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________________ शरीर माध्यम बनता है चेतना की अभिव्यक्ति का एवं कृत कर्मों के भोगने का। स्थूल शरीर का घटक है 'जीन'। सूक्ष्म शरीर का घटक है कर्म। जैसा "जीन" होता है, गुण सूत्र होता है, व्यक्ति वैसा ही बन जाता है। यह जीन सभी संस्कार सूत्रों तथा सारे विभेदों का मूल कारण है । वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) की भाषा में कहा जाता है कि एक-एक जीन का साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए होते हैं तो कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि कर्म स्कन्ध में अनन्त आदेश लिखे हुए होते हैं। अभी तक वंश-परम्परा विज्ञान (Genetic Science) जीन' तक ही पहुंच पाया है और यह 'जीन' स्थूल शरीर का ही घटक है, किन्तु कर्म सूक्ष्म शरीर का घटक है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस शरीर है, विद्युत् शरीर है। वह सूक्ष्म शरीर है। कर्म शरीर-सूक्ष्मतम है। इसके एक-एक स्कन्ध पर अनन्त-अनन्त लिपियाँ लिखी हुई हैं। हमारे पुरुषार्थ का, अच्छाइयों का, बुराइयों का, न्यूनताओं और विशेषताओं का सारा लेखा जोखा और सारी प्रतिक्रियाएं कर्म शरीर में अंकित रहती हैं। वहां से जैसे स्पंदन आते हैं, आदमी वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है। प्राण से तात्पर्य जीवन शक्ति है। जिनके संयोग से यह जीव जीवन अवस्था को प्राप्त होता है और वियोग से मरण अवस्था को प्राप्त होता है, उसको प्राण कहते हैं। पांचों ही इन्द्रियों की जो ज्ञान करने की शक्ति है उसे कहते हैं- पांच इन्द्रिय प्राण । मनन करने, बोलने और शारीरिक क्रिया करने की शक्ति को कहते हैं- मनोबल, वचनबल और कायबल। बल और प्राण एक ही हैं। पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करने और छोड़ने की शक्ति श्वासोच्छ्वास प्राण है। अमुक भव में अमुक काल तक जीवित रहने की शक्ति को कहते है- आयुष्य प्राण।। प्राण का संबंध पर्याप्ति के साथ है। प्राण जीव की शक्ति है और पर्याप्ति जीव द्वारा ग्रहण किए हुए पुद्गलों की शक्ति है। पर्याप्ति कारण है और प्राण कार्य है। जीव की मन, वचन और काया से सम्बन्ध रखने वाली कोई भी ऐसी प्रवृत्ति नहीं, जो पुद्गल द्रव्य की सहायता के बिना होती है। पांच इन्द्रिय प्राणों का कारण है- इन्द्रिय पर्याप्ति । मनोबल, वचनबल और कायबल का क्रमशः कारण है मनः पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति । श्वासोच्छ्वास प्राण का कारण है- श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति। आयुष्य प्राण का कारण है आहार पर्याप्ति, क्योंकि आहार पर्याप्ति के आधार पर ही आयुष्य प्राण टिक सकता है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार इन दस प्राणों में मुख्य प्राण है- आयुष्यप्राण। शरीर की समस्त क्रियाएं और समस्त अंगों का कार्य संचालन तभी तक संभव है जब तक आयुष्य प्राण क्रियाशील है। इसके समाप्त होते ही समस्त क्रियाएं सम्पूर्ण रूप से बन्द हो जाती हैं जिसे हम मृत्यु की संज्ञा देते हैं।' 70 - तुलसी प्रज्ञा अंक 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524626
Book TitleTulsi Prajna 2006 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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