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________________ #wi ono वर्ग स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि 11वीं श.ई. द्वारा की गई। उन्होंने स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट किया1. परिकम्म संकलन आदि 2. ववहारो श्रेणी व्यवहार या पाटीगणित 3. रज्जु समतल ज्यामिति रासी अन्नो की ढेरी कलासवण्णे भिन्न जावत् तावत् प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन वग्गो 8. घणो घन 9. वग्गवग्गो चतुर्थ घात 10. कप्पो क्रकचिका व्यवहार दत्त13 (1929) ने लगभग 900 वर्षों के उपरांत उपर्युक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। यद्यपि दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे, तथापि व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत होती है। उन्होंने दस शब्दों की व्याख्या क्रमशः निम्न प्रकार दी है 1. अंक गणित के परिकर्म 2. अंक गणित के व्यवहार 3. रेखागणित 4. राशियों का आयतन आदि निकालना 5. भिन्न 6. सरल समीकरण 7. वर्ग समीकरण 8. घन समीकरण 9. चतुर्थघात समीकरण 10. विकल्प गणित या क्रमचय-संचय दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापड़िया (1937) ने इस विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक्त सामग्री एवं प्राचीन जैन गणितीय ग्रंथों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखते हुए लिखा है कि : It is extremely difficult to reconcile these two views specially when we 18 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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