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________________ have at present neither any acess to a commentry prior to the one mentioned above nor to any mathematicale works of Jaina authorship which is earlier to Ganitasara samgraha. So under these circumstances. I shall be excused if I reserve this matter for further research.14 ___आयंगर (1967)15 उपाध्याय (1971)16 अग्रवाल (1972)7 जैन लक्ष्मीचन्द्र (1980)18 ने अपनी कृतियों/ लेखों में इस विषय का व्यापक ऊहापोह किया है। स्थानांग सूत्र के विगत दो-तीन दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में यह विषय स्वाभाविक रूप से आया है। किन्तु सभी (सटीक संस्करणों) में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है । जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में तीन पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परम्परानुरूप ही है। संलग्न सारणी क्रमांक-1 में मैंने इस गाथा के दसों विषयों का पारम्परिक अर्थ दत्त का दृष्टिकोण तथा आधुनिक सन्दर्भ में उपयुक्त अर्थ प्रदर्शित किया है इस विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य गाथाओं का उल्लेख भी आवश्यक है। आगम ग्रंथों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक (9 वीं श.ई.) ने सूत्रकृतांग की टीका में पोंडरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उघृत की है। गाथा निम्नवत् है : परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे (सवन्ने ) य। (पुद्गल) जावं तावं घणे य घणे वग्ग वग्गवग्गे य।" ...... टीका के सम्पादक महोदय ने उपर्युक्त गाथा की संस्कृत छाया निम्न प्रकार की है। परिकम्मं रज्जु राशिः व्यवहारम्तया कलासपर्णश्च। पुद्गला: यावत्तावत् भवन्ति घनं घनूमलं वर्गः वर्गमूलं। ...... ये स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या दस ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पोत के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है अर्थात् यहा पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं। शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। संस्कृत छाया को देखने से स्पष्ट है कि गणित अध्ययन के विषय 11 हैं अर्थात् परिकर्म, व्यवहार, रज्जु, राशि, कलासवर्ण, पुद्गल, यावत्, तावत, घन, घनमूल, वर्ग एवं वर्गमूल । बोस ने अपनी पुस्तक में उपर्युक्त गाथा (6) को उद्धृत किया है किन्तु उसके आधार पर नीचे जो विषयों की सूची बनायी गयी है, उसमें पुद्गल को हटाकर विकल्प तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 - - 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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