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________________ विगलन आवश्यक हो जाता है। उसके विसर्जन बिना एकाकीपन आ ही नहीं सकता । कैवल्य की साधना एकाकीपन की साधना है । वह व्यष्टिनिष्ठ आनन्द है । जो स्वयं आनन्दित नहीं होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहां स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है। आत्मा में विशुद्ध परमात्मा का रूप बसा हुआ है। इसलिए आत्मसाधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्त्ता हर्ता नहीं । बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है । उसका अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो उठता है, स्व-पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान - सामायिक करने लगता है । जब यह भी भेद समाप्त हो जाता है तो आत्मा की परमात्मावस्था आ जाती है। मनुष्य ही परमात्मा बन जाता है। आत्मा ही परमात्मा है, यह क्रान्तिकारी उद्घोषणा जैनधर्म की निराली है । ईश्वर से मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता देना जैनधर्म की अपनी विशेषता है। नीत्शे ने कहाईश्वर मर चुका है। अब आदमी स्वतन्त्र है कुछ भी करने के लिए | पर जैनधर्म ने इससे भी आगे बढ़कर कहा- ईश्वर का अस्तित्व था ही कहाँ ? फिर उसके मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर व्यक्ति में परमात्मा बैठा हुआ है। बस, उसे जागृत करने की आवश्यकता है । ईश्वर में जगत्-कर्तृत्व है ही नहीं। संसार तो उपादान - निमित्त का संयोजन मात्र है स्वयं ही । उसे ईश्वर कर्तृत्व की आवश्यकता नहीं होती । संसार की सृष्टि निमित्त- उपादान कारणों से होती है। ईश्वर सृष्टि - कारक नहीं है । व्यक्ति स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है । सारा उत्तरदायित्व स्वयं के सिर पर है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्त्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा अपना ही मित्र है । वह असंयम से निवृत्त होता है और संयम में प्रवृत्त होता है । निवृत्ति और प्रवृत्ति, उसकी एक साथ चलती है। सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो इन्द्रियां हैं, कषाय हैं जिन्हें जीतने के लिए व्यक्ति को सदैव संघर्ष करना पड़ता है, विवेक जाग्रत करना पड़ता है। तभी धर्माचरण हो पाता है। विवेक जाग्रत हो जाने पर सांसारिक सुख यथार्थ में सुखाभास लगने लगता है, उनमें झूठा आनन्द दिखाई देने लगता है, मृत्यु का चिन्तन प्रखर हो उठता है । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं य, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥ एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्द्रियाणि य । ते जिणित्तू, जहानायं विहरामि अहं मुणी ॥' तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 49 www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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