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________________ अवस्था रूप परमात्मा को प्राप्त करने का आह्वान करते हैं । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमारी की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तुस्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं । है भी नहीं । इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है । उसे वह उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संषर्घ करने की प्रेरणा देता है और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुखों का मूल कारण राग और द्वेष है । प्राणी कर्म मोह की प्रबलता से उन्मत्त होते हैं। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भाव- परम्परा दुःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहां ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव- चक्कर से मुक्त होना आवश्यक है। उपादेय भी यही है । आत्मा ही परमात्मा है, इस परमतत्त्व को समझने का मार्ग भी यही है । I 3. आत्म- स्वतन्त्र्य जैन सांस्कृतिक परम्परा में आत्म - स्वातन्त्र्य की घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तत्त्व नहीं है । वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है । इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा वीतरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहां रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हुआ कमल जो जल में रहता हुआ भी जल उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता । भावे विरतो मणिओ विसोगो, एएणदुक्खोहरपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोखरणि पलासं ॥ जैन-धर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न सृष्टिकारक परमात्मा का । वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की । आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता है। वहां मैं नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। हां, अहंकार का 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 130 www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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