasses the forest gods in radiant colouring. “The bondless ascetic of two months standing surpasses the palace dwelling gods, excepting Asurendras, in radiant colouring. "Similarly the bondless ascetic of three months' standing surpasses that of the asurkumaras; of four months' standing that of the luminous gods like the planets, asterisms and stars; of five months' standing that of the lords of luminous gods and rows (galaxy) of luminious gods like the moon and the sun; of six months' standing that of the Sohamma and Isāņa gods; of seven months' standing that of Sanatkumar and Māhinda gods; of eight months' standing that of Bambhaloga and Lantaga gods; of nine months' standing that of the Mahāsukka and Sahassara gods; of ten months' standing that of the Anaya, Pāņaya, Arana and Acchuya; of eleven months' standing that of the Gavajjaga gods; of twelve months' standing that of the Anutarovavaiya gods. **Thereafter they become sukka (white) and sukkābhijāya (perfectly white) and are emancipated, enlightened, released, freed and put an end to all sufferings.'' Such ascetics do not hanker after life. The craving for life is the strongest disposition in the world. They are freed from such hankering also. They do not desire for a long worldly life, nor for a life of unrestraint and addicted to sensual objects and passions.
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3.79 egam vigimcamāṇe pudho vigimcai, pudho vigimcamāṇe egam vigimcai. One who eliminates one eliminates all; one who eliminates all eliminates one. Bhagyam Sūtra 79 The aspirant climbing the ladder of elimination while engaged in eliminating a single passion like anger, does eliminate all others. Here, entire process of eliminating the karma should be understood in accordance with the treatises on the science of karma." Conversely speaking, while eliminating all varieties of passions, the aspirant eliminates everyone passion. 3.80 saddhi āņāe mehāvī. The aspirant informed with faith, following the instruction of scriptures, grows in intelligence. Bhāsyam Sūtra 80 Here the Sūtra expounds the first competence of the monk aspiring to climb up the ladder of elimination. A person of deep faith is competent to tread on the great path. Faith"? means eagerness for emancipation. Only a person of deep faith, develops dread for worldly life and strives for elimination of karma. This is explained in the following dialogue in Uttarādhyayana (29.2): “What does an aspirant produce by means of dread for worldly life, O Lord?”
"By means of such dread he produced supreme faith in the discipline. By means of the supreme faith in the discipline, the dread is fulfilled quickly and the aspirant eliminates never-ending anger, pride, deceit and greed. Consequently, he does not bind any new karma. On account of the destruction of the passions, he purifies his perversity and becomes the practiser of the faith. On the purification of his faith, some aspirants attain emancipation in that very life. Some again, on the gradual purification of the faith do not cross the limit of the third life for attaining emancipation.”13
Now the second competence for emancipation is shown. The monk grows in intelligence on account of his faithfulness to the scriptures. The monk
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whose intelligence with respect to the subtle objects follows the commandment is capable of attaining the great path. The aspirant who is bereft of faith is the denouncer of the doctrine. He propounds the subtle subjects that are knowable only through the scripture by logical arguments devised by himself or his wavered power of reasoning. This is explained in the Sanmatiarkaprakaraṇa (3.45) as follows : **The persons who propounds the logical issue through logic and scriptural issues though scripture is the genuine propounder of the scriptures. Others are denouncers of the doctrine.”:14 Briefly put, a person endowed with faith grows in intelligence through the study of the scriptures.s 3.81 logam ca āņāe abhisameccā akutobhayam. Properly understanding the world of passions according to the commandment of the Jina, one become fear-free from all directions. Bhāsyam Sūtra 81 "World' in this context stands for the world of passions. One who engages in activities in conformity with the words of the omniscient is not confronted with from any quarters, and as such, he experiences the state of fearlessness in all respects. The chief cause of fear is suffering, the chief cause of suffering is passions or non-vigilance. As it has been said in Țhāṇam: "What is the source of fear to creatures?” "Suffering is the source of fear to creatures." “Who is the maker of suffering, O Lord?” "The soul produces all of his suffering on account of his non-vigilance."'16 There is no suffering for the person who has calmed down or rooted out the passion. And the person who has no suffering is absolutely freed from fears.
3.82 atthi sattham pareņa param, natthi asattham pareņa param. Weapons are deadlier and deadlier endlessly but the non-weapon has no gradation, being uniform and identical always.
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Bhāoyam Sūtra 82 The succeeding weapon is deadlier than the preceding one. It is quite evident that the atomic weapons are deadlier than the weapons of the stone-age. There is uniformity or identity in the case of non-weapons, there being no gradation. In the present context, 'weapon' stands for passion, that has degree of intensity," rising upto infinity. This explains the types of passions, such as the one causing endless transmigration, and the like with gradual diminition of intensity. Non-weapon means non-passions, that is, self-restraint or equanimity.
The attitude of non-violence cannot be mild towards some creatures, intense, towards others, or more intense, or of higher and highest intensity to others. But the attitude of non-violence is uniform towards all creatures, there being no degrees of it. The implication is, whatever disparity there is, is due to the passions. The development of the weapons is also due to the passions. So long as there is no subsidence or elimination of it, it is futile to talk of mental peace or world-peace.18 . 3.83 je kohadaņsī se māņadaņsī, je māņadamsi se māyadaņsi.
je māyadamsi se lobhadaņsi, je lobhadaņsi se pejjadaņsi. je peijadaņsī, se dosadaņsī, je dosadamsi, se mohadaņsī. je mohadamsi se gabbhadamsī, je gabbhadamsi se jammadamsi. je jammadamsi se māradamsi, je māradamsi se nirayadamsi.
je nirayadamsi se tiriyadaņsi, je tiriyadassi se dukkhadamsi. He who sees anger sees pride, he who sees pride sees deceit; he who sees deceit sees greed, he who sees greed sees love; he who sees love sees hatred; he who sees hatred sees delusion; he who sees delusion sees (conception in) the womb; he who sees conception sees the birth; he who sees the birth sees hell; he who sees the hell sees animal life; he who sees the animal life sees suffering. Bhāsyam Sūtra 83 Previously, in the Sūtra 77, the “Comprehension of the suffering of the world” was mentioned. In the present Sutra the basic causes of suffering are explained. In the previous Sutra, the gradation of weapons was simply indicated. But here the weapon is demonstrated in a direct manner.
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The person who perceives anger, that is indulges in it, does also perceive pride. In the same way, there is invariable relation of deceit with pride, greed with deceit, love with greed, hatred with love, delusion with hatred. This is the chain of weapon. The creature experiences transmigration due to this chain. The sequence - birth from womb, death from birth, hell and animal life from death, the mutual relation to be understood according to the propriety. The ultimate result of this transformation is suffering If one wants to know the nature of suffering, one should know the nature of anger too, and so on upto the passion of delusion. So long as the latter are not known, the nature of suffering in its genuineness can not also be known. If the suffering is to be avoided, the anger should be avoided at the outset, and so upto delusion. The avoidance of suffering is not possible without getting rid of the aforesaid factors. Accordingly it has been said : 3.84 se mehāvi abhinivattejjā koham ca, mānam ca, māyam ca, loham
ca, pejjam ca, dosam ca, moham ca, gabbham ca, jammam ca, māram ca, naragam ca, tiriyam ca, dukkham ca. The intelligent monks should avoid anger, pride, deceit, greed, love, hatred, delusion, conception, birth, death, hell, animal
life and suffering. Bhāșyam Sutra 84 The intelligent monk desirous of avoiding suffering, should avoid anger etc. in the following order - he should first of all expello anger, cast off and sever connection with it. The person who has cast off anger, has also severed pride and the like, upto suffering. 3.85 eyam pāsagassa damsaņas uvarayasatthassa paliyamtakarassa.
This is the doctrine of seer who has abandoned weapon of
violence and eliminator of destructive karma. Bhāśyam Sutra 85 See Bhāșyam 3.72 3.86 āyāṇam ņisiddhā sagadabbhi. The person who inhibits the passion destroys his past karma.
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Bhāsyam Sūtra 86 See Bhāșyam 3.73 3.87 kimitthi uvāhī pāsagassa na vijjai?
natthi. - tti bemi. Is there any adjunct in a seer? There is non. - Thus I say. Bhāsyam Sūtra 87 The adjunct e.g. contaminating factor, means the state of soul which is governed by passion. To the query whether all the souls are infected with the contaminating factor, a further query arises as to whether the seer (Jina)° has any such factor? The Lord answered negatively. The aspirant who only knows and sees (without any reaction) is not subject to the rise of passion, nor is he subject to any kind of contamination of karma. The moment of the experience of delusion is the moment of contamination. The knower or the seer experiences the state of freedom from delusion, and consequently, is not amenable to any kind of contamination - Thus I say.
2.
Reference:
Ācārānga Cūrņi, p. 126 : vamaņamti vã vireyanamti vă vigimcaņamti vā egasthā. Ācārānga Cūrņi, p. 126 : jo egam jīvadravyam ajīvadravyam vā atītānāgatavastamāņehim savvapajjaehim jāņai, sisso vā pucchati - bhagavam! jo egam jāņai so savvam jāņai? āmam, ettha jīvapajjavă ajīvapajjavā ya bhāņiyavvā. Ācārānga Vrtti, Patra 155 : va kaścidaviśesitah ekam paramānvādi dravyam paścātpuraskặta-paryāyam svaparaparyayam vā jānāti - paricchinatti, sa sarva svaparaparyāyam jānāti, atītānāgataparyāyidravyaparij(ñ)ānasya samastavastuparicchedāvinābhāvitvät Snmatitarkaprakaraṇa, 1.31 : egadaviyassa je atthapajjavā vayaņapajjavā vāvi. yīyāṇāgayabhūyā tāvaiyam tam havai davvam So developed is the knowledge of a person who has cognised the tritemporal modes of one substance that he is capable of cognizing all substances and vice-versa.
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8.
The substances have two kinds of modes: (i) inherent and (ii) externally derived Unless both of these are fully comprehended, even a single entity cannot be fully known. The comprehension of one entity through both kinds of modes leads one to the comprehension of all entities. The spiritual significance of this sūtra can be expressed thus: One who knows the soul knows everything, and vice-versa. Višeşāvaśyakabhāsya, gāthă 484 : *egam jāņam savvam jāņai, savvam ca jāņamegam ti. iya savvamajāņamto, nāgäram savvahã muņai. Ibid, gāthā 484 Vrti : ekam kimapi vastu sarvaiḥ svaparaparyāyaiḥ yuktam jānan - avabhudhya-mānaḥ sarvam lokālokagatam vastu sarvaiḥ svaparaparyāyairyuktam jānāti, sarvavastuparijñā ananāntarīyaktvād ekavastujñānasya yaśca sarvam sarvaparyāyopetam vastu jānāti sa ekamapi sarvaparyāyopetam jānāti, ekaparijñānā vinābhāvitvāt sarvaparijñānasya. Ācāränga Cūrņī, p. 126 : uvasamaņamti vā ņāmaņam vā egatthā. “There are four classes of gods: forest, palace dwelling, luminous and empyrean. The colouring of boundless ascetics increase in radiance along with the increase in their monastic standing. Gradually the ascetics develop their radiance and finally surpass the gods of the highest heaven." Ācārānga Cūrņi, p. 127 : egam anamtāņubamdhim koham savvaāyappadesehim vigimcimto, vigimciņamti vā vivegotti vā khavaṇatti vã egatthā. Pamcama Karmagrantha, Kșapakaśreņi Dvāra, gāthā 99, 100 Pātañjalayogadarśana 1.20 bhāsyam - śradhã cetasaḥ samprasādaḥ, sa hi jananīva kalyāņi yogi-nam pāti. Uttarajjhayaņāṇī, 29.2 : ‘samvegenam bhamte! jīve kim jaņayai? ‘Samvegeņam anuttaram dhammasaddham jaņayai. aṇuttarãe dhammasaddhāe samvegam havvamāgacchai, aṇamtāņubamdhikohamānamāyālobhe khavei, kammam na bamdhai, tappaccaiyam ca nam micchattavisohim kāünam damsanārāhae bhavai. damsanavischie ya ņam visuddhāe atthegaie teneva bhavaggahaņeņam sijjhai. sohie ya nam visuddhãe taccam puno bhavaggahaņam nāikkamai. Sammatitarkaprakarana 3.45: jo heuvāyapakkammi heuo āgame ya ägamio. Jo sasamayapannavao siddhamtavirāhao anno.
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(a) Gītā 4.39: śradhāvān labhate jñānam. (b) Uttarajjhayaṇāņi 28.30: nādamsaṇissa nāṇam.
Amgasuttāni I, Thāṇam, 3.336: 'kambhayā pāṇā ? samaṇāuso !.....' 'dukkhabhaya pāṇā samaṇāuso!' 'se nam bhamte dukkhe kena kade ? 'jīvenam kade pamādeṇam.
Amgasuttāni I, Thāṇam, 4.84-87
Malice, hatred, wrath, etc. are various weapons, whereas friendliness, forgiveness, tolerance, etc. are means of disarmament. Different weapons have different degrees of destructiveness. As for example, X is less inimical to A, more inimical to B, still more inimical to C and so on and so forth. Thus does the intensity of enmity of X towards other persons vary. This shows that the edges of weapons have different degrees of bluntness or sharpness.
Violence is not only committed by the use of weapons but it itself is a sort of weapon. Violence means lack of self-discipline. One whose senses and mind are not under his control is a weapon to every living being. Abstinence from violence is a non-weapon i.e. a means of disarmament. Ones own restraint towards all living beings is nonviolence. One whose senses and mind are under his control does not act as a 'weapon' all living beings.
Acārānga Cūrṇī, p. 128: nivvaṭṭanamti vā chiņņaṇatti vā egaṭṭhā. logevi jahā egeṇappahāreņa hattho nivvaṭṭito pādo vā, jam bhaṇitam - chiņņā. Acārānga Vṛtti, patra 158: 'paśyakasya' kevalinaḥ 'upadhiḥ' viseṣaṇam, upadhīyate iti vopādhiḥ, dravyato hiraṇyādiḥ, bhāvato' ṣṭaprakāram karma, sa dvividhopyupadhiḥ kimastyähosvinna vidyate? Nāstīti.
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Higher Education and National
Development
Dr Anil Dhar
India is a land with an ancient culture and traditions, with records of significant contributions to education, science and technology during several periods of its history. The countryâs significant contribution in the field of mathematics, astronomy, metallurgy, shipbuilding. architecture and town planning in ancient and medieval times bears testimony to the highly developed state of education and science in the country up to about the 16th century. Foreign invasion and colonialization affected the growth of both education and science in the country for the next four centuries. · The British introduced to India the modern educational system based on a traditionally western model, and also established a number of institutions for higher education. After British regime higher education in India has expanded very rapidly in the last five decades. At the time of independence we had only 20 universities, today we have more than 300 universities and 1500 colleges. The Indian system of higher education is one of the largest in the country and the system is expanding year after year. And as we are in the invited stage of our journey in the 21th century, we find that higher education is gaining greater importance; it is drawing more attention and attracting higher investment than before from the governments all over the world. Questions have been raised on, and committees and commissions have been appointed to examine the role of higher education and research in the context of modern development. In addition, since the governments (particularly in India) treat higher education not as a social service but as an investment, there has been increasing
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emphasis on relevance and matching education and research with the needs of the development and economy. Even in the field of higher education, every pursuit must have purpose. Excellence too must satisfy the test of relevance. The goal of higher education is not to award degrees only on the basis of indifferent instruction and dubious and unreliable system of education. The goal rather is to develop the younger people of the country in such a manner that they not only have a satisfying personal life but can also make a worthy contribution to the progress of the society to which they belong. The institution of higher education is a platform to provide all round development of the students intellectual, physical, moral and spiritual; development of the mind, body, heart and personality; disseminate knowledge, promote skills and develop outlook so as to produce young persons who are intellectually alert, physically strong, morally upright, aesthetically sensitive, socially committed and economically self reliant. Higher education is a sector of crucial importance in the overall development of the countries. In the developing countries, the relevance of its contribution to national development transcends the narrow notion of only preparing persons for the current and anticipated labour market. There is the other dimension of higher education as the ágenerator and preserverâ of the intellectual and cultural resources of a country and as a medium which sustains the flow of knowledge, technology, inventiveness. In the education policies of the countries, higher education should be viewed as an integral part of national development. Development not only as economic growth, rather it comprehended áopportunities to allâ people for better life, with mass as the end of development and the instrumentâ. Higher education and development are linked in a variety of ways. First, education is a human right, the exercise of which is essential for individual development and fulfillment. The individualâs capacity to contribute to societal development is made possible and enhanced by his or her development as an individual. In this higher education is also a basic need. It is also a means by which other needs, both collective and individual, are realized. Then, education is the instrument by which the skills and productive capacities are developed and endured. All these interrelationships of education and development are inseparable from the conceptions of educational policies. The role of education is socio-economic development, has been
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universally acknowledged. It is also well established fact that higher education contributes towards the development of competencies required by a nation in all expects of life. It is higher education which prepares the human resource for the professions, for the administrative and defence services, for business and industry, for teaching and the health services and for leadership in all walks of life. In educational set-up higher education has special importance because it provides ideas and men to sustain all other facets and levels of education. The quality and pace of development of any nation depends on the ideological climate it is able to generate, the perceptions of history, culture, tradition and values a nation acquires and confidence it has in human capability to overcome problems of material and spiritual life. And, it is precisely rare that the intelligentsia and higher education have a unique role. Higher education supplies the wide variety of increasingly sophisticated and ever changing manpower. The self-reliant and endogenous character of an economy can only be maintained when competent people are available to foresee, plan and execute research and development activity necessary to keep us abreast of developments in the world. Higher education is of paramount importance for economic and social development. Institutions of higher education have the main responsibility for equipping individuals with the advanced knowledge and skills required for positions of responsibility in government business and the professions. These institutions produce new knowledge through research serve as conducts for the transfer, adoption and dissemination of knowledge generated elsewhere in the world, and support government and business with advice and consultancy services thus proving the capability to piller the national development. The important goal of national development can be said to be the enhancement of production accompanied by distribution of goods and services with a view to ameliorate poverty, create conditions of social justice and thus strengthen the foundations of a socialist and democratic state. The goals of national development translated in human terms imply the cultivation of a personality with knowledge and awareness not only in the special fields but also of culture, tradition and the needs of our people, a personality endoured with values which would promote socialism, national integration, secularism and scientific temper together with enthusiasm to change society through personal commitment and involvement. In other words, our concept of national development goes far beyond economic growth: the concern for creating a cohesive and vibrant nation out of people speaking different languages, professing
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different religions, possessing a variety of cultures is equally great. In this sphere, higher education has to be the mainstay of our endeavour. An important part of the role of higher education in national development is the improvement of the education system itself. Rainy at the apex of the education system and representing a unique concentration of highly qualified staff, its major contribution to other levels of education lies in the training of educational personnel and research. Through research institutions of higher education can provide a crucial service to the education system. Research in the educational sciences from the foundation of education as a body of knowledge, and is an important source of educational renewal. It is interdisciplinary in nature, and has its origin in the confluence of different disciplines i.e., psychology, sociology, anthropology, economics, conflict management and peace sciences, management sciences and communication sciences. The output of research in other disciplines may also have a bearing on education and training. Relevant results from these endeavours can guide overall politics as well as the daily operation of the education system. It has been stated in world bank report 1994 that higher education investments are important for economic growth. They increase individuals productively and incomes, and also produce significant external benefits such as longterm returns to basic research and to technology development and transfer. Now, as higher education proves to be an important plateform for national development, it qualifies for complete production and propagation from the governmental center. But, unfortunately higher education in Indian policy is considered as non-merit good with a few factors of productivity as compared to elementary education, thus disqualifying higher education from subsidies. It is patently unacceptable that subsidies should be governed by economic considerations alone. Being associated with strong externalities, education qualifies for large subsidies. Higher education improves occupational mobility, and voluntary compliance to law and social responsibilities. It contribute to the productive efficiency of the system and a more equitable income distribution. Almost the entire progress that the country has made sometimes international agencies tend to reinforce doubts about higher education and counterpoise it prioritywise, against elementary education. We should be cautions in this respect and reaffirm that there ought to be a proportionate and harmonious development of the various levels of education, so as to optimize educationâs role in ensuring social change. There can be no a priori formula for sharing of resources between these levels, but what
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proportions have come to be established in the developed countries could be a general guide to us. A study of this kind would show that we have to go a long way in providing adequate funds for higher education. And since the various levels are also interdependent it is not possible to say one level is more important than the other. It is the view of the commission that inadequacy of funds provided for education as a whole quite of less leads to the claim the higher education with a greater per capita expenditure is depriving elementary education of what is its due. Almost the entire progress that the country has made in the last fifty years has been made possible by the planning and work of the intellectuals who have been the beneficiaries of higher education and that the same individuals would not have been able to contribute what they did without exposure of higher education. If the number and quality of persons with higher education falls, the countryâs progress will be greatly hampered. Not only is the quantity important, it is the quality of a few individuals which at times determines long term benefits to the nation. Already India has one of the lowest access rate for higher education less than 6% of the eligible age-group of 18 to 23 years pursuing for higher education (compared to nearly 50% in the U.S.A.). And, the expansion of higher education introduces philosophy counter to that underlying the traditional role of producing a small áeliteâ to provide intellectual leadership to the community at large. In contrast, the widespread availability of higher education, by its very nature, helps a society and its people to democratize the nations building processes. In conclusion it can be said that our problems are structural problems. We will have to tackle the problems by doing some changes in our structure mainly in population dynamics and ownership our factors of productions leading to diversification of economic activities. Higher education can play a vital role in this respect. Higher education cannot remain confined to the procession of degree and diplomas, vocational and professional training to the individuals but it will have to recourse with the system with the structure so that the problems may be studied, analyzed and possible cure options may be recommended for a better future. India has higher education to play a vital role for national development. In the present changing global scenario of liberalization and competition, India in the coming years, is poised to become more and more integrated into the world economy. For survival and prosperity, the work force will
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need to maintain higher quality skill and scientific temper, which will keep our technology and products at par with international standard. Higher education justifies it relevance by remaining the principal avenue through which a developing country can attain all-round progress. As problems grow more complicated in a society, higher education becomes more important, not less, as a resource for solution of difficulties.
Reference Books:
1. Education in Asia and the Pacific, Raja Roy Singh.
2. The contents of education, S. Rassekh, G. Vaideanu.
3. Solving Education Problems, R.G. Havelock, A.M. Huberman. 4. Educational planning as a social process, Thierry Malan.
5. Educational Planning in context of current development problems, Unesco Publication.
6. State Funding of Higher Education, AIU Publication.
7. Decentralisation of Higher Education System, AIU Publication.
8. State Funding of Universities, Mridula.
9. Report on National Colloquium on Right to Education as a Fundamental Right, AIU, Publication.
10. Universities and Research, AIU, Publication.
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Asst. Professor
Dept. of Non-violence and Peace Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun 341 306 (Rajasthan)
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Application of Meditation in the field of
Astrological Treatment
Dr Chintaharan Betal
As the term 'Astrology' denotes the meaning 'to show the light' or to show the light for liberation'; its practical aspect announces that human beings must be conscious of the soul within them. This will pave the way of actual awakening of the inner sun and the inner solar system which brings forth the real light of the world. It is possible only by way of spiritual integration and fortunately it is inherent in astrology and its symbolism.
Indeed, the astrological chart is the symbolic representation of subtle body through seven chakras. These chakras are the centres of consciousness and their positions correspond in the physical body reflect the seven planets of the solar system. Nodes (Rahu & Ketu) are shadowy and have no special consideration in Vedic astrology.
Regular practice of meditation on these centres provide the practitioner an immense energy for acquiring a strong immunity power to diseases and also the elevated level of consciousness. Each of these dynamic centers are the medium of link between the cosmic energy of physical world and human body, mind and personality. By meditating on these centres (chakras), psychophysically; a strong and good health can be achieved whereas spiritually; a state of pure consciousness is developed. The state is ideal for unification of individual consciousness with the physical universe i.e., global consciousness and this unified state is beyond the influencing area of planets. Introduction
The scope of wisdom buried in our ancient literature is so immense and diversified that the problems of any dimension of
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human life can be solved easily. It is, however, to be regretted that under the influence of modern technology and western culture we are neglecting our own knowledge that has been cognized and given us by the ancient sages of our country.
Astrology is, undoubtedly an oldest system of Vedic knowledge. It's base is Cosmology æthe stars; movement of the universe and their influence on living and non-living objects. It is the astrology which put forth a relation of inner mind and soul (i.e., individual consciousness) with the physical universe (i.e., global consciousness). The act of unifying such relation is termed as 'Yoga' (union) in Indian philosophy. Therefore, yoga is the practical aspect of astrology and without understanding the significance of this practical aspect, the very purpose of astrology remained unfulfilled Objective of the Study
As the term ‘Astrology' denotes the meaning to show the light' or 'to show the light for liberation,'the aim of the present study is to highlight the holistic means of liberation from the negative influences of planets which manifest in the form of ill health, mental aberration, difficulties and obstructions in individual life and epidemic, cataclysm, war and aggression on collective level.
Individual can not go on safely by increasing some theoretical knowledge or by maintaining his usual life style unless a good harmony and a good coordination is established with the cosmos. Indeed, an individual needs a practical daily way of adjustment with the cosmos and its influences. Such techniques of adjustments are occult and spiritual because in astrology, one's inharmonic relation is equalize by using the subtle forces come from objects like gems, colours, metals and herbs and more internal methods of ritual, mantra and meditation. If Individual is unable to adopt such things on a daily basis, knowledge of astrology may not be able to change his life. Astrology and Health
Connection of human being with the universe if not grasped properly, it will not be possible to ward off the negative effects of cosmic forces or to draw in those which are benefic. One's relationship with the stars is the relationship with the cosmos, with his psyche and with his inner self. The great time cycle or ‘Kalachakra' are related to special planetary conjunctions and as a lord of time, the planets are the lord of karma or
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destiney. They transmit cosmic rays or energies that individuals are developing and thereby determining their nature of destiney. If individuals are unable to develop the cosmic energies in accordance with the 'laws of nature' they may be susceptible to both physiological and psychological disorders. The fact explains the secrecy that why a correlation is found between the particular disease and the specific position of a planet in the birth chart of a native. (Frawley, 1990).
The whole universe is a cosmic body, existing as pure consciousness (Brahman) and is produced, sustained, governed by it and dissolved in it. In other words, consciousness pervade the entire universe and it animates all organic and inorganic matter. Human body and mind also follow the same principle and is directly related to the cosmic body, cosmic mind and cosmic consciousness of Brahman. The difference in degrees of life in lower and higher organism is merely due to the degrees in the quantum of consciousness and three fold nature or gunas (i.e., sattvika, rajsika and tamsika ). These three gunas indulge human being to different nature of actions in accordance with their dominance and produce the cycle of karma and rebirth. It is the karma which explains the diversity and individuality of human being. Karmic residuals are responsible for transmigration as it causes the state of bondage of the subtle body i.e., the 'soul'. In this way, connection of the soul is disrupted form the true soul. Due to lack of self knowledge (i.e., the knowledge about the Atma) and the true cosmic knowledge (i.e., the knowledge of the Brahman), individuals are moving randomly in the darkness of ignorance and struck down by negative encounters of cosmic energies. Consequently, they are suffering from traumas of life like disease, conflict, war, accident and pre- mature death.
Astrology- the science of enlightenment not only shows our bondage to time (kala) but also indicates proper way of liberation from it. The law of karma states that an individual himself is responsible for a state in his life; even the condition of birth and childhood. Naturally, as he has created the situation so he can transcend them as well. If he adopt the technique of purifying the actions of his body, mind and speech (on which the nature and quantity of karmic matter depend), all the adversities of life can be avoided. If individual become aware of the comic forces working upon him, he can reintegrate these power within himself. Thus, he can escape from dangerous diseases and navigate safely in cosmic ocean of life.
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By virtue of the specialized knowledge of Medical Astrology (a branch of astrology ), astrologers can diagnose about the planets which are disease makers and what kind of diseases may occur in near future. Conventional therapeutic techniques in Astrology
Generally, astrologers adopt the following techniques: (i) Gem therapy: It is the most conventional of all the techniques
of astrological therapy. The gems corresponding to the colours of planets are used to redirect planetary influences in a positive
way (Frawley, 1990). (ii) Mantras (Words of power): Mantras are power full means of
treatment inherited by Sages and other Man of God directly form the supreme. It is an occult formula to eradicate various
worries, troubles and desires (Pahwa, 1998). (iii) Yantras (power of diagram): Yantras are possess a special
energy pattern and is the visible form of mantra on one side and the planet on the other to which it (yantra) corresponds
(Frawley, 1990). (iv) Special rituals (Pujas and homes): As the planets are
considered as living entity in astrology, pujas and homes are conducted to please them so that their malefic influences can be minimized or avoided. But there is also a scientific reason behind homes. During homes, many kinds of perfumed items are ignited collectively. The smoke and gases released form them produce a special kind of antibiotic which sterilize the surrounding. Thus, disease producing factors are destroyed
and a pure environment is availed (Shrivastava, 2001). (v) Herbs and metals: Some times astrologers suggest their clients
to use herbs and metals to alleviate the malefic nature of
planets. In addition to these, right diet, right colour of dresses, right location, right living pattern, observance of fast are also included as therapeutic ingredients in astrology.
The above stated conventional methods of astrological therapies aim at the alleviation of malefic nature of planets, yet they found many inherent complexities.
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Shortcomings of Conventional Astrological Treatment
In case of gem- therapy, a number of factors delimit its use. The quality of gems is a questionable factor because ordinary people are not well acquainted with the grades of gems. It may cause side effects if not properly diagnosed. Gems may be cracked, lost or wasted in the business of life. They are valuable and beyond the purchasing power of poor. Besides, the effect of gems is unidirectional. Single gem is usable only to mitigate the functions of a single planet. Similarly, yantras, metals and herbs are also useful form single point of view. Observance of special rituals are the subject of financial expense and separate programmes to be conducted for separate planet. Mantras are, though, more beneficial, yet chanting of mantra without devotion becomes mechanical and expected result will not be visible.
Under this situation, astrologers need a holistic technique of treatment which must have an all round beneficial effect. At this crucial point of history i.e. on the eve of third millennium, people of almost all professions in every continents are experiencing anxiety, chronic restlessness, dangerous disease, marital maladjustment in the midst of all materialistic sufficiency. Hence, they should incline to arise their 'inner potential power' through the practice of meditation.
Meditation as a holistic technique of Astrological Treatment
In Vedic astrology, it is mentioned that adjustment to one's subtle environment is indispensable to treat astrological maladies and it is possible only through the practice of meditation and yoga (Frawley, 1990). The great sages of ancient time fore tell every things about the universe by virtue of their elevated level of pure consciousness. What science, politics, economics and sociology are trying to achieve now, the science of astrology had been viewed it centuries ago by virtue of pure consciousness achieved through meditation.
Practice of meditation and recitation of mantra is the tradition of vedic culture. Sages like Parasara, Garga and Vragu have mentioned the effectiveness of meditation and yoga in the eradication of negative planetary influences. Currently Yoga and Meditation is ganing popularity among the physicians and therapists as they are treating their patients to cure from illness and mental aberration (Pahwa, 1998).
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A number of inherent qualities which ennoble the preference of meditation to other conventional techniques of astrological remedies are under laid.
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Meditation is a powerful technique for integrating body, breath, mind and consciousness and hence it is a method for understanding the deeper level of consciousness.
Practice of meditation helps to arise and strengthen the potential power of the practitioner. By arising this infinite latent power one is able to purify his consciousness and thereby eliminates all the negative tendencies of body, mind and speech (Yatiswarananda, 1989).
Extending the range of consciousness one can harmonize the functions of the solar system within and outside the body. Thus, the negative influences of planets are easily counterpoised. In fact, the outer solar system is the reflection of our inner one and anything that occurs in the solar system is also occurs within our body (Shastri, 1999). Once this harmonized condition is achieved, it will no longer be a problem to avoid any inconsistency between microcosm and macrocosm. Thus a disease free life can be achieved.
On the physical level, meditation revitalize each bodily cell, facilitates digestion, makes respiration more efficient and promotes circulation of blood.
On the mental level, by increasing and strengthening will power it helps to treat serious psychosomatic illness without medicines.
On emotional level, it harmonizes the functions of nervous system and regulates the secretions of endocrine system. Hence, all the psychological distortions are disappeared (Mahaprajna, 1994).
Finally, meditation is a secular, self-sustainable, expense less technique and its effect is multi dimensional.
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Application of Meditation for astrological healing in various Indian concepts
Meditation, like any other sciences has both the theoretical as well as practical aspects. Just as the aim of other science is to discover new form of energy in the outer world, so also meditation aims at to connect individual with new forms of energy in his mind and deeper consciousness. Therefore, meditation provides tools and techniques to reach at the deeper level of his consciousness so that individual can deal with the negative forces of his subtle environment. This technology does not consists of material equipments or complex machines but it is a way of harnessing energy to improve one's relationship with the cosmos and the forces within him. Keeping in view this fact, meditation has been considered as a technique of astrological treatment directly or indirectly in various dimensions of Indian knowledge since ancient days.
(i) Vedic Concept: According to vedic astrology, the astrological chart can be used to depict the subtle body through seven chakras. These chakras are the centres of consciousness and their positions corresponds in the physical body to points along the spinal cord. The six chakras are energy centres of the subtle body; reflects the seven planets around the sun (Table 1). The sun and the moon are considered as a single planet and both of them are coincided with the third eye centre (Ajna chakra) (Frawley, 1990).
Practice of meditation on these centres provide the practitioner an immense energy which help to acquire a strong immunity power to diseases, for example, if one meditate on the solar plexus (Manipura charka), it accelerates the functions of digestive organs and improves the ability to secrete enzymes which process food. At the solar plexus (Manipura chakra), aggression, assertiveness, fire, heat, digestion, assimilation and active metabolism and other qualities are intermix in such a way that it cuts across our separate concepts of what is physical, what is physiological and what is psychological (Rama. et al, 1990). Similarly, each of these dynamic centres are the medium of relationship between the cosmic energy of the physical world on the one hand and human body, mind, and consciousness, on the other.
The seventh charka or the head centre (Sahasrara) is beyond this system. It transcends the six centres (i.e., third eye, throat centre, heart centre, nevel centre, sex center and root centre) and movement of the time cycle (kala chakra). It is the symbolic centre of pure consciousness
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and if and individual achieved this state of consciousness, he reaches beyond the influencing area of planets.
(ii) Concept of Lesya Dhyan (Perception of Psychic Colour) in Jain Yoga : According to Jain philosophy, colour is the most unique process of catharsis for cleansing the body. Hence, lesya dhyan (perception of psychic colour) may be a very useful technique to cure somatic illness and mental imbalance. It is also useful for modifying modes and behaviour because colour effects the conscious, subconscious, and unconscious mind of an individual. The radiant energy of bright colours neutralize the waves of thoughts, uncertainties and obstructions in life. Lesya dhyan is helpful to regain and maintain physical, mental and emotional health as well as spiritual progress (Mahaprajna, 1989).
It is not a mere theoretical tenet but can be used as a comprehensive and holistic astrological theraphy to cure all evil effects of planets. Exponents state that it is an efficient theraphy for remedying spiritual incompleteness and reducing inner discord.
TABLE-1 Relation of planets and signs with the centres of energy (chakras) of human body according to ancient yoga and vedic astrology Energy Centres (Chakras) Planets Signs 6. Third eye (Ajna)
Sun and Moon Leo and cancer 5.Throat centre (Visuddhi) Mercury Gemini and Mithuna 4. Heart centre (Anahata) Venus Taurus and Libra 3.Navel centre (Manipura) Mars Aries and scorpio 2. Sex centre (Svadhisthana) Jupiter Pisces and saggitarious 1. Root centre (Muladhara) Saturn Aquarius and Capricorn
(Source: The Astrology of Seers by D. Frawley, Motilal Banarsidas Publications, Delhi)
(N.B. Nodes (i.e., Rahu and Ketu) are considered as shadowy planets and Rahu's function is similar to Saturn and Ketu's Mars. So in vedic astrology they are not considered separately).
Therefore, lesya dhyan can be used as an alternative technique of gem theraphy whose principles is also based on colour. If an individual perceive a specific colour on particular energy center of the subtle body during meditation he can alleviate the malefic influences of the related
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planet. The theoretical concept displays a good relationship among the various energy (psychic) centres of the body and the planets with their corresponding colours (Table-2).
(Table-2)
Coincidence of planets on different energy centres (chakras) of human body and planet's corresponding colour to be perceive during leshya dhyan.
Energy Centres (Chakras)
6. Third eye
(Ajna)
Planets
Sun
Moon
5. Throat centre
(Visuddhi)
Mercury
4. Heart centre
(Anahata)
Venus
3. Navel centre
(Manipura) Mars
2. Sex centre
(Svadhisthana) Jupiter (Muladhara)
1. Root centre
Saturn
Transparent blue
(Source: The Astrology of Seers by D. Frawley, Motilal Banarsidas Publications, Delhi)
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Colours
Rising sun Red
Full moon White
Green
(ii) Transcendental Meditation as a technique of Astrological Treatment
His Holiness Maharishi Mahesh Yogi found an excellent correlation between human physiology and the various contents of astrology. His concept has been elaborately discussed by Dr. Tony Nader in his book ǎHuman physiology: Expression of Veda and the Vedic literatureä. According to Maharishi, any problem of human life whether it is personal or collective; it is due to the violation of natural law' (i.e., the laws which structure life at the individual and social levels and which maintain an integrated, balanced and holistic functioning in the infinite diversity of the universe). Natural law, when violated due to lack of awareness (or due to low level of consciousness) creates an imbalance in personal as well as social life. Therefore, a complete knowledge of natural law on the level of personal experience expands individual's awareness which encompasses and enlivens the whole range of balance from point to infinity
Transparent white
Red Like Fire
Light Yellow
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(i.e., from individual consciousness to global consciousness). The concept reveals the fundamental law of astrology. The practical aspects of astrology is to maintain the balance and union between the cosmic energy and the energy of the body. This process of unification is termed as yoga (union). The state of unification can only be achieved through the attainment of self-referral (pure or absolute) consciousness (Mahesh Yogi, 1995).
Transcendental Meditation, as propounded by Maharishi Mahesh Yogi is the self-sufficient source of unbounded consciousness and pure knowledge. It's infinite organizing power gives an ability to a practitioner to make a balance between the inner solar system and the solar system of the outer world. Therefore by practicing Transcendental meditation the real aim of astrology can be achieved. Discussion
It is already mentioned that astrology is not only concerned with the intellectual knowledge about the stars, their movements and consequent effects of human beings but also it tries to establish one's relation with the divine and cosmic forces that working upon him. The cosmic effect on human being is for all year round. Unless Individual's life is maintained in harmony with the cycle and rhythm of nature and reciprocal relationship between individual life and cosmic life is taken into consideration, there will never be possible to run a happiest and peaceful life. One's life will be the victim of inevitability of suffering, imperfection and unfulfilment.
Contemporary astrologers are use to adopt a number of materialistic techniques to ward off the negative planetary influences on human being. But as the planets act at the subtle level, materialistic treatment can not yield any satisfactory result. Hence, the real remedy lies in the arena of spiritual practice like meditation. As the practice of meditation uplifts the level of consciousness, individual can equalize the subtle forces; coming from the planets. Conclusion
In conclusion, it can be stated that through the practice of meditation, one's ability of perception becomes too subtle and therefore an infinite awareness is achieved. Once this state is acquired, individual will make out every rhythm, every waves and every mystery of nature. Thus his relation with the nature become so intimate that his each and every step will be in accordance with the laws of nature. Now owing to full support of nature, there will be no suffering, no obstruction and no misery in life.
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References
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Mahaprajana, Y. (1989). 'Perception of Psychic Colour', JVB, Ladnun, Rajasthan.
Mahaprajana, Y. (1994). Preksha Dhyana: theory and practice. 3rd edi, JVB, Ludnun, Rajashan.
Pahwa, S.P. (1998). Astrology- The soul of all, Nov., Vol.-34, P.20.
Rama, S. Ballentine, R, and Ajay, S. (1990) “Yoga and Psychotheraphy: The evolution of Consciousness', Himalayan International Institute of Yoga Science and psychology, Pennsylvania, USA.
Shastri, N.C. (1999). “Bharatiya Jyotish', 28th ed., Bharatiya Jnanpith Publication, New Delhi.
Shrivastava, R. C., (2001). Durbhagya our Samashyao Se Bachao kaise, Vishva Tantra Jyotish (Hindi) Feb.,P.77.
Yatiswarananda, S. (1989). Meditation and Spiritual Life' Shri Ramkrishna Ashram, Bangalore, Karanatika.
Yogi, M.M. (1990). 'Chetna', Age of Enlightenment publication, New Delhi.
Yogi, M.M. (1995). Maharishi Forum of Natural Law and National Law for Doctors', Age of Enlightenment publications, New Delhi.
Regular guest lecturer Yoga Centre Rani Durgawati University Jabalpur (M.P.)
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